भव्य त्रिमूर्ति, गांधी, नेहरू और पटेल
कृतज्ञ राष्ट्र ने सरदार बल्लभभाई पटेल की 150वीं जयंती एकता दिवस के तौर पर मनाई है। इस महान नेता ने 562 बड़ी-छोटी रियासतों, जिनका विभाजन से पहले के भारत के 40 प्रतिशत हिस्से पर शासन था, को भारत संघ के साथ मिलाया था। कई रियासत तो बहुत छोटी थीं पर समृद्ध हैदराबाद भी थी जो यूरोप के अधिकतर देशों से बढ़ी थी और जिसका तब बजट बेल्जियम के बराबर था, ऐसा करते वक्त उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सबका इस्तेमाल किया था। जॉन ज़ुब्रज़ीकी जिन्होंने रियासतों के भारत में विलय पर किताब लिखी है, ने इसके लिए “पटेल के शक्तिशाली व्यक्तित्व, क्रोध के साथ सौम्यता और मिन्नत के साथ ज़बरदस्ती के मिश्रण” को ज़िम्मेवार ठहराया है। नेहरू और पटेल की सोच में अंतर था। जवाहरलाल नेहरू ने कभी भी राजा महाराजाओं के प्रति अपनी तीव्र नफ़रत नहीं छिपाई थी, जबकि पटेल के कुछ प्रमुख राजाओं के साथ अच्छे संबंध थे पर जब हैदराबाद और जूनागढ़ के विलय का समय आया तो सरदार का रवैया बेरहम था। जूनागढ़ को तो ताक़त के दिखावे के साथ ही सीधा कर लिया गया पर हैदराबाद में भारतीय सेना भेज दी गई। निज़ाम को विलय करना पड़ा।
यह अफ़सोस की बात है किरदार को उनके योगदान के अनुरूप श्रेय बहुत देर से दिया गया। उन्हें भारत रत्न 1991 में दिया गया, जबकि जवाहरलाल नेहरू को 1955 में और इंदिरा गांधी को 1971 में भारत रत्न दिया गया था। पटेल को उनके देहांत को 41 वर्ष के बाद यह सम्मान दिया गया जिस साल राजीव गांधी और मोरारजी देसाई को भी दिया गया। इसका कारण है कि आज़ादी के बाद सत्ता नेहरू-गांधी परिवार के पास रही और उन्होंने छोटापन दिखाते हुए पटेल को पूर्ण सम्मान नहीं दिया, पर यहां भी कुछ विवाद खड़ा हो गया है। उन्हें श्रद्धांजलि देते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि सरदार पटेल पूरे कश्मीर को भारत में मिलाना चाहते थे पर जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा नहीं होने दिया। दूसरी तरफ़ कांग्रेस अध्यक्ष मलिक्कार्जुन खरगे ने कटाक्ष किया कि सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर बैन लगाया था। गांधी जी की हत्या के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे पत्र में पटेल ने संघ की गतिविधियों के बारे चेतावनी दी थी और बताया था कि संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने हत्या पर ख़ुशियां मनाई थीं। दोनों ही आंशिक तौर पर सही हैं, जहां तक कश्मीर का सवाल है, कश्मीर का भारत में विलय नेहरू के कारण हुआ था पटेल की कश्मीर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। पटेल की जीवनी के लेखक राजमोहन गांधी बताते हैं, “ वल्लभभाई निश्चित नहीं थे कि उन्हें कश्मीर चाहिए...आख़िर वह मुस्लिम बहुसंख्यक रियासत थी और श्रीनगर भारत की सीमा से 300 मील दूर था”। वी.