विभाजन विभीषिका का दंश
1947 स्वतंत्रता की वह सुबह जब पूरे देश की फिजाओं में आजादी की महक फैल रही थी, उसी वक्त एक अंधेरी त्रासदी भी हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। भारत के इतिहास में 1947 का साल केवल एक नई शुरुआत का नहीं, बल्कि एक ऐसी विभीषिका का भी था जिसने करोड़ों परिवारों की खुशियां लील लीं और उन्हें ताउम्र के लिए जख्मी कर दिया। यह दर्द केवल राजनीतिक सीमाओं के बंटवारे का नहीं था, बल्कि मानवता के टूटने और सामाजिक रिश्तों के बिखरने का था। जब देश के नक्शे पर लकीरों की खींचाई हुई, तब हजारों निर्दोषों की ज़िंदगी में भूचाल आ गया। उस भूचाल ने न केवल घर-बार छीन लिए, बल्कि इंसानियत के उन धागों को भी तोड़ दिया जो सदियों से हमारे बीच एकता का आधार था।
मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दो राष्ट्र सिद्धांत की राजनीति ने देश को उस आग के गर्त में धकेल दिया जिसकी परछाइयां आज तक हमारे समाज से नहीं गईं। 16 अगस्त 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक ऐसा काला अध्याय था, जब कोलकाता में न केवल हिंदू, बल्कि हर इंसान की मानवीयता को छलनी कर दिया गया। उस दिन से बंगाल, पंजाब तक हिंसा ने न केवल जमीन को लाल किया, बल्कि मनुष्यों के दिलों को भी पत्थर बना दिया। जब हम सोचते हैं कि उस वक्त करीब 1.5 करोड़ लोग अपनी धरती छोड़ने को मजबूर हुए और लगभग दस लाख जानें गईं, तो उस संख्या के पीछे छुपी गमगीन कहानियां हमारे सामने चित्रित होती हैं।
इन कहानियों में गुजरांवाला के लाला बलवंत खत्री का परिवार एक ऐसी दास्तान है जो पीड़ा की गहराई और मानवीय बलिदान का प्रतीक बन गया। एक ऐसे पिता का चित्र जो अपनी बेटियों को अपने ही हाथों से मौत की आग में डाल देता है ताकि वे नफरत की उस भीड़ के हवाले न हों जो उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ करना चाहती थी। प्रभावती और उनके आठ बच्चे, उनका पूरा परिवार, उस समय की भयावहता की ऐसी तस्वीर है जो आंखों के सामने घूमती रहती है। ऐसी हजारों कहानियां भारत भर में सुनाई देती है। उस काले दिन की गूंज आज भी दिल्ली के किंग्सवे कैंप की विस्थापित भारतीय कॉलोनियों में सुनाई देती है, जहां बुजुर्ग गम के आंसू पोंछते हैं और अपने खोए हुए घर-बार की बातें याद करते हैं। औरतों पर हुए अत्याचारों की गिनती बताना भी मुश्किल है। जब करीब 75,000 महिलाओं का अपहरण, बलात्कार और अमानवीय शोषण हुआ, तो कई परिवारों ने अपनी बेटियों को मौत दे दी ताकि उनका सम्मान बचा रहे। उस समय की पीड़ा केवल एक परिवार की नहीं थी, यह उस समाज का अपमान था जिसने महिलाओं को अपना आधार माना। उस समय की निर्दयता ने मानवीय संवेदनाओं को ध्वस्त कर दिया और उस जख्म को भुलाना आज भी संभव नहीं है। यह दर्द केवल घटनाओं तक सीमित नहीं रहा, बाद में साहित्य और सिनेमा में भी इसे गहराई से दर्शाया गया। भीष्म साहनी की ‘तमस’ ने विभाजन के भय और संप्रदायिकता की त्रासदी को जो चित्रित किया, वह आज भी पढ़ने वाले को झकझोर देता है। खुशवंत सिंह की ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ ने मानवीय रिश्तों की टूटन और विश्वासघात की कहानी को बड़े संवेदनशील तरीके से बयान किया। मंटो की कहानियां, खासकर ‘टोबा टेक सिंह’, पागलखाने के कैदियों के माध्यम से उस समय की विडंबना और कटु सत्य को बयां करती हैं। आधुनिक फिल्मों ने भी इस दौर की मानसिकता को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया है जिससे इतिहास की सच्चाई आज भी जीवित रहे।
हम उन परिवारों की कहानियों को नहीं भूल सकते जिनके बुजुर्ग इस विभाजन को अपने जख्मों के साथ बसर करते हैं। वे दिन जब बलवाइयों ने हिंदुओं और सिखों पर अत्याचार किए, जब बहनों और बेटियों की इज्जत छिनी गई और जब लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा। एक समय था जब हम साथ पढ़ते, खेलते थे, मगर अचानक भरोसे और मोहब्बत की जगह नफरत और भय ने ले ली। यह विडंबना और पीड़ा हमें गहराई से सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर हम कहां चूक गए।
75 वर्षों के लंबे सफर के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब केंद्र सरकार ने 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ घोषित किया तो यह एक भावनात्मक न्याय था उन लाखों परिवारों के लिए जो दशकों से इस दर्द को चुपचाप सहते आए थे। यह निर्णय न केवल उस पीड़ा को मान्यता देने का था, बल्कि नई पीढ़ी को भी उस समय की वास्तविकता से अवगत कराने और समाज में फैलने वाली वैमनस्यपूर्ण शक्तियों से सचेत करने का था। विस्थापित भारतीय ने समाज-राजनीतिक चिंतकों ने इस पीड़ा को केवल याद नहीं रखा, बल्कि सेवा और समाज कल्याण के माध्यम से उसे एक जीवन दर्शन भी बनाया। यह सिद्ध करते हुए कि इंसानियत धर्म से ऊपर है। उनकी मेहनतकश आवाज हमें यह संदेश देती है कि विभाजन की स्मृति केवल इतिहास नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि हम कभी भी फिर से मानवता के उस पथ से न हटें।
विभाजन विभीषिका हमारे लिए सिर्फ़ एक इतिहास का पन्ना नहीं, बल्कि एक ज़िंदा दस्तावेज है जो हमें याद दिलाता है कि यदि हम इंसानियत को नजरअंदाज करेंगे तो इतिहास खुद को दोहराने को मजबूर होगा। इसलिए आइए, हम सब मिलकर उस कड़वी सीख को अपनाएं और एक ऐसा समाज बनाएं जहां नफरत के लिए कोई जगह न हो, बल्कि प्यार, भाईचारे और सहअस्तित्व की ही भाषा हो।
इतिहास की इस विभीषिका में छिपा हुआ दर्द आज भी हमारे दिलों में धड़कता है और हमें यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता की कीमत कितनी भारी थी और उसका सम्मान कैसे करना चाहिए। हमारे बुजुर्गों के आंसू, उनके बलिदान और उनकी कहानियां हमें यह सिखाती हैं कि एकता की राह पर चलना ही असली स्वतंत्रता है। यही सच्चा भारत है। और भविष्य में हम जिस अखंड भारत की सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं, उसका रास्ता भी इस विभीषिका की स्मृति की पगडंडियों से होकर निकलेगा। इसी संकल्प के साथ प्रधानमंत्री जी की परिकल्पना विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस को जीवंत रखना होगा।