देश को चाहिए यूनिवर्सल सिटिजन कार्ड
आजादी के 78 वर्ष बीत जाने के बावजूद, हर ध्वजारोहण के दौरान किये जाने वाले विकास के वादों के बावजूद नये भारत के तथाकथित डिजिटल केंद्र में अरबों खर्च करने के बावजूद एक भारतीय नागरिक अपने पहचानपत्रों के साथ बेबस खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट की पहले की चेतावनी पर सहमति जताते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने भ्रम तोड़ दिया है, पहचान के पवित्र टोकन समझे जाने वाले आधार, पैन और वोटर आईडी नागरिकता के सबूत नहीं हैं, यह एक धोखा है, नौकरशाही की कलई उतार देने वाली ऐसी घटना है जिसकी चपेट में देश के 95 करोड़ मतदाता हैं। जिन दस्तावेजों को प्रमाणपत्र बताया गया था उन्हें अचानक खोखला बता दिया गया है। ऐसे में चाकू की तरह बेधक सवाल सामने है कि अगर ये कार्ड हमारी नागरिकता साबित नहीं करते तो नागरिकता किससे साबित होती है? यह भी कि अगर राज्य इस प्रश्न का जवाब नहीं देता तो फिर इस देश का क्या करें, जिसे हम अपना समझते आये हैं?
बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला बाबू अब्दुल रउफ सरदार के लिए वज्रपात की तरह है, जिन्हें अदालत ने जमानत नहीं दी। आरोप है कि बंगलादेश से अवैध रूप से भारत आये इस व्यक्ति ने यहां भारतीय नागरिकता से संबंधित जाली प्रमाणपत्र बना लिये। अदालत में न्यायमूर्ति अमित बोरकर की टिप्पणी स्पष्ट और दो टूक थी कि ‘आधार, पैन और मतदाता प्रमाण पत्रों के होने भर से कोई इस देश का नागरिक नहीं बन जाता।’ उनका यह भी कहना था कि ये दस्तावेज रोजगार पाने के प्रमाणपत्र हैं, इनसे नागरिकता कानून, 1955 के तहत नागरिकता साबित नहीं होती। उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय ने एक दूसरे मामले में भारत निर्वाचन आयोग का समर्थन करते हुए कहा कि आधार नागरिकता के प्रमाण का निर्णायक सबूत नहीं हो सकता। घुसपैठ पर अदालतों की सख्ती समझ में आती है, पर क्या सरकारी एजेंसियां भी अदालती आदेशों को बिना सोचे-विचारे उन पर लागू कर सकती हैं जो अविभाजित भारत में पैदा हुए थे और जिन्होंने स्वतंत्र भारत को अपने आवास के रूप में चुना?
जो आजाद भारत में पैदा हुए उनका क्या? ये सारी बातें एक महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ले जाती हैं, किसी को उसकी भारतीय नागरिकता का प्रमाणपत्र कहां से मिलेगा? नौकरशाही में तकरार की वजह से आरओसी (सिटिजन ऑफ रजिस्टर) को 2011 से अद्यतन नहीं किया गया है। आरओसी संभवत: अकेला विश्वसनीय दस्तावेज है जिसे सरकारी अधिकारियों द्वारा हर दशक में तैयार किया जाता है। अब चुनाव आयोग ने नागरिकता प्रदान करने का तंत्र खुद ही विकसित कर लिया है। वह वोट देने के इच्छुक नागरिकों से 11 दस्तावेज मांगता है।
चुनाव आयोग को अब जन्म प्रमाणपत्र, मैट्रिक के प्रमाणपत्र, स्थायी निवास प्रमाणपत्र, शादी के प्रमाणपत्र तथा माता-पिता के जन्म प्रमाणपत्र चाहिए, यह आश्चर्यजनक है कि आधार, पैन और चुनाव आयोग के फोटो प्रमाणपत्र नागरिकता के प्रभावी सबूत नहीं हैं। ऐसा क्यों है, इसका कोई सुसंगत जवाब नहीं दिया गया है। आयोग को याद दिलाने की जरूरत है कि सिर्फ 2.5 फीसदी भारतीयों के पास पासपोर्ट और मात्र 14.71 प्रतिशत भारतीयों के पास मैट्रिक के प्रमाणपत्र हैं। यह अनुमान लगाना कठिन है कि कितने भारतीयों के पास जन्म प्रमाणपत्र होगा। अदालत में चुनाव आयोग द्वारा पेश आंकड़ा भी बताता है कि ज्यादातर भारतीयों के पास ये दस्तावेज नहीं हैं।
