चुनाव आयोग को निशाना बनाना अनुचित
पिछले एक दशक से देश की राजनीति में व्यापक फेरबदल देखने को मिला है। 2014 में केंद्र में एनडीए की सरकार बनने के बाद से देश की राजनीति का रंग और ढंग बदला है। देश के अधिकतर राज्यों से विपक्ष की राजनीति धराशायी हो गई है। वर्तमान में भी गिने-चुने राज्यों में ही विपक्षी दलों की सरकार हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में लगातार मिल रही पराजय से खीझा हुआ विपक्ष अब अपनी भड़ास चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त पर उतार रहा है। ईवीएम पर तो आरोप लगते ही रहते हैं। वो अलग बात है आज जिस चुनाव आयोग पर विपक्ष उंगली उठा रहा है, जिसको आरोपों के कठघरे में खड़ा कर रहा है। उसी चुनाव आयोग और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से वो लोकसभा और विधानसभा में पहुंचा है। ईवीएम पर गुस्सा निकालने और खीझ उतारना अब पुरानी बात हो गई है। अब निशाने पर सीधे तौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त हैं। इसी साल फरवरी महीने में ज्ञानेश कुमार को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया था। चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए बने नए कानून के तहत पद संभालने वाले वो पहले सीईसी बने थे।
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग की नौबत यकीनन संविधान और लोकतंत्र के लिए एक भयावह, चुनौतीपूर्ण और अस्वीकृति की स्थिति है। संवैधानिक व्यवस्था में यह नौबत क्यों आनी चाहिए? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त शारीरिक और मानसिक तौर पर अक्षम हो गए हैं? क्या उनकी साख और निष्पक्षता निर्णायक तौर पर सवालिया अथवा आशंकित हो गई है? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ भ्रष्टाचार अथवा पक्षपात के आरोप कानूनन साबित हो चुके हैं और अदालत ने फैसला सुना दिया है? विपक्ष की राजनीति के मद्देनजर महाभियोग की नौबत भी पक्षपाती है। विपक्ष के ‘वोट चोरी’ के आरोप ही पर्याप्त नहीं हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया संसद में शुरू की जाए। किसी भी संवैधानिक संस्था या पदासीन अधिकारी के खिलाफ महाभियोग मोहभंग और अस्वीकृति की पराकाष्ठा है। अहम प्रश्न यह है कि ऐसी नौबत ही क्यों आनी चाहिए? यदि राजनीतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का एक ही पक्ष महाभियोग की बात करने लगे तो वह उस संवैधानिक संस्था अथवा अधिकारी के प्रति दुराग्रह की भावना है। निश्चित तौर पर उसकी पृष्ठभूमि में प्रतिशोध का भाव भी निहित होगा। एक पक्ष के पूर्वाग्रहों से संवैधानिक और संसदीय व्यवस्थाएं नहीं चल सकतीं।
कुछ उदाहरण सामने हैं। अप्रैल, 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव विपक्ष ने राज्यसभा में दिया। आरोप खोखले, कुत्सित और पूर्वाग्रही थे, लिहाजा ऐसे ही कुछ आधारों पर तत्कालीन सभापति वेंकैया नायडू ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इसी तरह तत्कालीन उपराष्ट्रपति एवं सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ राज्यसभा में ही कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष ने महाभियोग का नोटिस दिया। प्रस्ताव में उन्हें पक्षपाती करार दिया गया कि वह विपक्ष को उसका पक्ष रखने को पर्याप्त समय नहीं देते हैं। बहरहाल अपरिहार्य आधार पर वह प्रस्ताव भी खारिज हो गया लेकिन इस अंतराल में मीडिया के विभिन्न प्रारूपों में इन संवैधानिक हस्तियों के खिलाफ जो कुछ लिखा या कहा गया, यकीनन उनकी शख्सियत पर कीचड़ उछाले गए, उसकी भरपाई कौन करेगा?
