काले-गोरे का सवाल
यह एक फ़ेसबुक पोस्ट थी ‘मासूम भी हो सकती है और नहीं भी’ जिसने एक व्यापक…
यह एक फ़ेसबुक पोस्ट थी ‘मासूम भी हो सकती है और नहीं भी’ जिसने एक व्यापक बहस को जन्म दे दिया। इस बहस ने ‘रंगभेद’ जैसे कम प्रचलित शब्द को फिर से ज़बान पर ला दिया है जो सदियों पुराने उस पूर्वाग्रह का आधुनिक रूप है जिससे विशेष रूप से महिलाएं पीड़ित रही हैं, इस उपमहाद्वीप में पुरुषों से कहीं अधिक।
यह सच है कि रंगभेद एक अभिशाप की तरह महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावित करता है। अख़बारों के वैवाहिक विज्ञापन इसे ज़ोर-ज़ोर से रेखांकित करते हैं, जब ‘वधू चाहिए’ वाले कॉलम में स्पष्ट रूप से ‘गोरी और सुंदर’ लड़की की मांग की जाती है -मानो त्वचा का रंग ही उसकी सबसे बड़ी और एकमात्र योग्यता हो, मानो विवाह योग्य लड़की के पास रूप और कई बार दहेज के अतिरिक्त कुछ भी मूल्यवान नहीं होता। दहेज का उल्लेख भले ही न किया गया हो लेकिन उसकी अपेक्षा अवश्य की जाती है।
जिन्हें याद हो, लगभग पांच वर्ष पहले एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपने लोकप्रिय उत्पाद ‘फ़ेयर एंड लवली’ का नाम बदलना पड़ा था। यह बदलाव एक जन आंदोलन और अदालत के आदेश के बाद आया। करीब 18,000 लोगों ने एक याचिका पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें कहा गया था कि यह क्रीम नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा देती है और यह संदेश देती है कि हमारे रंग में कोई कमी है कि सुंदर और स्वीकार्य महसूस करने के लिए हमें गोरा होना ज़रूरी है। इसके बाद कंपनी ने ‘फ़ेयर’ शब्द को हटाकर इस क्रीम का नाम बदल दिया। किसी ने इसे एक जीत माना, तो किसी ने इसे केवल दिखावटी बदलाव कह कर ख़ारिज कर दिया।
कुछ वर्ष पहले, सिनेमा जगत की चर्चित अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता नंदिता दास ने भी यूनेस्को के साथ मिलकर रंगभेद के ख़िलाफ़ एक मुहिम शुरू की थी। इस अभियान का नाम था ‘डार्क इज़ ब्यूटीफुल’ एक पहल जिसने भारत में गहराई तक जड़ें जमाए रंगभेद के पूर्वाग्रह को संबोधित किया। फिल्मों में अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा था “जब किसी ग्रामीण महिला का किरदार होता है या दलित महिला का या किसी झुग्गी में रहने वाली का, तब मेरे त्वचा के रंग से किसी को दिक्कत नहीं होती,” दास ने एक कार्यक्रम में कहा। लेकिन जैसे ही मुझे एक पढ़ी-लिखी, उच्च-मध्यमवर्गीय महिला का किरदार निभाना होता है तो अक्सर कोई आकर कहता है ‘हमें पता है कि आप अपनी त्वचा को गोरा नहीं करना चाहतीं लेकिन यह किरदार एक उच्च-मध्यमवर्गीय पढ़ी-लिखी महिला का है।’
उन्होंने आगे कहा-मुझे याद है, लगभग हर लेख की शुरुआत मुझ पर ‘डार्क एंड डस्की नंदिता दास’ से होती थी-जैसे यह ज़रूरी हो कि पहले यह स्पष्ट कर दिया जाए कि वह सांवली हैं, फिर यह स्वीकार किया जाए कि वह एक अभिनेत्री भी हैं। यही ‘लेकिन’ और ‘फिर भी’ है जिससे महिलाएं लगातार संघर्ष कर रही हैं। इसी कड़ी की एक हालिया घटना है -केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन से जुड़ी, जिनके त्वचा के रंग पर टिप्पणी की गई। शारदा मुरलीधरन, जो एक उल्लेखनीय प्रशासनिक अधिकारी रही हैं, जीवन भर रंगभेद का सामना करती रही हैं। उनके लिए योग्यता को हमेशा रंग के बाद आंका गया-पहले उन्हें ‘सांवली’ देखा गया, फिर ‘योग्य और सक्षम।’ जैसे -वह सांवली हैं लेकिन पढ़ी-लिखी हैं, वह सांवली हैं, फिर भी सफल हैं? और यह सिलसिला चलता ही रहा।
अब लौटते हैं वर्तमान में, जब एक फ़ेसबुक पोस्ट ने उनकी तुलना उनके पति के कार्यकाल से कर दी। जैसा कि शारदा ने खुद लिखा, यह एक ‘अप्रत्याशित तुलना’ थी -जिसमें कहा गया-मेरे मुख्य सचिव के कार्यकाल को काला बताया गया, ठीक वैसे ही जैसे मेरे पति का कार्यकाल सफेद था। ग़ौरतलब है कि शारदा मुरलीधरन ने अपने पति वी. वेणु से केरल की मुख्य सचिव की ज़िम्मेदारी संभाली थी -यह देश में पहली बार था, जब किसी महिला ने अपने पति के बाद मुख्य सचिव का पद ग्रहण किया।