आधार पर सरकार ने 2023 तक 12,000 करोड़ रुपये खर्च किये। दावा किया गया कि बैंक खाता खोलने, टैक्स चुकाने, संपत्ति के लेन-देन और हवाई अड्डे जैसी संवेदनशील जगहों पर प्रवेश में यह दस्तावेज काम आयेगा। कार खरीदने, घर किराये पर लेने और टैक्स फाइल करने के लिए तो यह अनिवार्य है, पर इससे नागरिकता साबित नहीं होती। चुनाव आयोग कहता है कि मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए आधार पर्याप्त नहीं, जिस सरकार ने आधार को हमारे अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण बताया था, वही अब कंधे उचका कर कहती है, ‘सॉरी, यह नागरिकता साबित करने के लिए नहीं है’ चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचानपत्र दशकों से मतदान करने का सबूत माना जाता रहा है, पर अब आयोग को अपनी ही मतदाता सूची गड़बड़ लग रही है, क्योंकि इसमें अवैध रूप से आये घुसपैठियों के नाम भी हैं। सुरक्षित नागरिकता प्रमाणपत्र की दिशा में अब तक ठोस पहल क्यों नहीं की गयी, जैसे अमेरिका में सोशल सिक्योरिटी नंबर या ब्रिटेन में नेशनल इंश्योरेंस नंबर है? बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले पर एडवोकेट सौरव अग्रवाल की टिप्पणी बेधक है, ‘सरकार और न्यायपालिका के लिए नागरिकता के प्रमाण से जुड़े दस्तावेज मुहैया कराने का समय आ गया है। यह आश्चर्यजनक है कि आधार का औचित्य ठहराने के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट में इतनी कवायद करनी पड़ी और लोगों की निजता के अधिकार का हनन करने के बाद आधार को अब कागज का एक टुकड़ा बताया जा रहा है।’
जाहिर है, देश को यूनिवर्सल सिटिजन कार्ड चाहिए। ऐसा कार्ड, जो पहचान के साथ-साथ नागरिकता और वोट देने का भी प्रमाणपत्र हो, देश के 95 करोड़ मतदाताओं की पहचान संदिग्ध होना अस्वीकार्य है। आजादी के 78 साल बाद भारत अपने नागरिकों को परिभाषित करने की कोशिश में लगा है। यह हास्यास्पद ही नहीं, लोकतांत्रिक अपमान भी है। क्या मैं एक भारतीय नागरिक हूं? मेरे पास आधार, पैन और वोटर आईडी कार्ड हैं लेकिन चूंकि मैं इस देश की मौजूदा सरहद से बाहर वहां पैदा हुआ, जिसे पाकिस्तान कहते हैं और चूंकि मेरे माता-पिता के दस्तावेज समय के साथ नष्ट हो गये, इसलिए जब तक मैं पर्याप्त सबूत न दिखाऊं, अदालतें मुझे नाम और देशविहीन ही मानेंगी। यह सिर्फ मेरा बोझ नहीं है- यह एक सामूहिक बीमारी है, यह एक ऐसी कागजी कार्यवाही है जिसका कोई प्रयोजन नहीं है, नौकरशाही ऐसी है जिसमें करुणा नहीं है। ऐसे में पहचान पूछताछ में बदल गयी है।
सरकार को खामोशी तोड़ते हुए संदेह के माहौल को हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए। उसे एक ऐसा संप्रभु कार्ड तैयार करना चाहिए जो नागरिकता का प्रमाण हो। ऐसे में इस देश के करोड़ों भारतीय अपने पहचानपत्रों को तब तक जकड़े रखेंगे जब तक उन्हें यह न कहा जाए कि ये प्लास्टिक के टुकड़ों के अलावा कुछ नहीं हैं। कौन भारतीय है, आजादी के 78 वर्ष बाद भी इसका जवाब हवा में है, जाहिर है, सबसे निर्मम सच हमारे सामने है, फिलहाल तो मैं मतदाता हूं लेकिन भविष्य के बारे में भला क्या कह सकता हूं ?