पी. मेनन जो सरदार पटेल की मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स में सचिव थे के अनुसार जून 1947 में माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह को बताया था कि, “अगर कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाता है तो भारत सरकार उसे अमित्रतापूर्ण कदम नहीं समझेगी”। यह माऊंटबेटन ने पटेल के हवाले से कहा था, जवाहरलाल नेहरू के हवाले से नहीं। नेहरू के लिए कश्मीर उनके पूर्वजों का प्रदेश था जिसे वह किसी हालत में खोना नहीं चाहते थे। गांधी जी भी कश्मीर भारत में शामिल चाहते थे, पर पटेल का कोई भावनात्मक लगाव नहीं था। उन्होंने तो यहां तक कहा था कि “अगर शासक समझता है कि उनकी रियासत का हित पाकिस्तान में शामिल होने में है तो मैं रास्ते में खड़ा नहीं रहूंगा”।
सरदार पटेल का कश्मीर के बारे उदासीन रवैय सितंबर 1947 तक ही रहा था। उस दिन पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय को स्वीकार कर लिया। तब पटेल पलट गए, अगर पाकिस्तान एक हिन्दू बहुसंख्यक रियासत जिसका शासक मुसलमान है को लेने की कोशिश कर सकता है तो भारत उस मुस्लिम रियासत को क्यों नहीं शामिल कर सकता जिसका शासक हिन्दू है? उस दिन के बाद जूनागढ़ और कश्मीर दोनों पटेल की प्राथमिकता बन गए। पटेल यूएन में कश्मीर मामलों को भेजने के खिलाफ थे और ज़मीनी कार्रवाई के पक्ष में थे, पर कश्मीर का मामला नेहरू के पास था इसलिए पटेल ने दखल नहीं दिया और वह उसे यूएन में ले गए जहां वह आजतक पड़ा है। एक तिहाई हिस्सा अभी भी पाकिस्तान के पास है, जिसका ज़िक्र मोदी ने किया है। पर यह भी हक़ीक़त है कि शुरू में अगर नेहरू न अड़ जाते तो शायद पूरा कश्मीर पाकिस्तान में चला जाता।
जहां तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर बैन का सवाल है, 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के कुछ सप्ताह के बाद इस पर पाबंदी लगा दी गई। सरदार पटेल को रिपोर्ट मिली कि कई जगह संघ के कार्यकर्ताओं ने ख़ुशी मनाई थी। ऐसी रिपोर्ट मिलने पर पटेल का कहना था कि “वह ख़तरनाक गतिविधियों मे संलिप्त है “ और बैन लगा दिया गया। पर दोनों नेहरू और पटेल के संघ के बारे नज़रिए में अंतर था। नेहरू बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे पर पटेल संघ को “पथभ्रष्ट, पर देश भक्त” समझते थे। नेहरू ने पटेल को बताया था कि उनके विचार में “गांधी की हत्या अकेली घटना नहीं थी। यह बड़े अभियान का हिस्सा थी जिसे आरएसएस ने आयोजित किया था”। पर पटेल का जवाब था कि, “ यह सामने आ रहा है... कि आरएसएस इस मे बिल्कुल शामिल नहीं था”। पटेल का मानना था कि “यह हिन्दू महासभा के धर्मांध हिस्से का काम था”। 16 महीने के बाद यह बैन हटा लिया गया। बैन हटाने वाले भी गृहमंत्री सरदार पटेल थे।
‘सरदार’ का ख़िताब पटेल को आज़ादी से बहुत पहले दिया गया था। गुजरात के बारदोली के किसान सत्याग्रह में पहली बार उन्हें ‘किसानों का सरदार’ कहा गया था। उसके बाद से ही उन्हें सरदार कहा जाने लगा। महात्मा गांधी जी ने एक पत्र में लिखा था कि “कई लड़ाइयां लड़ने के लिए सरदार को लम्बी आयु मिले”। गांधी जी ने पटेल की बार बार प्रशंसा की थी। उन्होंने कहा था कि “आप का दिल शेर जैसा है”। एक पत्र में गांधी ने लिखा था, “ मुझे इस बात का आभास है कि भगवान की मुझ पर कितनी कृपा है कि मुझे वल्लभभाई जैसे असाधारण व्यक्ति का साथ मिला है”।
