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इतिहास की भयानक गल्तियां

भारत की पांच हजार साल से भी पुरानी सभ्यता का एक पुख्ता इतिहास रहा है और चारों वेदों की लिखित सामग्री के सन्दर्भ से यह सभ्यता दुनिया की सबसे वैज्ञानिक विचार की सभ्यता भी रही है।

02:30 AM Jan 25, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत की पांच हजार साल से भी पुरानी सभ्यता का एक पुख्ता इतिहास रहा है और चारों वेदों की लिखित सामग्री के सन्दर्भ से यह सभ्यता दुनिया की सबसे वैज्ञानिक विचार की सभ्यता भी रही है।

इतिहास की भयानक गल्तियां
भारत की पांच हजार साल से भी पुरानी सभ्यता का एक पुख्ता इतिहास रहा है और चारों वेदों की लिखित सामग्री के सन्दर्भ से यह सभ्यता दुनिया की सबसे वैज्ञानिक विचार की सभ्यता भी रही है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि ईसा से पौने चार सौ साल पूर्व जन्में आचार्य चाणक्य ने सर्वप्रथम व्यावहारिक राजनीति का आधार प्रस्तुत किया और अपने जीवन के पचासवें साल के आते-आते भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य स्थापित करा दिया। दुनिया में उस समय यूनान में इसके कुछ समय के अन्तराल में ही राजनैतिक दार्शनिक अऱस्तु की छत्रछाया में सिकन्दर का भी उदय हुआ जिसने पूरी दुनिया को जीतने का बीड़ा उठाया। भारत पर आक्रमण करने के बाद वह पंजाब राज्य के राजा पोरस से ही दो-दो हाथ करके वापस लौट गया और युवावस्था में ही उसकी मृत्यु हो गई।
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चन्द्रगुप्त की फौजों से उसका मुकाबला नहीं हुआ क्योंकि सिकन्दर की फौजें सिन्धु नदी ही पार नहीं कर पाई थीं। सिकन्दर की मृत्यु के बाद जब उसका सेनापति सिल्यूकस सम्राट बना तो उसने भारत पर पुनः आक्रमण किया और तब उसका मुकाबला चन्द्रगुप्त मौर्य से हुआ जिसमें सिल्यूकस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा और बदले में वह अपनी पुत्री का चन्द्रगुप्त मौर्य से विवाह करके वापस स्वदेश चला गया। यह सब लिखने का आशय यही है कि भारत के इतिहास को अंग्रेज इतिहासकारों ने अपनी सुविधा के अनुसार इस प्रकार लिखा कि भारत के नायकों को समय की गर्त मंे छिपा दिया जाये। चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक महान ने जब अपना साम्राज्य पाटिलिपुत्र से लेकर तेहरान( ईऱान) तक स्थापित किया तो भारत में बौद्ध धर्म राजधर्म का स्थान पा चुका था और सिपाहियों के हाथ में तलवार की जगह ‘माला’  आ चुकी थी। ईसा के बाद की छठी शताब्दी तक बौद्ध धर्म का प्रसार पूरे दक्षिण एशिया से लेकर पश्चिम एशिया व चीन तक में हो चुका था। पूरे भारत में बौद्ध मठों का जाल बिछ चुका था परन्तु सातवीं सदी के अन्त तक इस्लाम धर्म का प्रादुर्भाव शुरू हो गया था लेकिन उस दौरान हिन्दू (सनातन) व बौद्ध मतावलम्बियों के बीच संघर्ष चलता रहता था और सनातन पंथ को मानने वाले लोग दक्षिण से लेकर उत्तर तक के इलाकों में सम्पन्नता से कम नहीं थे जिसकी वजह से उनके मन्दिरों में अपार सम्पत्ति रहती थी। अरब में इस्लाम फैलने के साथ आठवीं सदी की शुरूआत में वहां की रियासतों की नजर भारत पर पड़नी शुरू हुई।
