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सूखती जा रही है धरती

01:07 AM Nov 25, 2023 IST | Aditya Chopra
सूखती जा रही है धरती

जीवन के आधार जल की प्राप्ति और उसका अर्पण अपने आप में महत्वपूर्ण है। तालाब, नहर, नदी से जल भरकर लाना कठिन है, मगर अपनी अंजली में पानी भरना और उसे अर्पण कर देने को पुण्य कर्म माना जाता है। इसके पीछे तार्किक सोच-समझ नजर आती है। जल के बिना जीवन नहीं चल सकता। इसलिए हम सबको जल सहज ही प्राप्त होना चाहिए। शिव अपने शीर्ष पर गंगा को धारण करते हैं। जटाओं में गंगाजल भरते हैं। अपने आप में गंगा को भर लेना, जटाओं में गंगा जल भर लेना, उसे बांध लेना, उसकी गति साध लेना काई आसान काम नहीं है। इस समय मानवता जल संकट के कगार पर खड़ी है। आधे से अ​धिक आबादी पीने के पानी के संकट से गुजर रही है। जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून का जल पर्याप्त नहीं है क्योंकि वर्षा का चक्कर बदल गया है। देश में भूमिगत जल का स्तर इतना नीचे चला गया है कि उसे प्राप्त करने के लिए बहुत गहरे में खुदाई करनी पड़ती है। पंजाब और हरियाणा ही नहीं कर्नाटक और तमिलनाडु में भी जल के लिए अब तक लड़ाई चल रही है। एसवाईएल को लेकर सियासत बार-बार गर्म हो जाती है।
पंजाब में पिछले तीन दशकों से जल संकट बना हुआ है लेकिन इसके समाधान के लिए कोई गम्भीर प्रयास ​नहीं किए गए। राजनीतिक दलों सहित सभी हितधारक अब तक जल प्रबंधन की गम्भीरता को नकारते रहे। पंजाब एक समय पानी की उपलब्धता के मामले में अच्छी स्थिति में था लेकिन कुछ वर्षों में स्थिति खराब होती गई। 1984 में पंजाब में 2.44 मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) भूजल था, जो 2013 में घटकर शून्य से 11.63 एमएएफ रह गया। यह मुख्य रूप से भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण था। 1984 में पांच जिले भूजल का ओवरड्राफ्ट कर रहे थे, 2013 में 15 थे। ओवरड्राफ्ट की सीमा 1984 में 1.34 (लुधियाना) और 1.91 (कपूरथला) गुना के बीच थी, जबकि 2013 में यह 1.21 गुना (गुरदासपुर) से 2.11 (संगरूर) गुना थी। पंजाब में औसत कुल ड्राफ्ट था 2013 में 149.। भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आई, जिसके कारण (मुख्य रूप से धान क्षेत्र) के लगभग 15 जिलों में ट्यूबवैलों की औसत गहराई 1960-70 के दौरान 49 फीट से बढ़कर 2013-14 में 128 फीट हो गई। उनमें से 1996-2016 के दौरान 10 जिलों में जल स्तर की प्री-मॉनसून गहराई 7 मीटर से घटकर 22 मीटर हो गई।
ऐतिहासिक रूप से पंजाब कभी भी धान उगाने वाला क्षेत्र नहीं रहा है। 1939 में कुल सिंचित क्षेत्र में धान की हिस्सेदारी 9 प्रतिशत (2.37 लाख हैक्टेयर) थी। 