दूसरी तरफ़ पटेल सदैव खुद को गांधी जी का सिपाही समझते रहे। राजमोहन गांधी लिखते हैं, “वल्लभभाई के लिए गांधी एक में तीन आदमी थे। उनके लिए गांधी संत, योद्धा और मार्गदर्शक थे जिनके पीछे वह चल सकते थे”। पटेल ने गांधी जी के बारे लिखा था, “उनके साथ रहकर मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि भारत की मुक्ति उनके दिखाए रास्ते पर चलकर ही हो सकती है”। स्वतंत्रता सेनानी के एम. मुंशी ने भी 1945 में लिखा था कि “ सरदार की अपनी कोई इच्छा नहीं है। वह केवल गांधी की नीति की सफलता चाहते हैं। वह अपने लिए कोई श्रेय नहीं चाहते। वह केवल गांधी जी के औज़ार के तौर पर ही पहचान चाहते हैं”। आजकल देश में कुछ आवाज़ें उभर रही है, जो गांधी जी के योगदान को कम बताने की कोशिश कर रही है और कुछ तो उनकी अवमानना कर रहे हैं, ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि आप एक तरफ़ सरदार पटेल की प्रशंसा और दूसरी तरफ़ गांधी जी की अवमानना नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों एक थे। इसी तरह आप पटेल और नेहरू को एक दूसरे का विरोधी नहीं कह सकते। कश्मीर, चीन, आरएसएस, रियासतों के विलय आदि को लेकर दोनों में मतभेद थे, और कई बार तीखे मतभेद थे पर दोनों ने इन्हें नियंत्रण में रखा था यह जानते हुए कि वह बड़े उद्देश्य, देश की आज़ादी, के लिए कामरेड है। दोनों में कैसी आत्मीयता थी वह गांधी हत्या के समय स्पष्ट हो गया था क्योंकि दोनों ने अपना सब कुछ खो दिया था। इतिहासकार उस क्षण कावर्णन इस प्रकार करते हैं “नेहरू वल्लभभाई से कुछ मिनटों के बाद वहां पहुंचे थे। गांधी के शव के पास बैठकर वह बच्चों की तरह रोने लगे। उसके बाद उन्होंने अपना शोकाकुल सर पटेल की गोद में रख दिया”। उस रात दोनों ने राष्ट्र को सम्बोधित किया। 3 फ़रवरी, 1948 को पटेल को प्रधानमंत्री नेहरू ने भावुक पत्र लिखा, “बापू की हत्या के बाद मैं समझता हूं कि यह मेरा कर्त्तव्य है, और आपका भी, कि हम इस संकट का दोस्त और साथी की तरह सामना करें”। इसका बराबर जवाब सरदार न दिया कि “आपके पत्र की गर्मजोशी और स्नेह मुझे छू गई है...हम दोनों एक संयुक्त उद्देश्य के लिए जीवनभर साथी रहें है...”।
इससे एक दिन पहले पटेल ने कांग्रेस पार्टी को सम्बोधित करते हुए सार्वजनिक तौर पर नेहरू को “माई लीडर” कहा था। ऐसी उदारता की मिसालें राजनीति में कम ही देखने को मिलती हैं, पर वह लोग अलग मिट्टी के बने थे। पटेल चाहते तो वह रंजिश पाल सकते थे कि वह प्रधानमंत्री नहीं बन सके पर क्योंकि यह गांधी जी का फ़ैसला था इसलिए चुपचाप स्वीकार कर लिया। गांधी जी ने पटेल के उपर नेहरू को क्यों तरजीह दी? मेरा समझना है कि गांधी जी को मालूम था कि सरदार की सेहत ठीक नहीं। जेल में भी उन्हें आंत्र की समस्या आई थी। गांधी देश की बागडोर जवान और स्वस्थ हाथों में सौंपना चाहते थे। लम्बी बीमारी के बाद आज़ादी के तीन वर्ष के बाद पटेल का देहांत भी हो गया था। गांधी जी का वध हो चुका था। देश की सारी ज़िम्मेवारी जवाहरलाल नेहरू के कंधों पर आ गई। अगर देश भटका नहीं और भविष्य की सही नींव डाली गई तोबहुत श्रेय नेहरू को जाता है। ग़लतियां हुईं। जो काम करेगा वह गलती करेगा। हमें उनकी ग़लतियां नहीं उनकी देश के प्रति सेवा को याद रखना है। यह देश का सौभाग्य है कि आज़ादी दिलवाने और सम्भालने के समय हमारे पास यह भव्य त्रिमूर्ति थी। ऐसे लोग दोबारा नहीं आए।