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एच-1 बी वीजा का खौफ

04:54 AM Sep 22, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

भारत के लिए अब यह सोच पाना बहुत मुश्किल है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उनकी नीतियां उसके हक में हैं अथवा विरोध में? श्री ट्रम्प हर दूसरे दिन भारत के बारे में अपने विचार जिस तरह बदलते रहते हैं उससे यही लगता है कि वह भारत के साथ अपने देश के सम्बन्धों में मित्र भाव को दूसरे पायदान पर रखते हैं। उनकी नीतियां बताती हैं कि अमेरिका के आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) क्षेत्र में काम करने वाले भारतीय स्थानीय अमेरिकी नागरिकों के रोजगार के लिए नुक्सानदेह साबित हो रहे हैं। वास्तव में अमेरिका उनके पुनः सत्तारूढ़ होने के बाद जिस तरह की आर्थिक नीतियां अपना रहा है वे पूरी तरह अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के विरुद्ध हैं और संरक्षणवादी हैं जिन्हें कथित अमेरिकी राष्ट्रवाद की चाशनी में भीगो कर परोसा जा रहा है। भारत के आयात पर शुल्क दर 50 प्रतिशत बढ़ाने के बाद श्री ट्रम्प ने एच-1बी वीजा की फीस को बढ़ाकर सीधे ही एक लाख डाॅलर (88 लाख रुपये) वार्षिक कर दिया है जिसका सबसे प्रतिकूल असर भारत से नौकरी के लिए जाने वाले आईटी क्षेत्र के तकनीकी युवाओं पर पड़ेगा। यह कदम ट्रम्प ने तब उठाया है जब एक दिन बाद ही भारत के वाणिज्य मन्त्री पीयूष गोयल शुल्क दरों के बारे में बातचीत करने अमेरिका जा रहे हैं।
वीजा फीस बढ़ाने का मतलब यह होगा कि जो कम्पनियां अमेरिका में विदेशी आईटी इंजीनियरों व अन्य तकनीकी कर्मचारियों को नियुक्त करती हैं उन्हें प्रति कर्मचारी के हिसाब से यह धनराशि अमेरिकी सरकार को देनी पड़ेगी। फिलहाल वीजा फीस दो हजार डाॅलर से लेकर छह हजार डाॅलर वार्षिक की है। वीजा तीन साल के लिए वैध रहता है जिसकी इतनी ही अवधि तीन साल बाद और बढ़ाई जा सकती है। इस वीजा के तहत अमेरिका में नौकरी करने जाने वालों में सबसे ज्यादा भारतीय 72 प्रतिशत होते हैं। अक्तूबर 2022 और सितम्बर 2023 के दरम्यान चार लाख से अधिक भारतीयों को यह वीजा मिला था। भारत की आईटी क्षेत्र की टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो व एचसीएल कम्पनियों ने लगभग 20 हजार कर्मचारियों के लिए यह वीजा लिया हुआ है। दूसरी तरफ अमेरिका सरकार का कहना है कि नई वीजा फीस के लागू होने से अमेरिकी नागरिकों को लाभ होगा और उनके लिए नौकरियों के अवसर बढे़ंगे। तकनीकी क्षेत्र में विदेशों से आने वाले युवा अपेक्षाकृत कम वेतन पर काम करने के लिए राजी हो जाते हैं जबकि अमेरिकी नागरिकों का वेतन अधिक होता है। सामान्यतः विदेशों या भारत से गये मध्यम क्षेणी के कर्मचारियों की तनख्वाह 66 हजार डाॅलर वार्षिक की होती है जबकि आम अमेरिकी का वेतन 75 हजार डाॅलर वार्षिक होता है।