1970-71 में भी शुद्ध बोए गए क्षेत्र का 9.62 प्रतिशत धान के अधीन था। बहरहाल, धान 1980 के दशक से पंजाब की एक प्रमुख फसल रही है और 2015-16 में इसका रकबा शुद्ध बोए गए क्षेत्र का 72 प्रतिशत हो गया। हरित क्रांति ने पंजाब की विविध फसल प्रणाली को गेहूं-धान चक्र में बदल दिया। देश में भोजन की बढ़ती मांग और वैश्विक कृषि-व्यवसाय के निहित स्वार्थ, अन्य बातों के अलावा हरित क्रांति और पंजाब में धान को बढ़ावा देने के पीछे प्रमुख कारक थे। उच्च ऊपज देने वाले बीजों, उर्वरकों की सुनिश्चित आपूर्ति और सिंचाई में सार्वजनिक निवेश का उद्देश्य इन उद्देश्यों को पूरा करना था। एमएसपी व्यवस्था के तहत सार्वजनिक खरीद (1960 के दशक के मध्य से) ने किसानों की गेहूं और धान की उपज के लिए बाजार मंजूरी सुनिश्चित की। ट्यूबवैल सिंचाई के तहत क्षेत्र 1970-71 में 56 प्रतिशत से बढ़कर 2014-15 में 71 प्रतिशत हो गया, जबकि नहर सिंचाई के तहत क्षेत्र 45 प्रतिशत से घटकर 29 प्रतिशत हो गया। इसका श्रेय धान के अधीन क्षेत्र में असाधारण वृद्धि और सकल फसल क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि के कारण भूजल की बढ़ती मांग को दिया जा सकता है।
हरियाणा के लोगों की अब पानी को लेकर चिंता और बढ़ने वाली है। प्रदेश में जल संकट खड़ा हो सकता है। सरकार की ओर से सिंचाई विभाग और जन स्वास्थ्य विभाग को इसके लिए सचेत कर दिया है। हरियाणा सरकार पहले ही साल 2022 में प्रदेश के 1780 गांवों को रेड जोन में शामिल कर चुकी है। वहीं अब लगातार गिरते जल स्तर को देखते हुए अलग-अलग श्रेणियां और बनाई गई हैं जिनमें गुलाबी, बैंगनी और नीली श्रेणियां शामिल हैं। जून 2010 से लेकर जून 2020 तक के यानि 10 सालों के आंकड़ों के हिसाब से पता चला है कि जिन 957 गांवों को रेड जोन घोषित किया गया है वहां भू-जल स्तर की गिरावट दर 0.00 1.00 मीटर प्रति वर्ष के बीच है। 79 गांवों में गिरावट दर जहां 2.0 मीटर प्रति वर्ष है तो वही 7.07 गांवों में गिरावट दर 1.01-2.00 मीटर प्रति वर्ष के मध्य दर्ज की गई है। वही 37 गांवों में भूजल स्तर में कोई गिरावट दर्ज नहीं की गई। साल 2020 के जून माह तक 1041 गांव इस श्रेणी में आ गए थे। वहीं पिछले 10 सालों में 874 गांवों में उतार-चढ़ाव के साथ भू-जल स्तर काफी नीचे जा चुका है।
पंजाब और हरियाणा में डार्क जोन बढ़ रहे हैं। अब सवाल यह है कि समस्या का समाधान कैसे किया जाए। इसके लिए फसल विविधीकरण सबसे आसान तरीका है, जिसे अपनाये जाने की जरूरत है। पंजाब, हरियाणा में धान की फसल जितना रिटर्न देती है उतना कोई अन्य फसल नहीं। अगर सरकारें धान जैसी नकदी आधारित फसल को बढ़ावा देती हैं तो पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकेगी। हरियाणा के सोनीपत जिले के राई ब्लाक के किसान इसका अच्छा उदाहरण हैं। यहां के किसानों ने वैकल्पिक फसल के तौर पर ‘बेबीशर्न’ को अपनाया है जिससे किसानों की आय भी बढ़ी है और धान की फसल की बुवाई कम हो रही है जिससे पानी की बचत के चलते ‘वाटर लेबल’ ​ठीक हो रहा है। इसी तरह के अन्य प्रयास किए जाने की जरूरत है ​जिससे किसानों के साथ-साथ पर्यावरण का भी भला है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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