जातिगत जनगणना की ‘जड़’
केन्द्र की मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराये जाने का निर्णय करके पूरे…
केन्द्र की मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराये जाने का निर्णय करके पूरे राजनैतिक जगत को आश्चर्य में डाल दिया है क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का इस मुद्दे पर ढुलमुल रवैया रहा है परन्तु प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी राजनीति में अचम्भे पैदा करने वाले राजनीतिज्ञ माने जाते हैं अतः उन्होंने जातिगत जनगणना का फैसला करके समूचे विपक्ष को फिलहाल हाशिये पर धकेल दिया है। इसके साथ यह भी तथ्य है कि श्री मोदी भाजपा की पारंपरिक रूढि़यों को तोड़ने वाले राजनेता माने जाते हैं इसलिए उनका फैसला प्रायः देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप ही होता है। जातिगत जनगणना का मुद्दा विपक्ष के कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी पूरे जोर-शोर से उठा रहे थे जिसमें देशभर की विपक्षी पार्टियां उनके साथ थीं। पिछले दो वर्षों के दैरान राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक जो भी चुनाव हुए हैं उन सभी में श्री राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना के मुद्दे को सबसे ऊपर रखा और संसद से लेकर सड़क तक यह एेलान किया कि जब भी विपक्ष को मौका मिलेगा वह इस गणना को करायेगा लेकिन श्री मोदी ने विपक्ष के हाथ से यह अस्त्र भी छीन लिया है। वास्तव में जातिगत जनगणना वक्त की जरूरत है क्योंकि भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी निहित है।
लोकतन्त्र में एेसा नहीं हो सकता कि जिन लोगों की आबादी में सर्वाधिक संख्या हो उन्हीं की तन्त्र के प्रशासनिक ढांचे में भागीदारी नगण्य हो। बेशक इसका सम्बन्ध भारत की सामाजिक संरचना से है जिसमें पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ अपल्संख्यकों की जनसंख्या 90 प्रतिशत के करीब जाकर बैठती है। जबकि इन वर्गों की सत्ता में भागीदारी पांच प्रतिशत से भी कम है। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को उनकी संख्या के अनुपात में राजनैतिक हिस्सेदारी दी गई है जबकि पिछड़े वर्गों को नौकरियों में हिस्सेदारी 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद मिली मगर राजनैतिक हिस्सेदारी अनुसूचित जातियों व जनजातियों के समान नहीं मिली। शिक्षा से लेकर नौकरियों तक में पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया जबकि 1931 की जातिगत जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या 52 प्रतिशत थी।
1990 के बाद से िपछड़ों की पहचान धर्म की चारदीवारी तोड़ कर की गई परन्तु कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से नीचे ही रहा जबकि कई राज्यों में आरक्षण की सीमा 69 प्रतिशत तक थी जिसे केन्द्र ने संरक्षण दिया। इनमें तमिलनाडु सबसे प्रमुख है। प्रधानमन्त्री मोदी की सरकार के नये फैसले के बाद यह आरक्षण सीमा तोड़नी होगी जो कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई है। कालान्तर में एेसा करना ही होगा जिससे पिछड़े वर्ग के लोग सन्तुष्ट हो सकें। भारत में हर दस साल बाद राष्ट्रीय स्तर पर जनगणना होती है मगर 2021 की जनगणना काेरोना महाप्रकोप की वजह से नहीं हो सकी और आगे के लिए टल गई। अब यह जनगणना होनी है जिसकी तारीख व समय केन्द्र सरकार तय करेगी। हालांकि 2010 में जब केन्द्र में कांग्रेस नीत मनमोहन सरकार थी तो उसने जातिगत जनगणना भारी हील- हुज्जत के बाद कराई थी मगर इसके नतीजे घोषित नहीं किये जा सके और 2014 के लोकसभा चुनाव आ गये। उस समय मनमोहन सरकार में शामिल उत्तर भारत के कई दलों ने इस गणना की मांग की थी। मगर पिछले लगभग तीन साल से विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसे चुनावी मुद्दा बना रखा है जिस पर सत्तारूढ़ पार्टी का रुख साफ नहीं था। हालांकि इससे पूर्व कांग्रेस पार्टी जातिगत जनगणना के पक्ष में खुलकर नहीं आ पाती थी। जबकि समाजवादी चिन्तक स्व. डाॅ. राम मनोहर लोहिया पिछड़ी जाति के लोगों को उनकी संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व दिये जाने के पक्ष में थे और चाहते थे कि राजनीति में भी इन जातियों के लोगों की बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए। यह भी तथ्य है कि देश पर 55 साल तक कांग्रेस पार्टी राज करती रही मगर उसने कभी भी जातिगत जनगणना नहीं कराई।
बेशक 2010 में उसके नेतृत्व में बनी साझा यूपीए सरकार ने यह फैसला अपने सहयोगी दलों के दबाव में आकर किया मगर यह बेनतीजा ही रहा। डाॅ. लोहिया ने 60 के दशक में ही साफ कर दिया था कि एक दिन एेसा जरूर आयेगा जब पिछड़ी जातियां उठकर खड़ी होंगी और अपना हिस्सा मांगेंगी। एेसा हुआ भी और 70 के दशक के शुरू से ही इन जातियों के नेता शिखर पर उभरने लगे जिनमें स्व. चौधरी चरण सिंह सबसे ऊपर थे। मगर चौधरी साहब के नेतृत्व में इन ग्रामीण जातियों की गोलबन्दी जाति के आधार पर न होकर व्यवसाय के आधार पर हुई जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के मुस्लिम नागरिक भी शामिल थे। इस समीकरण से तब की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस भी हैरान हुई और विपक्ष में बैठी जनसंघ (भाजपा) भी। 1969 में उत्तर प्रदेश में हुए मध्यावधि चुनावों से यह परिवर्तन आना शुरू हुआ। मगर उस समय इस गणित को जातिगत दायरे में न कैद करके ग्रामीण व शहरी राजनीति के दायरे में देखा गया लेकिन वर्तमान राजनैतिक सन्दर्भों में इसे जातिगत दायरे में ही देखा जायेगा क्योंकि चौधरी साहब के चेले रहे स्व. मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू यादव, स्व. शरद यादव व नीतीश कुमार तथा स्व. रामविलास पासवान तक सभी ने चौधरी साहब की विरासत को जातियों के आधार पर बांट लिया। मगर इन सभी समीकरणों में मुस्लिम मतदाता स्थिरांक (कांस्टेंट) रहे। इसमें थोड़ी बहुत हिस्सेदारी 80 के दशक में पैदा हुई बहुजन समाज पार्टी ने भी दलित-मुस्लिम वोट बैंक बना कर की। अतः राहुल गांधी जातिगत जनगणना की बात करके बहुत दूर की कौड़ी फैंक रहे थे जिसे नरेन्द्र मोदी ने बीच में ही लपक लिया है लेकिन इस कालान्तर में एक और बड़ा परिवर्तन करने में श्री नरेन्द्र मोदी सफल रहे। यह परिवर्तन सकल हिन्दू समाज को लेकर था जिसमें जातियों की पहचान छिप गई थी। इसकी शुरूआत श्री लालकृष्ण अडवानी ने राम मन्दिर आन्दोलन से की थी जिसे प्रधानमन्त्री बनने के बाद श्री मोदी ने जड़ से जोड़ने का प्रयास किया। अतः श्री मोदी द्वारा किया गया जातिगत जनगणना का फैसला भाजपा की जमीनी मजबूती से जाकर जुड़ता है जिससे विपक्ष के नेता परेशान दिखते हैं।