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बिहार का राजनीतिक रंगमंच सजने लगा

04:16 AM Sep 27, 2025 IST | Rakesh Kapoor

बिहार इतिहास में अपने लिच्छवी गणराज्य की कथा से न केवल लोकतन्त्र की जननी रहा है बल्कि स्वतन्त्र भारत में यह सामाजिक न्याय की धरती भी रहा है। इस राज्य के लोगों ने 1967 के आम चुनावों में ही स्पष्ट कर दिया था कि उसकी धरती समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों की प्रयोगशाला बनेगी। इस राज्य में आज जिस जाति आधारित समाज की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है उसकी कैफियत यह है कि पूरे उत्तर भारत में इसी राज्य ने दलितों व वंचितों की राजनीतिक आकांक्षाओं को सुर देने का काम तब किया जब साठ- सत्तर के दशक में स्व. भोला पासवान शास्त्री राज्य के मुख्यमन्त्री बने और उनसे पहले पिछड़े समाज से आने वाले भारत रत्न स्व. कर्पूरी ठाकुर बिहार मे समाजवादी नीतियों के पर्याय बने । पिछड़े समाज को आरक्षण देने का कार्य स्व. कर्पूरी ठाकुर ने 1977 मंे अपने मुख्यमन्त्री बनने के बाद ही शुरू कर दिया था। बिहार पिछले लगभग दो महीने से इसलिए भी चर्चा में है कि राज्य मंे आगामी 22 नवम्बर से पहले–पहले हर हालत में चुनाव होने हैं क्योकि इस दिन प्रदेश की 243 सदस्यीय विधानसभा की पांच वर्षीय अवधि समाप्त हो रही है। अतः गौर से देखा जाये तो चुनाव मंे मुश्किल से 50 दिन भी नहीं बचे हैं। मगर राज्य में चुनाव आयोग मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण भी कर रहा है। इसे लेकर तो पूरे देश में भारी विवाद चल रहा है क्योंकि चुनाव आयोग के खिलाफ विपक्षी दल के नेता राहुल गांधी की अगुवाई में चुनाव आयोग पर कथित वोट चोरी का आरोप लगा रहे हैं। निश्चित रूप से देश में आज चुनाव आयोग की वह प्रतिष्ठा नहीं है जो दो- तीन दशक पूर्व हुआ करती थी। मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर विपक्षी दल सर्वोच्च न्यायालय भी गये जहां से उन्हंे कुछ राहत मिली और चुनाव आयोग की मुश्किलें भी बढ़ीं। मगर लोकतन्त्र केवल चुनाव का नाम नहीं होता बल्कि यह नागरिकों को लगातार सशक्त बनाये जाने की व्यवस्था होती है। असल में कोई भी देश तभी मजबूत होता है जब उसके लोग सशक्त होते हैं क्योंकि यह लोगों द्वारा बनाया गया लोगों की सेवा करने वाला तन्त्र होता है। अतः अब चुनावों को देखते हुए राज्य की सत्तारूढ व विपक्षी पार्टियां दोनों इसी नजरिये से काम करती नजर आ रही हैं। एक तरफ जहां कि भाजपा- जद (यू) के गठबन्धन वाली नीतीश कुमार की एनडीए सरकार लोगों को चुनावों से पहले विभिन्न मुफ्त सौगात बांट रही है तो दूसरी तरफ विपक्षी दल भी इस बाबत अपने जीत जाने पर मनमोहक लोक स्कीमों की घोषणाएं कर रहे हैं। लेकिन बिहार के लोग राजनैतिक रूप से बहुत जागरूक समझे जाते हैं अतः वे इन स्कीमों का आंकलन अपने नजरिये से ही करेंगे। लेकिन राज्य की लालू जी की सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस पार्टी व वामपंथियों के साथ मिल कर चुनाव में नीतीश बाबू के गठबन्धन को मात देना चाहती है। लालू जी के सुपुत्र तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के साथ काम करने का अवसर 2015 के चुनावों के बाद मिला था क्योंकि यह चुनाव नीतीश बाबू ने कांग्रेस, राजद व अपनी पार्टी का महागठबन्धन बना कर लड़ा था। परन्तु इसके बाद नीतीश बाबू ने राजद का साथ छोड़ कर भाजपा का दामन थामा और सरकार चलाई। उन्होंने 2020 का चुनाव भाजपा के साथ ही मिल कर लड़ा जिसमें उनकी पार्टी जद(यू) केवल 43 सीटें मिली जबकि भाजपा को 77 और राजद को 78 मगर नीतीश बाबू ने एक बार फिर पलटी मारी और राजद का दामन थाम लिया। तथा इस बार तेजस्वी को अपनी सरकार में उप-मुख्यमन्त्री बनाया। लेकिन इसके बाद नीतीश बाबू ने फिर पलटी मारी और 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही