इंडिया गठबन्धन का अस्तित्व और कांग्रेस
भारत का लोकतन्त्र बकौल स्व. अरुण जेतली शोर-शराबे का लोकतन्त्र…
भारत का लोकतन्त्र बकौल स्व. अरुण जेतली शोर-शराबे का लोकतन्त्र कहा जाता है। यह उक्ति उन्होंने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान कही थी। मगर यह शोर-शराबा विपक्ष की मजबूती पर निर्भर करता है। स्व. जेतली मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी रहे थे। विपक्ष के नेता के तौर पर तत्कालीन भाजपा के नेता संसद से लेकर सड़क तक मनमोहन सरकार के विभिन्न कथित वित्तीय घोटालों को लेकर एेसा देशव्यापी विमर्श खड़ा कर रहे थे कि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार को लेकर चारों तरफ से घिरी हुई लगे। भाजपा 2014 में अपने प्रयास में पूर्ण सफल रही और केन्द्र में सत्ता पलट हो गया।
भारत के लोगों ने इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा बनाई जन अवधारणा को स्वीकार किया और भाजपा को 545 सदस्यीय लोकसभा में पूर्ण बहुमत 282 सीटों के साथ दिया। इससे 1996 से केन्द्र में जो सांझा सरकारों का चलन बढ़ा था वह रुका और श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता भाजपा की सम्पत्ति बन गई। इसके बाद भाजपा ने हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद को नई ऊंचाई दी और 2019 के चुनावों में श्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की 302 सीटें आयीं। अब यदि इसके सापेक्ष वर्तमान में विपक्ष की प्रमुख पार्टी कांग्रेस के कामकाज की समीक्षा करें तो यह 2014 में 44 सीटों पर सिमट गई और 2019 में इसकी कुल 52 सीटें ही आ पाईं। मगर 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की लोकप्रियता बढ़ी औऱ इसकी 99 सीटें आयीं और भाजपा 240 सीटों पर थम गई।
कांग्रेस ने ये सीटें विपक्ष का सामूहिक इंडिया गठबन्धन बना कर जीतीं। मगर इंडिया गठबन्धन को कुल 234 सीटें मिलीं। जाहिर तौर पर इंडिया गठबन्धन में एक दर्जन से ज्यादा पार्टियां हैं जिनमें अधिकतर क्षेत्रीय दल ही हैं। इससे यह साफ जाहिर होता है कि अखिल भारतीय स्तर पर केवल कांग्रेस पार्टी ही एेसी पार्टी है जिसके विमर्श को देश की जनता ने भाजपा के विमर्श से मुकाबला करते हुए पाया। इसका एक कारण औऱ भी है कि इंडिया गठबन्धन के लगभग सभी घटक दलों ने कांग्रेस के विमर्श को अपनी- अपनी सुविधानुसार अपनाया मगर इसमें कुछ अपवाद भी रहे जैसे कि प. बंगाल की ममता दीदी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अपने राज्य में कांग्रेस व वामपंथी दलों का मुकाबला किया जो कि इंडिया गठबन्धन के भी सदस्य थे। इसी प्रकार दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने इंडिया गठबन्धन में रहते हुए ही पंजाब में कांग्रेस का मुकाबला किया मगर दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा।
उधर वामपंथी पार्टियों ने दक्षिण भारत के चुिनन्दा राज्यों जैसे केरल में कांग्रेस के ही खिलाफ चुनाव लड़ा। इससे सिद्ध हुआ कि इंडिया गठबन्धन में एेसे क्षेत्रीय दल भी शामिल जिनके राज्यों में निशाने पर कांग्रेस पार्टी ही थी। अतः इस गठबन्धन को हम परस्पर विरोधी विचारधाराओं का गठबन्धन भी कह सकते हैं। एेसी ही स्थिति केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा नीत एनडीए गठबन्धन की भी दिखाई पड़ती है जिसमें तेलुगूदेशम जैसी क्षेत्रीय पार्टी है। आन्ध्र प्रदेश की यह पार्टी लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस के साथ जाना चाहती थी मगर वहां इसके नेता व मुख्यमन्त्री चन्द्रबाबू नायडू की शर्तें मानने से इनकार कर दिया गया जिसकी वजह से बाद में उन्होंने भाजपा से गठबन्धन किया। इसके साथ ही पहले बिहार जद (यू) के नेता व मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार इंडिया गठबन्धन के धनुर्धर बने हुए थे मगर उन्होंने लोकसभा चुनावों से पहले ही भाजपा का दामन थाम लिया।
दरअसल भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अडवाणी ने 2001 के करीब ही एक सिद्धान्त दिया था कि राजनैतिक दलों के गठबन्धन अच्छा प्रशासन देने की गरज से बनने चाहिए न कि वैचारिक स्तर पर। उन्होंने अच्छे शासन के लिए गठबन्धन का सिद्धान्त दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि श्री अडवाणी ने यह सिद्धान्त पूर्वोत्तर राज्यों का दौरा करते समय दिया था। उस यात्रा में मैं भी बा-हैसियत पत्रकार शामिल था। उस समय नगालैंड में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमन्त्री स्व. एस.सी. जमीर थे। अडवाणी जी के इसी विमर्श को पकड़ कर बाद में भाजपा के समर्थन में पूर्वोत्तर के कई क्षेत्रीय दल आये। वैसे तो छह साल तक केन्द्र की सत्ता में रहे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी भी डेढ़ दर्जन दलों से अधिक की एनडीए सरकार चला रहे थे। तत्कालीन एनडीए गठबन्धन में तमिलनाडु के एेसे क्षेत्रीय दल भी थे जो केन्द्र में तो उनकी सरकार में शामिल थे मगर राज्य में ये परस्पर एक-दूसरे के विरोधी थे। जब उस दौरान तमिलनाडु विधानसभा चुनाव हुए तो एेसे दलों के नेता केन्द्र में मन्त्रीपद को त्याग कर अपने राज्य में चुनाव लड़ने चले गये।
