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हैदराबाद में तनाव का कारण

भारत में साम्प्रदायिक विचारधारा की गुंजाइश इसकी मूल संस्कृति में ही नहीं है और मजहबी आधार पर द्वेष या वैर-भाव की गुंजाइश तो बिल्कुल ही नहीं है।

01:18 AM Aug 25, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत में साम्प्रदायिक विचारधारा की गुंजाइश इसकी मूल संस्कृति में ही नहीं है और मजहबी आधार पर द्वेष या वैर-भाव की गुंजाइश तो बिल्कुल ही नहीं है।

भारत में साम्प्रदायिक विचारधारा की गुंजाइश इसकी मूल संस्कृति में ही नहीं है और मजहबी आधार पर द्वेष या वैर-भाव की गुंजाइश तो बिल्कुल ही नहीं है। यह विकृति भारत की धरती पर मुस्लिम आक्रमणों के बाद ही पैदा हुई जिसमें सुधार करने के उपाय अपने-अपने तरीकों से इस देश के महान विचारकों व समाज सुधारकों ने किये जिनमें महात्मा गांधी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है मगर उनके प्रयासों का असर भी एक पक्षीय ही रहा अर्थात हिन्दू समाज में जहां बापू इसकी संस्कृति के मूल पक्ष मानवता को उभारने में सफल रहे वहीं मुस्लिम समाज में यह पक्ष इसके कट्टर मुल्ला, मौलवियों और उलेमाओं के प्रभाव की वजह से सतह पर नहीं आ सका। जिसका भयंकर परिणाम हमारे सामने 1947 में आया और केवल मजहब के नाम पर ही भारत का बंटवारा हो गया और पाकिस्तान का निर्माण हो गया। यहीं से मजहब को राष्ट्रीयता से जोड़ा गया अतः 1947 के बाद भारत में बसी मुस्लिम जनता की विशेष जिम्मेदारी थी कि वह भारतीय संस्कृति के मूल मानकों के अनुरूप वह मानवतावादी स्वरूप अपनी मजहबी रवायतों को दे जिससे भारत के मुसलमान हर दृष्टि से भारतीय होने में गौरव का अनुभव कर सकें। परन्तु स्वतन्त्रता के बाद प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने एक दूरदृष्टा राजनेता और विचारक होने के बावजूद ऐसी ऐतिहासिक गलती कर दी जिसकी वजह से आजाद भारत में आज धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम तुष्टीकरण का पर्याय माना जाता है।  नेहरू ने गुलाम भारत में भी मुसलमान नागरिकों को अलग पहचान देने की भूल करके साम्प्रदायिक तत्वों को अपनी दुकानें चलाने की सहूलियत प्रदान कर दी जिससे भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता दिन दूनी रात चौगुनी गति से विकसित होती चली गई। 
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हम जो आज कुछ भी देख रहे हैं वह केवल मुस्लिम साम्प्रदायिकता और मजहबी संकीर्णता की प्रतिक्रिया है। आजाद भारत में मुसलमानों के लिए 1937 में अंग्रेजों के बनाये हुए आंशिक शरीया कानून को ही लागू करके पं. नेहरू ने भारतीय नागरिकों को ही मजहबी पहचान से लाद दिया। इसके बाद उन्होंने हिन्दू जनता के लिए पृथक आचार संहिता का कानून टुकड़ों में बनाया । यह सनद रहनी चाहिए कि जब डा. भीमराव अम्बेडकर के हिन्दू कोड बिल को प्रथम लोकसभा चुनावों से पहले तत्कालीन संसद (तब संविधानसभा ही लोकसभा में बदल गई थी) ने अस्वीकार कर दिया था और डा. अम्बेडकर ने कानून मन्त्री के पद से इस्तीफा दे दिया था तो प्रथम लोकसभा के चुनाव अक्टूबर 1951 से लेकर मार्च 1952 तक हुए थे और पं. नेहरू ने इन चुनावों के प्रचार में हिन्दू कोड बिल को एक मुद्दा बनाया था परन्तु मुसलमान नागरिकों के बीच आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा अपनाये जाने के प्रश्न को उन्होंने एक तरफ रख दिया था। उस समय यदि नेहरू चाहते तो देश के सभी हिन्दू-मुस्लिम नागरिकों के लिए एक समान आचार संहिता लागू कर सकते थे क्योंकि उनकी जन मानस में अपार लोकप्रियता को चुनौती देने की हिम्मत किसी भी अन्य राजनीतिज्ञ में नहीं थी। परन्तु स्व. नेहरू ने तब कांग्रेस के 1931 के कराची कांग्रेस सम्मेलन से ही स्वयं को बांधे रखा जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस आजादी मिलने पर प्रत्येक नागरिक को मूलभूत मानवीय अधिकार देगी परन्तु मुसलमानों को छूट होगी कि वे अपने घरेलू मामले में अपने मजहब के अनुसार शरीया कानूनों का ही पालन करें। 
कांग्रेस का 1931 का यह प्रस्ताव केवल पाकिस्तान का गठन करने के लिए चल रहे जिन्नावादी तत्वों के प्रयासों को रोकना था। संयोग से इस सम्मेलन की अध्यक्षता तब सरदार पटेल ने की थी। लेकिन भारत को स्वतन्त्रता तो पाकिस्तान निर्माण की शर्त पर मिली थी अतः पं. नेहरू के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने का मार्ग उतना ही सरल था जितना इसे पंथ निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करना। अतः पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का पनपना कालान्तर में इतना घातक साबित हुआ कि यहां के हिन्दू सम्प्रदाय के लोगों में भी इसकी प्रतिक्रिया सतह पर आ लगी। आज हम हैदराबाद में जो देख रहे हैं वह किसी फारूकी नामक हास्य कलाकार द्वारा भगवान राम व सीता के बारे में उपहासात्मक टिप्पणियों की प्रतिक्रिया है। इस मामले में भाजपा के ही एक विधायक को जेल इसलिए भेजा गया है क्योंकि उन्होंने फारूकी के जवाब में इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां कीं। 
भारत के कानून के अनुसार विधायक टी. राजा सिंह के खिलाफ पुलिस ने कार्रवाई की और उन्हें गिरफ्तार करके न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया। जहां से उन्हें जमानत मिली। परन्तु मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों और कुछ नेताओं की मौजूदगी में टी. राजासिंह के खिलाफ ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाये जाना भी भारतीय कानून के खिलाफ है। ऐसा नारा लगाने वालों की निशानदेही करके उनके विरुद्ध भी कानूनी प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जिससे किसी भी पक्ष का तुष्टीकरण न हो सके। रसूल-अल्लाह की शान में गुस्ताखी करना गुनाह है तो सर तन से जुदा करने की हुंकार भी भारत के कानून के तहत गुनाह है। मगर हम हिन्दोस्तानी हैं और हमें यह समझना होगा कि भारत सभी का है। इसे मुसलमानों को भी समझना होगा कि भारत कोई मजहब की बुनियाद पर खड़ा मुल्क नहीं बल्कि इंसानियत को मानने वाली हिन्दू संस्कृति का वह देश है जिसमें इस्लाम के ही 70 फिरकों के लोग रहते हैं। यहां की संस्कृति सर तन से जुदा करने की नहीं बल्कि स्वर से स्वर मिला कर ‘सुर’ बनाने की है।
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