जनादेश की पहली ‘किश्त’
बिहार में पहले चरण के दौरान 121 सीटों पर हुए शानदार 64.46 फीसदी मतदान से यह तय हो गया है कि मतदाताओं ने राज्य में स्थायी व टिकाऊ सरकार बनाने का मन बना लिया है। बेशक अभी दूसरे चरण का मतदान 11 नवम्बर को होना बाकी है मगर पहले चरण से यह स्पष्ट हो गया है कि बिहारी मतदाता उत्तेजित हैं और वह हर हाल में निर्णायक फैसला करना चाहता हैं। मतदान का पहला चरण कांग्रेस नेता श्री राहुल के वोट चोरी के गंभीर आरोपों के साये में सम्पन्न हुआ है। इसका असर बिहार के मतदाताओं पर किस रूप मंे पड़ेगा इसका पता 14 नवम्बर को ही चलेगा जिस दिन मतगणना होगी। राहुल गांधी के आरोपों का देश के चुनाव आयोग से सीधा लेना- देना तो है ही साथ ही पूरे भारत के समस्त मतदाताओं से भी लेना-देना है क्योंकि भारत की जनता को वोट देने का अधिकार लम्बे संघर्ष के बाद मिला है। इस अधिकार को पाने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया था। बापू का संघर्ष केवल अंग्रेजी राज से मुक्ति पाने का ही नहीं था बल्कि भारत के आम व दबे-कुचले लोगों में आत्मसम्मान का भाव जगाने के लिए भी था। यह सम्मान भारत का नागरिक तभी प्राप्त कर सकता था जब वह राजनैतिक रूप से पूर्णस्वतन्त्र हो जाये। अतः भारत के संविधान ने इस एक वोट के अधिकार को सभी भारतवासियों को एक समान रूप से दिया जिससे स्वतन्त्र भारत का हर नागरिक स्वयंभू बन सके और अपनी मनपसन्द सरकार का गठन कर सके। भारत पूरे विश्व में सर्वाधिक विविधताओं वाला देश है अतः इस विविधता में एकता के भाव को जोड़ने के लिए समस्त वयस्क लोगों को एक वोट का अधिकार बिना किसी पूर्वाग्रह के दिया गया। ये पूर्वग्रह जाति धर्म व स्त्री-पुरुष भेद के हो सकते थे। इसलिए हर चुनाव में हमें एक वोट की कीमत का अन्दाजा होता है क्योंकि अन्त में लोकतन्त्र का भाग्य विधाता आम आदमी ही होता है। यह प्रसन्नता की बात है कि बिहार विधानसभा के चुनावों में बिहार के आम आदमी के कष्टों का विमर्श ही सतह पर इस प्रकार तैर रहा है कि प्रत्येक राजनैतिक दल को उसका संज्ञान लेना पड़ रहा है। यदि चुनाव में विशुद्ध लफ्फाजी की जगह शिक्षा, स्वास्थ्य व पलायन के मुद्दों पर हर राजनैतिक दल को बात करनी पड़ रही है तो इसे हम लोकतन्त्र की विजय ही कहेंगे क्योंकि अक्सर चुनाव के मौके पर एेसे मुद्दे हवा में तैरा दिये जाते हैं जिनका आम आदमी की समस्याओं से प्रत्यक्ष लेना-देना नहीं होता। अतः चुनावों में पढ़ाई, दवाई और कमाई की बात अगर विपक्षी नेता तेजस्वी यादव कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सत्तारूढ़ गठबन्धन राजग की ओर से स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी कर रहे हैं। यह बिहार के सजग व बुद्धिमान मतदाताओं के लिए एक सौगात की तरह है। अब देखना केवल यह है कि जमीन पर मतदाता इसे किस प्रकार लेते हैं। बिहार में दो गठबन्धनों के बीच ही मुख्य संघर्ष है जो राजग (भाजपा समाहित) व महागठबन्धन (कांग्रेस समाहित) के बीच ही है। इसलिए 14 नवम्बर को हमें देखने को मिल सकता है कि जनता ने किसी एक गठबन्धन को अपना पूरा प्यार व स्नेह दिया है। मैं यहां किसी की हार-जीत की घोषणा नहीं कर रहा हूं बल्कि यह बता रहा हूं कि बढ़े हुए मतदान प्रतिशत का क्या अर्थ निकाला जा सकता है। पिछले वर्षों में जिस राज्य में भी चुनाव हुए हैं वहां जनता ने निर्णायक मत दिया है मगर इसमें एक पेंच भी है कि अधिसंख्य विधानसभा सीटों पर बहुत कम मतों से ही हार-जीत का फैसला हुआ है। उदाहरण के लिए हरियाणा जैसे राज्य में केवल 22 हजार मतों के कुल अन्तर से ही भाजपा पुनः गद्दी पर आसीन हुई। इससे पूर्व स्वयं बिहार में ही 2020 के चुनावों में केवल 12 हजार मतों का अन्तर रहा था और वहां भाजपा बड़े आराम से बहुमत प्राप्त कर गई थी। इसी से हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि लोकतन्त्र मे एक वोट की कीमत कितनी हो सकती है? बिहार को हम अन्य राज्यों के बराबर भी रख कर नहीं देख सकते हैं क्योंकि इस राज्य के इतिहास में ही भारत की गौरव गाथा छिपी पड़ी है। यह और बात है कि वर्तमान समय में यह राज्य देश के सबसे गरीब राज्यों में गिना जाता है। अतः राजनैतिक दलों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे इस धरोहर का सम्मान करें और यहां की राजनीति को नये आयाम दें। परन्तु हम देख रहे हैं कि राजनीतिज्ञों की भाषा लगातार गिरती जा रही है और कभी–कभी तो यह सड़क छाप तक की श्रेणी में आ जाती है। आज जो मतदान हुआ है उसमें राज्य की नीतीश सरकार के 16 मन्त्रियों का भाग्य ईवीएम मशीनों में बन्द हो जायेगा। इसके अलावा विपक्षी नेता तेजस्वी यादव का भी भाग्य आम जनता ईवीएम मशीन में कैद कर देगी। पहले चरण के मतदान का सन्देश अगर कोई निकाला जा सकता है तो वह यही है कि राज्य की जनता अपने अधिकारों के प्रति बहुत सजग है । ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह मतदान चुनाव आयोग द्वारा बिहार में विशेष मतदाता सूची संशोधन के बाद हो रहा है जिसमंे लाखों की संख्या में बिहारी मतदाताओं के नाम काटे गये हैं। इसका क्या असर बिहार की राजनीति पर पड़ता है, यह भी देखने वाली बात होगी। देखने वाली बात तो यह भी होगी कि राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के 1990 से 2005 तक के शासन को भाजपा व इसके सहयोगी दल जिस प्रकार जंगलराज बता रहे हैं, उसका असर बिहार की जनता पर किस तरह पड़ता है मगर इतना निश्चित माना जा रहा है कि बिहार की युवा पीढ़ी इस समय आक्रोश में है और वह दोनों ओर के राजनेताओं के वक्तव्यों को बड़े गौर से सुन रही है।