चुनावी मौसम में पत्रकारों का कर्त्तव्य
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है और इस जनता की आवाज बनने का दायित्व पत्रकारों पर है। चुनाव वह समय होता है जब यह शक्ति सबसे अधिक सक्रिय होती है, जब जनता अपने मत से आने वाले पांच वर्षों की दिशा तय करती है। ऐसे निर्णायक समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह एक प्रहरी यानी ‘वॉचडॉग’ की भूमिका निभाता है।
दुर्भाग्य से आज के परिदृश्य में कई बार यह प्रहरी सार्वजनिक हित का रक्षक बनने के बजाय सत्ता या किसी दल का प्रचारक बनता दिखता है। यही वह विमर्श है जिस पर विचार होना चाहिए कि पत्रकारों और एंकरों को क्यों और कैसे अपनी मूल भूमिका निभानी चाहिए, न कि पीआर (पब्लिक रिलेशन) पेशेवर बन जाना चाहिए।
पत्रकारिता का मूल उद्देश्य हमेशा सत्य का अन्वेषण रहा है। पत्रकार न तो किसी नेता के समर्थक होते हैं, न विरोधी, वे केवल जनता के प्रतिनिधि हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रेस का काम जनता को सरकार की भूलों से सतर्क करना है, सरकार का मुखपत्र बनना नहीं। जब चुनाव आते हैं तो यही भूमिका और भी संवेदनशील हो जाती है क्योंकि इस समय जनता को सूचित निर्णय लेने के लिए निष्पक्ष जानकारी चाहिए होती है। यदि मीडिया इस समय भ्रम फैलाए या किसी पक्ष के प्रचार का माध्यम बने तो लोकतंत्र की आत्मा को आघात पहुंचता है।
पत्रकारिता एक सार्वजनिक सेवा है, जबकि पीआर एक निजी हित का कारोबार। दोनों के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जहां पत्रकारिता का उद्देश्य सत्य और पारदर्शिता है, वहीं पीआर का उद्देश्य छवि निर्माण होता है और वह भी किसी व्यक्ति या संगठन के हित में। जब कोई पत्रकार या एंकर अपने मंच का उपयोग किसी नेता की छवि चमकाने या विरोधी को बदनाम करने के लिए करता है तो वह पत्रकार नहीं, पीआर एजेंट बन जाता है। यह स्थिति न केवल उसकी पेशेवर आचार संहिता का उल्लंघन करती है, बल्कि जनता के साथ विश्वासघात भी है।
चुनाव कवरेज अक्सर टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज रूप ले लेता है लेकिन वास्तविक पत्रकारिता की परीक्षा इसी समय होती है जब दबाव हो, आकर्षण हो और फिर भी कोई पत्रकार निष्पक्ष रह पाए।
पत्रकारों को चाहिए कि वे चुनावी खबरों में तथ्यों की पुष्टि करें, उम्मीदवारों के वादों की जांच करें और जनता से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखें, न कि केवल रैलियों की भीड़ या विवादों की गहमागहमी को।
एंकरों के लिए भी यह समय आत्म-संयम का होता है। उनसे अपेक्षा है कि वे मंच पर दोनों पक्षों को बराबर अवसर दें, तर्क पर तर्क से जवाब लें और चुनावी बहस को ‘शोर’ नहीं बल्कि ‘संवाद’ में बदलें। पत्रकारों व एंकरों का उद्देश्य दर्शकों को किसी दल की मनोवैज्ञानिक दिशा में मोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए।
लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का संतुलन बनाए रखने वाले चौथे स्तंभ का प्रतिनिधि है। चुनाव काल में जब राजनीतिक दल वादों की बाढ़ लाते हैं तब मीडिया का दायित्व है कि वह इन वादों की जांच करे। कौन से वादे व्यावहारिक हैं, कौन से केवल भाषणों की सजावट। इसके अलावा मीडिया को यह भी देखना चाहिए कि क्या चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्ष हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्र रूप से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार यह निगरानी न करें तो सत्ता और धनबल का उपयोग करके जनमत को गुमराह करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में पत्रकार ही वह दीवार है जो जनतंत्र को ‘विज्ञापनतंत्र’ बनने से बचा सकती है।
सच्चा पत्रकार अपनी राय जरूर रख सकता है लेकिन उसे तथ्यों की सत्यता से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह हर रिपोर्ट में स्रोत स्पष्ट करे, हर दावा परखे और किसी भी राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने से पहले उसकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे। पत्रकारिता में ‘निष्पक्षता’ का अर्थ यह नहीं कि सबकी बात एक समान मानी जाए, बल्कि यह कि सच्चाई के प्रति वफादारी रखी जाए, चाहे वह सत्ता के खिलाफ हो या विपक्ष के।
एंकरों को भी समझना होगा कि उनका मंच और चैनल एक भरोसे का प्रतीक है। यदि वे उसी मंच से किसी विशेष पार्टी के प्रवक्ता बन जाएं तो वह भरोसा टूट जाता है। ट्रोल्स के प्रभाव, कॉर्पोरेट दबाव और राजनीतिक समीकरणों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन अवश्य है, पर यही कठिनाई पत्रकारिता को सम्मान दिलाती है।
आज के युग में सोशल मीडिया ने सूचना का लोकतंत्रीकरण किया है लेकिन अफवाहों और आधी सच्चाईयों के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। इस वातावरण में टीवी और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे त्वरित सुर्खियों से आगे बढ़कर पड़ताल करें, डेटा और दस्तावेजों पर आधारित रिपोर्ट तैयार करें और जनता को यह सिखाएं कि सच्ची खबर कैसे पहचानी जाए। यदि पत्रकार भी सिर्फ ट्रेंड या वायरल वीडियो के पीछे भागने लगे तो वह समाज को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित करेगा।
आज चुनाव के मौसम में पत्रकारों को आत्ममंथन की जरूरत है। क्या वे अपनी रिपोर्टों से जनता को सशक्त बना रहे हैं या किसी राजनीतिक पार्टी या कॉर्पोरेट घराने के एजेंडे को मजबूत कर रहे हैं? क्या उनके सवाल जनता के प्रश्न हैं या टीआरपी के लिए रचे गए नाटक? लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब पत्रकार अपने पेशे की आत्मा को जिंदा रखेंगे। जब वे सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से डरेंगे। ‘वॉचडॉग’ बनने का अर्थ है सत्ता पर निगाह रखना, अन्याय पर सवाल करना और जनता के अधिकारों की रक्षा करना। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगरपालिका का, मीडिया का धर्म एक ही है: सच दिखाना, पूरी ईमानदारी से, चाहे किसी को असुविधा ही क्यों न हो।
पत्रकारिता केवल करियर नहीं, बल्कि लोकसेवा का माध्यम है। यदि पत्रकार और एंकर इस आत्मा को पहचान लें और चुनावी मौसम में पीआर के प्रभाव से ऊपर उठकर तटस्थ प्रहरी बनें तो लोकतंत्र की नींव और अधिक मजबूत होगी। जनमत जागरूक होगा, सत्ता जवाबदेह बनेगी और भारत की लोकतांत्रिक परंपरा सच्चे अर्थों में सशक्त होगी।