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ताइवान खतरनाक मोड़ पर

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलाेसी की हाल ही की ताइवान यात्रा के बाद भड़का चीन शांत भी नहीं हुआ था कि अमेरिकी सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल ताइवान पहुंच गया।

01:57 AM Aug 17, 2022 IST | Aditya Chopra

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलाेसी की हाल ही की ताइवान यात्रा के बाद भड़का चीन शांत भी नहीं हुआ था कि अमेरिकी सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल ताइवान पहुंच गया।

ताइवान खतरनाक मोड़ पर
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलाेसी की हाल ही की ताइवान यात्रा के बाद भड़का चीन शांत भी नहीं हुआ था कि अमेरिकी सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल ताइवान पहुंच गया। इस बात से गुस्साए चीन के ताइवान के आसमान पर एक बार फिर अपने लड़ाकू विमान मंडराने लगे हैं। चीन ने अपने लड़ाकू विमान ताइवान की वायु सीमा में उड़ाकर उसे सख्त संदेश दिया है। इतना ही नहीं चीन ने अमेरिका के सुपर कैरियर नवेल फ्लीट को उड़ाने के लिए अपना बलशाली हथियार युआन क्लास की स्टील्थ पनडुब्बी को दक्षिण चीन सागर में उतार दिया है। यह पनडुब्बी सुपर सोनिक मिसाइलों से लैस है। चीन-ताइवान तनाव  खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका है।
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भारत समेत पूरी दुनिया हाल ही के घटनाक्रमों से ​चिंतित है। भारत ने ताइवान जल क्षेत्र में यथास्थिति को बदलने के लिए एक तरफा कार्रवाई से बचने का पक्ष लिया है, साथ ही यह भी कहा है कि क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के प्रयास किए जाने चाहिएं। चीन और ताइवान का मसला कई दशक पुराना है। वर्ष 1949 में माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया था तो युद्ध में पराजित सत्ताधारी नेश​नलिस्ट पार्टी (कुओमितांग) के नेता और कार्यकर्ता चीन की मुख्य भूमि छोड़ कर दक्षिण पश्चिमी द्वीप ताइवान पर चले गए थे। उसके बाद कुओमितांग ताइवान की अहम पार्टी बनी। ताइवान के इतिहास में ज्यादातर इसी पार्टी का शासन रहा।
फिलहाल दुनिया के केवल 13 देश ताइवान को एक अलग और संप्रभु देश मानते हैं। चीन का हमेशा दूसरे देशों पर ताइवान को मान्यता नहीं देने का दबाव रहता है। चीन हमेशा से इस क्षेत्र पर अपना दावा करता है। ताइवान को लम्बे समय तक अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का समर्थन रहा है। 70 के दशक के शुरू में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निकसन के प्रयासों से चीन को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ जोड़ा गया और अमेरिका और चीन के संबंधों का नया दौर शुरू हुआ। तब अमेरिका ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ को अपनाया लेकिन 1979 में अमेरिकी कांग्रेस ने एक प्रस्ताव भी पारित किया, जिसे अमेरिका-ताइवान संबंध समझौता कहा जाता है। इसके तहत यह प्रावधान है कि ताइवान की सुरक्षा के लिए अमेरिका हर तरह से सहयोग मुुुहैया कराएगा। उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि जरूरत पड़ने पर चीन ताइवान के लिए अमेरिका से टक्कर लेने को तैयार होगा, क्योंकि उस समय चीन बहुत कमजाेर था।
अब चीन इतना शक्तिशाली हो चुका है कि वह अमेरिका की वैश्विक दादागिरी को चुनौती दे रहा है। अमेरिका भी इसे गम्भीरता से ले रहा है और उसका पूरा ध्यान हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीनी दबदबे को रोकने पर है। जब से यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू हुआ है अमेरिका चाहता है कि चीन रूस की सामरिक मदद नहीं करे। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की यात्रा के बाद अमेरिकी सांसदों के प्रति​निधिमंडल के ताइवान दौरे ने सारे समीकरण हिला दिए। अमेरिका की हरकतों से चीन गुस्से में है क्योंकि उसे लगता है कि वह उसे चारों तरफ से घेरने की कोशिश  कर रहा है। चीन ने ताइवान पर कई प्रतिबंध लगा दिए हैं। चीन-ताइवान के बीच जारी तनाव किसी युद्ध से कम नहीं लग रहा। चीन लगातार अमेरिका को धमका रहा है। घटनाक्रम बता रहा है कि ताइवान क्षेत्र में शांति नहीं है। चीन कब ताइवान पर हमला कर बैठे, इस बारे में ठोस कुछ नहीं कहा जा सकता। ताइवान ने भी चीन को मुंह तोड़ जवाब देने की ठान रखी है। उसे लगता है कि आग की लपटें और भड़केंगी, लेकिन जो भी हालात बने हुए हैं उससे एशियाई शांति को खतरा पैदा हो गया है।
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रूस-यूक्रेन युद्ध का असर हम सब देख ही रहे हैं और अगर एक ओर युद्ध हुआ तो इसका प्रभाव बहुत घातक होगा। दरअसल पेलोसी का ताइवान दौरा अमेरिका की घरेलू राजनीति का परिणाम भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पूर्व राष्ट्रपतियों के मुकाबले काफी कमजोर साबित हो रहे हैं, इसलिए उन्होंने कुछ ऐसा करने की कोशिश की है जिससे उनकी छवि एक ताकतवर शासक की बने। अब सवाल यह भी है कि क्या अमेरिका ने ताइवान में एक नया मोर्चा खोल दिया है, क्या इस मोर्चे से विश्व शांति, स्थिरता और सुरक्षा को कोई फायदा हुआ? इस सवाल का जवाब नकारात्मक है।
ताइवान से अमेरिका के हित जुड़े हुए हैं। वह अमेरिकी हथियारों का बड़ा खरीददार है। इसलिए वह ताइवान का रक्षक बना हुआ है। अमेरिका किसी भी हालत में ताइवान को खोना नहीं चाहता। अमेरिका ने यही काम यूक्रेन में भी किया  है। वह अब भी यूक्रेन को हथियार दे रहा है। कहीं यही घटनाक्रम दोबारा तो नहीं होगा? जहां तक भारत का सवाल है, वह यह चाहता है कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन सामुद्रिक आवागमन में बाधा न उत्पन्न करे। भारत अभी तक ‘वन चाइना पॉलिसी’ का समर्थन करता आ रहा है। चीन ऐसा चाहता है कि भारत उसका समर्थन करे तो उसे भी भारत की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता का सम्मान करना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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