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सुप्रीम कोर्ट की खरी-खरी

04:30 AM Sep 18, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

भारत के लोकतन्त्र को सर्वदा लोकोन्मुखी बनाये रखने के लिए ही हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग का गठन किया था और इसे सरकार का अंग न बनाकर स्वतन्त्र सत्ता सौंपी। इसका मन्तव्य यही था कि भारत की चुनी हुई सरकार हर हालत में आम लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करे। यह इच्छा न केवल बहुमत के शासन के रूप में प्रतिष्ठापित होनी चाहिए, बल्कि अल्पमत में रहने वाले राजनीतिक दलों की भी इसमें पूरी भागीदारी हो। इसके लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संसदीय प्रणाली को अपनाया जिसमें सरकारें अल्पमत की बराबर की भागीदारी के साथ ही चलती हैं। संसद में जब किसी सरकारी विधेयक पर बहस या चर्चा कराई जाती है तो उसका आशय यही होता है कि उस पर विपक्ष में बैठे लोगों की राय व सुझाव भी आ सके जिससे हर विधेयक जनहित की दृष्टि से सम्पूर्णता पा सके। चुनाव आयोग लोकतन्त्र की यही आधारभूमि बनाकर सौंपता है और तय करता है कि भारत के प्रत्येक वयस्क मतदाता की इसमें शिरकत उसे मिले एक वोट के अधिकार के माध्यम से हो।
भारत के लोकतन्त्र में इस एक वोट के अधिकार की बहुत बड़ी कीमत होती है, बल्कि यह अमूल्य होती है क्योंकि इसी की मार्फत भारत का सामान्य नागरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मालिक बनता है। इस अधिकार की रक्षा करने का दायित्व चुनाव आयोग को सौंपा गया अतः 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने वाले हर भारतीय नागरिक को मतदाता बनाने का अधिकार चुनाव आयोग के पास होता है परन्तु यह अधिकार समावेशी नजरिये के साथ इस प्रकार लागू होना चाहिए कि भारत का कोई भी वैध नागरिक इस अधिकार से वंचित न रहे। वर्तमान में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में कराई जा रही मतदाता गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया का मामला सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में चल रहा है और इस बारे में सभी संवैधानिक पक्षों का क्रमवार खुलासा हो रहा है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि चुनाव आयोग हर भारतीय वयस्क नागरिक को मतदाता का दर्जा दे और इससे कोई भी व्यक्ति बाहर न होने पाये साथ ही अवैध लोग मतदाता सूची में शामिल न हो पायें। यह कार्य जरा भी दुष्कर नहीं है। 1952 के स्वतन्त्र भारत के पहले आम चुनावों से आयोग यह कार्य करता आ रहा है। इसके काम में कुछ खामियां भी रही होंगी मगर आमतौर पर भारत के नागरिक उसके कामकाज से सन्तुष्ट रहे। मतदाता सूची बनाने का काम चुनाव आयोग लोकमित्र बन कर ही करता है और लोगों को प्रेरणा देता है कि वे अपने इस अधिकार के अधिकारी बन कर भारत के लोकतन्त्र को मजबूत करें और अधिक से अधिक संख्या में मतदान में हिस्सा लें। मतदाता सूचियों को पारदर्शी बनाने की गरज से ही चुनाव आयोग ने 90 के दशक में प्रत्येक मतदाता को वोटर पहचान पत्र जारी करने की परंपरा शुरू की जो बहुत सफल रही क्योंकि इसमें मतदाता की फोटो लगी होती है और उसका पूरा नाम-पता होता है। मगर इसके बावजूद मतदाता सूची में दोहरीकरण की समस्या भी विद्यमान रही। साथ ही यह संसार छोड़ कर जाने वाले मतदाताओं के नाम काटने में गफलत पाई गई।
चुनाव आयोग इसी त्रुटि को दूर करने के लिए मतदता सूची का गहन पुनरीक्षण कर रहा है। मगर इसमें इसने शुरू में जो शर्तेंं लगाई उन्हें लेकर पूरे भारत में भारी विवाद पैदा हुआ और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक आ पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में पूरी तरह तथ्य परक रुख अख्तियार कर रहा है और चुनाव आयोग को समझा रहा है कि वह अपने मूल कार्य मतदाता सूची बनाने से ताल्लुक रखे न कि मतदाताओं की नागरिकता की जांच करे क्योंकि संविधानतः यह कार्य गृह मन्त्रालय का होता है। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि जिस वयस्क नागरिक के पास भी आधार कार्ड है उसका नाम मतदाता सूची में दर्ज किया जाये। वह भारत का नागरिक हो इसकी गारंटी गृह मन्त्रालय देगा। जाहिर है कि कोई भी एेसा व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है, मतदाता नहीं बन सकता है परन्तु मतदाता की नागरिकता को चुनौती देने का काम राज्य का है।
अब बिहार की मतदाता सूची को लेकर गहन पुनरीक्षण का काम इस महीने सितम्बर में पूरा हो जायेगा और आगामी 1 अक्तूबर को चुनाव आयोग बिहार की पुनरीक्षित मतदाता सूची प्रकाशित कर देगा। अभी फिलहाल जो चुनाव आयोग ने फौरी मतदाता सूची बनाई है उसमें राज्य के 65 लाख मतदाताओं के नाम काट दिये गये हैं। इसकी वजह कुछ लाख मतदाताओं का संसार छोड़ कर चला जाना बताया गया है और कुछ लाख का दूसरे राज्यों में पलायन करके बसना तथा कुछ का मतदाता सूची में दोहरीकरण लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में ही चुनाव आयोग के इन आंकड़ों को सप्रमाण चुनौती दी गई और कहा गया कि चुनाव आयोग जिन मतदाताओं को मृत बता रहा है उनमें से बहुत से जीवित हैं। विपक्ष चुनाव आयोग पर यह खुलमखुल्ला आरोप लगा रहा है कि गहन पुनरीक्षण के नाम पर समाज के गरीब, अल्पसंख्यक व पिछड़े समुदाय के मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से उड़ाने का षड्यन्त्र रचा जा रहा है। यह आरोप निश्चित रूप से बहुत गंभीर है क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार दिया है।
भारत में टाटा या बिड़ला के वोट की भी कीमत वही है जो किसी छप्पर में रहने वाले मजदूर के वोट की। इसीलिए तो यह वोट अमूल्य कहा जाता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने विगत दिन इस मामले की सुनवाई करते हुए खरी-खरी सुनाई और कहा कि यदि गहन पुनरीक्षित सूची में भी किसी प्रकार की विसंगति पाई गई तो वह इस पूरी प्रक्रिया को ही राष्ट्रीय स्तर पर रद्द कर देगा। वास्तव में यह धमकी नहीं, बल्कि हर हालत में संविधान का राज कायम रखने की पवित्र कसम है। भारत में संविधान का राज तभी कायम होगा जब इसके हर नागरिक को मिले राजनीतिक स्वतन्त्रता व बराबरी के अधिकार का अक्षरशः पालन होगा। अतः चुनाव आयोग को यह तय करना होगा कि वह भारत के हर जायज नागरिक को मतदाता सूची में दाखिल करे।

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