 711 ईस्वीं में मोहम्मद बिन कासिम ने भारत के सिन्ध प्रान्त में आने का जोखिम उठाया और वहां के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा कर इस प्रान्त पर अपना कब्जा कर यहां की हिन्दू रियाया से जजिया वसूल करना शुरू किया। जिसके बाद जजिया वसूल करने के कायदों से उक्ता कर हिन्दू समाज के लोगों ने इस्लाम धर्म कबूल करना शुरू किया क्योंकि जब मुसलमान सैनिक जजिया वसूल करते थे तो उनके हाथ ऊपर नहीं बल्कि सीधे होते थे और सैनिक उनके हाथ से रकम झपट कर या तो उन पर थूक देते थे अथवा जमीन से खाक उठा कर उन पर डाल देते थे। सिन्ध के रास्ते भारत में इस्लाम फैलने की यह शुरुआत थी। बाद में अफगानिस्तान का इस्लामीकरण हुआ और अन्य दक्षिण व पश्चिम एशियाई देशों में इस्लाम फैला। मगर पाकिस्तान के छात्रों को स्कूल में पढ़ाया जाता है कि उसका इतिहास मोहम्मद बिन कासिम से शुरू होता है जबकि हकीकत यह है कि राजा दाहिर इस देश के लोगों का महानायक है जिसने विदेशी आक्रान्ता का डट कर मुकाबला किया था लेकिन दूसरी तरफ भारत में मध्य युगीन इतिहास को अंग्रेजों ने भारत की हिन्दू-मुस्लिम जनता को देखते हुए इन्हें आपस में बांटने के लिए इतिहास को इस तरह घुमाया जिससे भारतीयों में ‘दास भावना’ घर बना सके और वे अपने राज के लिए कभी इकट्ठे न हो सकें। इसके लिए उन्होंने वे सभी नुक्ते आजमाये जिससे भारत के लोग आपस में ही एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहें। भारत की आजादी के बाद यह जिम्मा कम्युनिस्टों ने उठा लिया औऱ मार्क्सवादी विचारों के इतिहासकारों ने मुस्लिम शासकों के उधार स्वरूप को उभारना शुरू किया, यहां तक कि मुगल साम्राज्य के सबसे क्रूर और आततायी शासक औरंगजेब को भी उन्होंने महिमामंडित करने से नहीं छोड़ा और मुगलों को ‘ग्रेट मुगल्स’ उपनामों से नवाजा। बेशक इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मुगल सम्राट अकबर महान भारत को ही अपनी धरती मानता था और उसके शासन में भारतीय संस्कृति व हिन्दू धार्मिक भावनाओं का पूरा सम्मान होता था परन्तु वह राजशाही का दौर था और उसका लक्ष्य अपनी सल्तनत का अधिक से अधिक विस्तार करना था। इसी वजह से उसने अलग धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ चलाने का प्रयास भी किया था। इसके बाद अगर हम भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को देखें तो आजादी की लड़ाई कई रास्तों से लड़ी जा रही थी और अंग्रेज हर रास्ते में अपनी सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करके इसे तोड़ना चाहते थे। सरदार भगत सिंह व उसके साथियों की लड़ाई का रास्ता क्रान्तिकारी उपायों को प्रयोग करके आजादी हासिल करने का था। मगर कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने इसे शुरू में  ‘व्यक्तिगत आतंकवाद’ जैसे उपनाम से नवाजा। दूसरे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के सैनिक संघर्ष के रास्ते को उन्होंने ‘फासीवाद’ कहा और 1947 में  महात्मा गांधी के नेतृत्व में मिली आजादी को सत्ता का हस्तांतरण कहा और महात्मा गांधी को अंग्रेजों का मोहरा तक बताया। हालांकि बाद में कम्युनिस्टों ने तीनों ही मुद्दों पर अपने विचार बदले परन्तु कम्युनिस्ट विचारों से ओत-प्रोत उन इतिहासकारों का क्या विश्वास किया जा सकता है जिन्होंने भारत के बंटवारे के हक में दलीलें दीं और पाकिस्तान निर्माण का समर्थन किया। इतना ही नहीं कम्युनिस्ट तो भारत की हर क्षेत्रीय संस्कृति के अनुसार अलग देश का निर्माण चाहते थे। अतः ऐसी  विचारधारा के मानने वाले लोगों से भारत के इतिहास की चमक काे वापस तो लाना ही होगा और इतिहास की गल्तियां सुधारनी होंगी। यह बेवजह नहीं था कि प. नेहरू ने आजादी मिलते ही कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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