अब बारी मुख्य चुनाव आयुक्त की है। सोशल मीडिया पर उन्हें ‘केंचुआ’ करार दिया जा रहा है। क्या यह उपमा उचित है? बेशक संविधान के अनुच्छेद 324 (5) में मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की व्यवस्था दी गई है लेकिन ‘महाभियोग’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं है। ‘वोट चोरी’ पर विपक्ष और मुख्य चुनाव आयुक्त के बीच विरोधाभास हैं।
यह स्पष्ट है कि संसद में मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग का विपक्षी प्रस्ताव ध्वस्त होना तय है, क्योंकि दो-तिहाई बहुमत उसके पक्ष में नहीं है और बेशक सत्ता पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त को जरूर बचाएगा। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री वाली चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति की है। वह पक्ष महाभियोग को सफल क्यों होने देगा? इस यथार्थ के बावजूद और ध्रुवीकरण की राजनीति के मद्देनजर यह नेरेटिव फैलाना शुरू किया गया है कि विपक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने पर विमर्श कर रहा है। विपक्षी गठबंधन के अधिकतर दल इसके पक्ष में हैं। राहुल गांधी ने 7 अगस्त को वोटर लिस्ट में गड़बड़ी को लेकर एक घंटे से ज़्यादा का प्रजेंटेशन दिया था। उन्होंने दावा किया कि लोकसभा चुनावों के साथ-साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी ‘वोटर लिस्ट में बड़े पैमाने पर धांधली’ की गई है। बिहार में हो रहे मतदाता गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर राहुल गांधी और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव चुनाव आयोग पर आरोप लगाते रहे हैं। दोनों नेताओं का कहना है कि ये वोट काटने की साजिश है। उस वक्त चुनाव आयोग ने उनके आरोपों को ‘गुमराह’ करने वाला बताया था। चुनाव आयोग का कहना था कि अगर राहुल गांधी ‘वोट चोरी’ के अपने दावे को सही मानते हैं तो उन्हें शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए। हालांकि इसके बाद भी कांग्रेस और विपक्ष चुनाव आयोग पर ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाता रहे। मानसून सत्र के दौरान विपक्ष ने इस पर बहस की मांग भी की।
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी के सवालों का जवाब देते हुए उनके आरोपों को बेबुनियाद करार दिया। मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा, ‘इनकी जांच बिना हलफनामा दाखिल किए नहीं हो सकती है। या तो राहुल गांधी हलफनामा दें या फिर देश से माफी मांगें। उन्हें 7 दिनों के अंदर हलफनामा देना होगा या पूरे देश से माफी मांगनी होगी, नहीं तो समझा जाएगा कि ये आरोप बेबुनियाद हैं।’ उन्होंने कहा कि ‘वोट चोरी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करोड़ों मतदाताओं और लाखों चुनाव कर्मचारियों की ईमानदारी पर हमला है। महाराष्ट्र को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि समय रहते जब ड्राफ्ट सूची थी तो आपत्ति दर्ज क्यों नहीं कराई और नतीजों के बाद ही गड़बड़ी की बात क्यों सामने लाई गई।
लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों पर पलटवार करते हुए चुनाव आयोग ने कहा, लोकसभा चुनाव के लिए 1 करोड़ से अधिक अधिकारी, 10 लाख से अधिक बूथ-स्तरीय एजेंट और 20 लाख से अधिक मतदान एजेंट काम करते हैं। क्या कोई इतने सारे लोगों के सामने और इतनी पारदर्शी प्रक्रिया के साथ वोट चुरा सकता है? दोहरे मतदान के कुछ आरोप लगाए गए थे लेकिन जब हमने सबूत मांगा तो हमें कुछ नहीं मिला। ऐसे आरोपों से न तो चुनाव आयोग डरता है और न ही कोई मतदाता।’ ‘वोट चोरी’ का मामला अभी सर्वोच्च अदालत में है। अदालत के अंतरिम आदेश के मुताबिक, आयोग ने मतदाता सूचियों से काटे गए 65.64 लाख नामों को अपनी वेबसाइटों पर सार्वजनिक कर दिया है। दावा यह भी किया जा रहा है कि नाम काटने के ‘कारण’ भी बताए गए हैं। अब आयोग ने ‘आधार कार्ड’ को स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है। इस कार्ड के साथ आवेदन स्वीकार किए जा रहे हैं। मतदाताओं की निजता का मुद्दा भी अदालत के विचाराधीन है। विपक्ष को सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए था। देश की जनता सच्चाई का जान समझ रही है इसलिए चुप है।