केजरीवाल का उत्थान और पतन
केजरीवाल की सरकार ने खुद को जनहितैषी और लोक कल्याणकारी मॉडल…
केजरीवाल की सरकार ने खुद को जनहितैषी और लोक कल्याणकारी मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें मुफ्त बिजली, पानी पर सब्सिडी, सरकारी स्कूलों में सुधार और मोहल्ला क्लीनिकों पर जोर दिया गया। इन योजनाओं और प्रभावी राजनीतिक संदेशों के चलते उन्होंने 2020 में दूसरी बार भारी बहुमत (62/70 सीटें) से जीत दर्ज की। इसके बाद आम आदमी पार्टी (आप) ने राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार की योजना बनाई, जिसमें पंजाब, गुजरात और अन्य राज्यों को निशाना बनाते हुए बीजेपी को चुनौती देना शामिल था।
2022 में पंजाब की जीत दिल्ली के बाहर आप का पहला पूर्ण बहुमत वाला राज्य, राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया। भगवंत मान को मुख्यमंत्री बनाकर केजरीवाल ने आप को बीजेपी और कांग्रेस के लिए एक मजबूत विकल्प के रूप में पेश किया। हालांकि, उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को गंभीर बाधाओं का सामना करना पड़ा।
केजरीवाल की विस्तारवादी रणनीति ने उन्हें सीधे बीजेपी के खिलाफ खड़ा कर दिया, जो केंद्र सरकार को नियंत्रित करती है। उनकी पार्टी के आक्रामक रुख के कारण केंद्र से टकराव बढ़ता गया, जिसमें 2021 के दिल्ली दंगे, उपराज्यपाल से लगातार विवाद, और प्रवर्तन निदेशालय व केंद्रीय जांच ब्यूरो की भ्रष्टाचार संबंधी जांचें शामिल थीं। सबसे बड़ा झटका दिल्ली की शराब नीति घोटाले के रूप में आया, जिसमें आप के प्रमुख नेता मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन फंस गए। भ्रष्टाचार के आरोपों ने पार्टी की नैतिक छवि को ध्वस्त कर दिया और केजरीवाल के ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ अभियान को कमजोर कर दिया। पार्टी नेताओं की गिरफ्तारी से आप की साख और अधिक गिर गई।
इसी दौरान, 2024 के चुनावों में बीजेपी को टक्कर देने के लिए बनी इंडिया गठबंधन में आप की स्थिति भी कमजोर होने लगी। दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस के लिए जगह छोड़ने से इनकार करने के कारण संबंधों में दरार आई, जिससे विपक्षी खेमे में केजरीवाल की सौदेबाजी की ताकत घट गई।
साथ ही आप की राष्ट्रीय विस्तार रणनीति अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाई। पार्टी ने गुजरात, गोवा और हिमाचल प्रदेश में चुनावी अभियान चलाया, लेकिन प्रदर्शन प्रभावी नहीं रहा। हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों -उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पैर जमाने में नाकाम रहने से राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को और झटका लगा। बीजेपी का वर्चस्व बना रहा और कांग्रेस, अपने कमजोर होने के बावजूद, कई राज्यों में प्रमुख विपक्षी दल बनी रही।
जैसे-जैसे केजरीवाल की सरकार जांच के घेरे में आई, केंद्रीय एजेंसियों के साथ उनका टकराव बढ़ता गया। प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय जांच ब्यूरो ने आप नेताओं के खिलाफ कई जांचें शुरू कीं, जिससे हाई-प्रोफाइल गिरफ्तारियां हुईं। केजरीवाल ने इन कार्रवाइयों को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ बताया, लेकिन कानूनी संकट ने आप की सरकार और सार्वजनिक छवि को प्रभावित किया। इसके अलावा, दिल्ली पर प्रशासनिक नियंत्रण को लेकर भी पार्टी संघर्ष करती रही। उपराज्यपाल, जिन्हें बीजेपी के ‘प्रॉक्सी’ के रूप में देखा जाता है, के साथ टकराव के चलते शासन प्रभावित हुआ। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की केजरीवाल की मांग पूरी नहीं हुई, जिससे उनकी कार्यकारी शक्तियों पर सीमाएं बनी रहीं। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से कुछ राहत मिली, लेकिन आप को केंद्र के हस्तक्षेप से पूरी तरह बचाया नहीं जा सका। भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा के रूप में केजरीवाल की बनाई गई छवि को इन आरोपों से गहरा आघात लगा। मीडिया ने उन पर कड़ी नजर रखनी शुरू कर दी, और उनके मध्यम वर्गीय समर्थकों ने उनसे दूरी बनानी शुरू कर दी।
उनकी लोकलुभावन योजनाओं की भी आलोचना होने लगी। मुफ्त बिजली, पानी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं लोकप्रिय बनी रहीं, लेकिन विरोधियों ने इनकी वित्तीय स्थिरता पर सवाल उठाए। पंजाब और दिल्ली की सरकारों की आर्थिक स्थिति पर दबाव बढ़ने से आप की आर्थिक नीतियों को लेकर चिंताएं बढ़ीं।
अब केजरीवाल का भविष्य कई चुनौतियों पर निर्भर करता है। भ्रष्टाचार के आरोप, प्रशासनिक संघर्ष और सिकुड़ते चुनावी प्रभाव से वह या तो राजनीतिक हाशिए पर जा सकते हैं या फिर अपनी राजनीति को नए सिरे से गढ़कर वापसी कर सकते हैं। आप में उनकी नेतृत्व की स्थिति अडिग है, लेकिन पार्टी की संरचनात्मक कमजोरियां दिल्ली और पंजाब पर अत्यधिक निर्भरता, राष्ट्रीय स्तर पर उनकी संभावनाओं को सीमित करती हैं। अगर केजरीवाल कानूनी मुश्किलों से बाहर निकलकर अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत कर पाते हैं, तो वह प्रासंगिक बने रह सकते हैं। लेकिन बीजेपी के आक्रामक अभियान और कांग्रेस के पुनरुत्थान के चलते उनका राजनीतिक दायरा सिकुड़ता जा रहा है। जो एक आदर्शवादी राजनीतिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था, वह अब विश्वसनीयता संकट से जूझ रहा है।
केजरीवाल इस तूफान से बच निकलेंगे या फिर राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाएंगे, यह आने वाले समय में तय होगा।
अरविंद केजरीवाल की यात्रा असाधारण उतार-चढ़ाव से भरी रही है। एक जमीनी कार्यकर्ता से तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने तक, उनकी सफलता ने वैकल्पिक राजनीति की शक्ति को प्रदर्शित किया। लेकिन केंद्र से उनके टकराव, पार्टी के आंतरिक संघर्ष और कानूनी परेशानियों ने उनकी स्थिति को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया है। अब वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं। यदि वह अपने शासन मॉडल का बचाव कर पाए, कानूनी अड़चनों को पार कर सके और ‘आप’ की विस्तार रणनीति को पुनर्जीवित कर पाए, तो वह और मजबूत होकर उभर सकते हैं। लेकिन यदि वह इन चुनौतियों का सामना करने में असफल रहते हैं, तो उनकी राजनीतिक यात्रा एक अपरिवर्तनीय गिरावट की ओर बढ़ सकती है। वह एक बार फिर वापसी करेंगे या मुख्यधारा की राजनीति के दबाव में झुक जाएंगे, यह एक खुला सवाल है। लेकिन एक बात निश्चित है उनकी कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।