ठीक एेसा ही तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने भी किया था। वह वाजपेयी सरकार में रेलवे मन्त्री थीं। जब 2001 के करीब प. बंगाल विधानसभा के चुनाव हुए तो ममता दीदी भी मन्त्री पद त्याग कर प. बंगाल में चुनाव लड़ने चली गईं और वहां उन्होंने वामपंथी शासन के खिलाफ कांग्रेस से हाथ मिला कर ‘महाजोट’ गठबन्धन बनाया। चुनाव समाप्त होने के बाद ममता दी पुनः केन्द्र सरकार में शामिल हो गयीं। अतः हम विपक्षी दलों के बने ताजा गठबन्धन इंडिया को भी सहधर्मी गठबन्धन नहीं कह सकते हैं। इसमें शामिल विभिन्न क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के अपने- अपने राजनैतिक हित होने के बावजूद लक्ष्य भाजपा का विरोध इस तरह है कि उन्हें अपने राज्यों में कांग्रेस से भी मुकाबला करना है। वे यह कार्य राज्य स्तर पर इंडिया गठबन्धन में शामिल रहते नहीं कर सकते। अतः अब कुछ पार्टियां इंडिया गठबन्धन के वजूद पर सवाल उठा रही हैं। इसकी प्रमुख वजह यह है कि एेसे क्षेत्रीय दलों की हैसियत कांग्रेस का वोट बैंक हथिया कर ही बनी है।
उत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों के मामले में तो यह पूरी तरह सत्य है। अब इसी वर्ष के दौरान बिहार व दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं अतः इन राज्यों के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया है कि इंडिया गठबन्धन का गठन लोकसभा चुनावों के लिए हुआ था। बिहार में लालू जी का राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख विपक्षी पार्टी है अतः इस पार्टी के नेता तेजस्वी यादव ने इस बात को दोहरा दिया है कि इंडिया गठबन्धन केवल लोकसभा चुनावों के लिए बना था। उधर जम्मू-कश्मीर के नेशनल कान्फ्रेंस के नेता मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला भी कहने लगे हैं कि जब इंडिया गठबन्धन का न कोई सचिवालय और न कोई न्यूनतम सांझा कार्यक्रम है तो इसे जिन्दा रखने का क्या फायदा।
नेशनल कान्फ्रेंस व कांग्रेस ने पिछले दिनों हुए राज्य विधानसभा के चुनाव मिल कर ही लड़े थे। चुनावों में इस गठबन्धन की जीत भी हुई। इसके बावजूद मुख्यमन्त्री का यह बयान बताता है कि कांग्रेस का जम्मू-कश्मीर राज्य से मुतल्लिक बयानियां उमर अब्दुल्ला से पच नहीं पा रहा है। यही हालत दिल्ली में भी है। आम आदमी पार्टी व कांग्रेस इंडिया की सदस्य होते हुए भी एक-दूसरे के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ रही हैं। देश की राजधानी में ही जब यह नजारा है तो बाकी राज्यों की राजनैतिक स्थिति के बारे में आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।
यहां तृणमूल कांग्रेस व उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव आम आदमी पार्टी का समर्थन कर रहे हैं। क्या एेसे समागम को हम तीसरे मोर्चे की लामबन्दी कह सकते हैं। हकीकत तो यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर इन क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस की जरूरत है मगर क्षेत्रीय स्तर पर वे कांग्रेस को ही अपना दुश्मन मानती हैं। राजनीति बड़ी निर्मोह भी होती है। उनकी सियासत भी चमकती रहे क्योंकि इन पार्टियों का वजूद कांग्रेस के वोट बैंक को हथिया कर ही बना है। उत्तर भारत के क्षेत्रीय विपक्षी दलों के मामले में यह पूरी तरह सटीक है। इन विपक्षी दलों का यह व्यवहार बताता है कि राष्ट्रीय स्तर पर उहें कांग्रेस का विमर्श स्वीकार है मगर राज्य स्तर पर वे कांग्रेस के प्रति सदाशयता नहीं दिखा सकते हैं।
जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो अखिल भारतीय स्तर पर वह सीधे भाजपा को निशाने पर लेती है और लोकसभा में इसके विपक्ष के नेता राहुल गांधी इसमें किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहते। वह कांग्रेस की लम्बी वैचारिक संस्कृति की विरासत को कस कर पकड़े रहना चाहते हैं फिर चाहे कोई क्षेत्रीय दल इंडिया गठबन्धन में रहे या न रहे। संविधान और जातिगत जनगणना को मुद्दा बना कर राहुल गांधी जो वैकल्पिक विमर्श खड़ा कर रहे हैं उसमें उत्तर भारत के क्षेत्रीय दल अपने-अपने एजेंडे का प्रवेश चाहते हैं जिससे राज्यों में वे भाजपा का अपने बूते पर सामना कर सकें।
कांग्रेस के लिए यह असंभव है क्योंकि उसका खड़ा किया गया विमर्श राज्य मूलक नहीं बल्कि राष्ट्र मूलक है और राष्ट्र राज्यों से मिल कर ही बनता है। और विभिन्न राज्यों में कांग्रेस का बिछड़ा हुआ दलित- मुस्लिम वोट बैंक उसकी तरफ आकर्षित हो रहा है। इससे क्षेत्रीय दल परेशान लग रहे हैं और अपने हितों को सर्वोपरि रखना चाहते हैं। अतः हो सकता है कि क्षेत्रीय दल आपस में ही कोई नया मोर्चा बनाने की तरफ मुड़ें।