अमेरिकी सरकार के अनुसार विज्ञान व टैक्नोलॉजी सम्बन्धित क्षेत्र में काम करने वाले विदेशी कर्मचारियों की संख्या में पिछले दो दशकों में भारी इजाफा हुआ जबकि इस क्षेत्र की विकास दर इतनी अधिक नहीं रही। वर्ष 2000 से 2019 के बीच विदेशी टेक-कर्मचारियों की संख्या बढ़कर दुगनी से भी अधिक हो गई जबकि इस क्षेत्र की विकास दर 44 प्रतिशत के आसपास रही। 2000 में जहां इनकी संख्या 12 लाख थी वहीं 2019 में बढ़कर 25 लाख हो गई। इस दौरान विदेशी कर्मचारियों की इस क्षेत्र में भागीदारी 17.7 प्रतिशत से बढ़कर 26.1 प्रतिशत हो गई। इसके अनुसार यह संख्या बढ़ने की असली वजह एच-1बी वीजा का दुरुपयोग है। अमेरिकी सरकार का कहना है कि अकेले आईटी क्षेत्र में कार्यरत कम्पनियों ने इस वीजा सुविधा का सर्वाधिक दुरुपयोग किया जिससे इस क्षेत्र के अमेरिकी कर्मचारियों को सबसे ज्यादा नुक्सान उठाना पड़ा और उन्हें पर्याप्त नौकरियां नहीं मिलीं। सरकार के अनुसार इस वीजा प्रणाली के तहत अमेरिका आने वाले विदेशी कर्मचारियों की संख्या में पिछले कुछ सालों में भारी इजाफा हुआ। 2003 में जहां इस क्षेत्र में कुल विदेशी कर्मचारी 32 प्रतिशत के लगभग थे वहीं पिछले पांच सालों में इनकी संख्या बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई।
यह सर्वविदित तथ्य है कि इस क्षेत्र में सर्वाधिक भारतीय युवा इंजीनियर तकनीशियन ही लगे हुए हैं। इसके साथ ही आईटी आउटसोर्सिंग कम्पनियां वीजा का उपयोग अपना मुनाफा या बचत बढ़ाने में करती हैं। इससे अमेरिकी कर्मचारियों के रोजगार को नुक्सान हो रहा है क्योंकि उन्हें कम वेतन पर काम करने वाले विदेशी कर्मचारी मिल जाते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यालय व्हाइट हाउस के सचिव विल शार्ट के अनुसार यह वीजा कार्यक्रम विदेशों से उच्चतम स्तर की प्रतिभा को अमेरिका में लाने के लिए शुरू किया गया था परन्तु इसका लाभ दूसरे तरीकों से लिया जाने लगा। अतः वीजा की फीस एक लाख डाॅलर करने का मूल लक्ष्य यह है कि केवल ऊंची प्रतिभा के विशेषज्ञ ही अमेरिका में काम करने के लिए आयें जिससे सामान्य अमेरिकी कर्मचारियों का नुक्सान न हो लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यदि भारत के सन्दर्भ में देखें तो बहुत निराशाजनक स्थिति उभरती है। अमेरिका में सामान्य मध्यम श्रेणी भारतीय कर्मचारी की वार्षिक तनख्वाह 66 हजार डाॅलर वार्षिक होगी। अतः उसके लिए एक लाख डालर वार्षिक की फीस नियोजक कम्पनियां देना क्यों पसन्द करेंगी? इससे जाहिराना तौर पर नियोजक भारतीयों को नौकरियां देने से परहेज करेंगे। ट्रम्प के सिद्धान्त के अनुसार इस कदम से अमेरिकियों को प्रत्यक्षतः लाभ होगा।
अब सवाल यह है कि क्या ट्रम्प यह सब अमेरिकी मतदाताओं को रिझाने के लिए कर रहे हैं? उनकी रिपब्लिकन पार्टी रूढ़ीवादी राष्ट्रवादी पार्टी मानी जाती है। वह अपने कार्यकाल की पूर्व अवधि 2016 में भी एच-1बी वीजा स्कीम की कटु आलोचना कर चुके हैं। वह शुरू से ही इसे अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध मानते रहे हैं। अतः इस मुद्दे पर उनके साथ अमेरिका का जन समर्थन हो सकता है। परन्तु अमेरिका आर्थिक वैश्वीकरण का अलम्बरदार भी रहा है अतः उसकी जिम्मेदारी है कि वह संरक्षणवादी कदमों से बचे। क्योंकि एेसा करके इस क्षेत्र में वह अपनी अग्रणी भूमिका से हाथ धो बैठेगा। मगर ट्रम्प का एेसा रुख भारत के हित में किसी भी दृष्टि से नहीं है। अतः भारत को अपने राष्ट्रीय हित सुरक्षित रखते हुए ही इस मुद्दे पर अपनी ठोस प्रतिक्रिया देनी होगी।

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