राजद से नाता तोड़ लिया और भाजपा के साथ चले गये। यह सच है कि पूरे देश में यह नारा ‘जाति तोङो-दाम बांधो’ बिहार से ही डा. राम मनोहर लोहिया ने निकाला था और पिछड़े वर्गों के लोगों को अपनी पार्टी संसोपा में अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व देने का काम किया था। इसी के चलते दलित नेता स्व. राम विलास पासवान संसोपा के टिकट पर 1967 में पहली बार विधानसभा सदस्य बने थे। तब स्व. पासवान दलित नेता नहीं बल्कि समाजवादी नेता के तौर पर देखे जाते थे। इन चुनावों में जातिगत रूढियां टूटी थीं जिन्हें तोड़ने वाले स्व. डा. लोहिया थे। बिहार में जो जातिवादी सामाजिक संरचना है वह पिछड़ा बाहुल्य है । इसमें इन पिछड़ों में से अति पिछड़ा वर्ग बहुमत में है । राज्य में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या 63 प्रतिशत से कुछ अधिक है जबकि अनुसूचित व जनजाति वर्ग की जनसंख्या 23 प्रतिशत के करीब है और अन्य सवर्ण व अल्पसंख्यक हैं। मगर पिछड़ों में भी अति पिछड़ों की जनसंख्या 33 प्रतिशत से अधिक है। अतः सभी पार्टियों का जोर इस बात पर है कि पिछड़ों को कैसे रिझाया जाये। पिछले चुनावों तक यह वर्ग नीतीश बाबू के साथ था। अतः इस वर्ग को अपने पाले में रखने की गरज से ही भाजपा नीतीश बाबू को अपने साथ रखना चाहती है। बिहार को राजनीति की प्रयोगशाला भी कहा जाता है। 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद राज्य में पिछड़ा – अल्पसंख्यक वोट को लालू जी ने अपना आधार बनाया और बिहार पर लगातार 15 साल तक अपना राज रखा (केवल 2000 में कुछ दिन छोड़ कर जब नीतीश बाबू नौ दिन के मुख्यमन्त्री बने थे) दर असल मंडल कमीशन लागू होने के बाद ही राज्य में जातिगत राजनीति पनपी और कभी जेपी आन्दोलन में एक साथ रहने वाले लालू- नीतीश- पासवान अलग-अलग पार्टियों में चले गये।
तीनों ने अपनी-अपनी पार्टियां बना डालीं। तीनों ने ही जातियों को अपना वोट बैंक बना कर यह कार्य किया और बिहार की राजनीति जो कभी समाजवादी अलख पर चलती थी वह जातिवादी हुंकार पर चलने लगी। ये तीनों ही चोधरी चरण सिंह के दौर में उनके भी चेले रहे मगर मंडल कमीशन के बाद उनकी राहें जुदा हो गईं। इसे हम राजनीतिक अवसरवाद ही कहेंगे कि जिन चौधरी चरण सिंह ने उत्तर भारत के समूचे ग्रामीणों को जाति व धर्म से निरपेक्ष रखते हुए एक मजबूत माला में पिरोया था वह दाना- दाना होकर बिखर गई। वर्तमान दौर में बिहार में भाजपा बहुत बड़ी ताकत बन कर उभर चुकी है हालांकि इसके पास फिलहाल कोई कद्दावर क्षेत्रीय नेता नहीं हैं और यह प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर ही निर्भर कर रही है । नीतीश बाबू अब राजनीतिक ढलान पर कई वजहों से हैं मगर मुख्य रूप से उनका स्वास्थ्य इसका कारण माना जा रहा है। मुख्यमन्त्री रहते ही उनके कारनामें उनके स्वास्थ्य की गवाही दे रहे हैं। एेसे में बिहार के मतदाताओं को अपने लिए विकल्प खोजना है मगर लोकतन्त्र में जब नेताओं की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है तो जनता अपना तीसरा नेत्र खोल कर राजनीति को नई राह दिखाती है।
इस काम में बिहार की जनता माहिर मानी जाती है क्योंकि 2005 के चुनावों मे बिहार की जनता ने यही काम किया था और लालू जी का राज समाप्त कर दिया था और नीतीश बाबू के पक्ष में सारे जातिगत समीकरणों को तोङते हुए भारी बहुमत दिया था। उस समय भी भाजपा उनके साथ थी। लेकिन होने वाले चुनावों में समीकरण इतने सरल नहीं दिखाई पङते क्योंकि भाजपा यह चुनाव नरेन्द्र मोदी के सहारे ही जीतना चाहती है और नीतीश बाबू को ही मुख्यमन्त्री बनाये रखना चाहती है। अतः चुनाव बहुत दिलचस्प होता नजर आ रहा है।
बिहार के चुनाव परिणामों का असर देश के अन्य राज्यों पर भी पड़ना लाजिमी माना जा रहा है।

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