उसके इतर, शारदा मुरलीधरन का करियर ग्राफ स्वयं में अत्यंत प्रेरणादायक है। वे जिन पदों पर कार्य कर चुकी हैं, उन्हें पाने के लिए न जाने कितने लोग अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हों। उन्होंने कुडुम्बश्री मिशन का नेतृत्व छह वर्षों से भी अधिक समय तक किया -एक ऐसा मिशन जो महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों पर केंद्रित था। इसके अलावा वे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (National Rural Livelihoods Mission) में मुख्य परिचालन अधिकारी (सीओओ) रहीं, पंचायती राज मंत्रालय में संयुक्त सचिव और तिरुवनंतपुरम की ज़िलाधिकारी जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर अपनी प्रभावशाली सेवाएं दीं। शारदा को सबसे अधिक आहत उस तुलना ने नहीं किया, बल्कि इस बात ने किया कि उनके कार्यकाल को ‘काला’ और उनके पति के कार्यकाल को ‘सफेद’ कहा गया।
वो ऐसी महिला नहीं हैं जो ऐसी टिप्पणियों को चुपचाप सह लें। उन्होंने दो टूक कहा-पति और पत्नी को एक निरंतरता के रूप में देखने की जो अपेक्षा है, वह हमेशा सही नहीं होती। हम दो अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिनकी कार्यशैली भी अलग-अलग है।
एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के रूप में शारदा जिस मुक़ाम तक पहुंची हैं, वहां रंगभेद की बात करना कुछ असंगत-सा लगता है लेकिन शारदा का कहना है -रंग और लिंग के मुद्दे सेवा में आने से समाप्त नहीं हो जाते। ये आपके साथ बने रहते हैं। मैं स्त्री होना छोड़ नहीं सकती, और न ही सांवली होना। इन दोनों वजहों से मुझे बार-बार अपनी काबिलियत सिद्ध करनी पड़ी है। सेवा में आने के बाद एक हद तक संरक्षण ज़रूर मिलता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि व्यंग्यात्मक टिप्पणियां या चुनौतियां समाप्त हो जाती हैं -वे अब भी सामने आती हैं। चार साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी मां से एक मासूम-सा सवाल पूछा था ‘क्या आप मुझे दोबारा अपने पेट में रखकर गोरी और सुंदर बनाकर जन्म देंगी?’ उन्होंने अपनी मौसी से यह भी पूछा था कि वह कौन-सा साबुन इस्तेमाल करती हैं जो उन्हें इतना गोरा बना देता है। बचपन से ही वह इस विचार से जूझती रहीं कि वह ‘पर्याप्त’ नहीं हैं, सिर्फ़ इसलिए कि उनका रंग सांवला था।
यह फ़ेसबुक पोस्ट भले ही पुराने जख्मों को कुरेदने वाली हो लेकिन इसके साथ ही इसने उन्हें अपने रंग को पूरी तरह स्वीकारने की ताक़त भी दी -मैं जैसी हूं वैसी ही सुंदर हूं। उन्होंने गर्व से कहा “ब्लैक इज़ ब्यूटीफुल” परंतु यह सिर्फ़ शारदा या नंदिता की कहानी नहीं है। यह हर उस लड़की की कहानी है जो सांवली पैदा हुई है, हर उस महिला की पीड़ा है जो रात के सन्नाटे में रोती है -इस कामना के साथ कि काश उसका रंग थोड़ा और गोरा होता, कि काश वह अपनी त्वचा के रंग के लिए सफ़ाई देना या शर्मिंदा होना बंद कर पाती। यह उन तमाम महिलाओं की पुकार है जो चाहती हैं कि दुनिया समझे -सांवला भी सुंदर हो सकता है।
जैसी स्थिति है, रंगभेद एक जेंडर न्यूट्रल यानी लैंगिक रूप से तटस्थ समस्या नहीं है। यदि सच कहा जाए तो यह महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावित करता है। एक सांवले रंग का पुरुष समाज को स्वीकार्य है लेकिन वही रंग जब किसी महिला के हिस्से आता है तो वह अस्वीकार्य हो जाती है। लिंग भेद से इतर, रंगभेद पेशेवर दुनिया में भी अपनी पकड़ बनाए हुए है। कई पेशों में यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वहां ‘सकारात्मक व्यक्तित्व’ का सीधा संबंध व्यक्ति के रंग-रूप से जोड़ दिया जाता है।
बहुत-से पेशों में त्वचा का रंग निर्णयकारी भूमिका निभाता है,विशेष रूप से उन भूमिकाओं में जहां ‘दिखना’ ज़रूरी माना जाता है। फ्रंट डेस्क स्टाफ इसका एक उदाहरण हैं। सच्चाई तो यह है कि हम चाहे जितना प्रगतिशील और उदार होने का दिखावा कर लें लेकिन वास्तविकता यह है कि बदलाव बहुत सीमित हैं। सतही स्तर पर हम रंगभेद का विरोध करते हैं लेकिन ज़रा गहराई में झांकें तो रंग को लेकर पक्षपात अब भी हमारी सामूहिक सोच में गहराई से समाया हुआ है। यह मानो हमारी मानसिकता में रचा-बसा है। इसलिए नंदिता दास द्वारा चलाया गया अभियान हो या शारदा मुरलीधरन की सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं, पहले निश्चित रूप से सार्थक हैं लेकिन वे समाज में गहराई से जड़े इस पूर्वाग्रह को समूल समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। एक ऐसा समाज जहां आज भी जाति और रंग ही असल पहचान बनाते हैं, वहां यह संघर्ष जारी रहना लाजिमी है।