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विश्व को युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए

कोरोना महामारी के चलते समूचा विश्व हताशा में है। उसे इंतजार है कोरोना वायरस से मुक्ति का ताकि मानव शांति से जीवन जी सके और हर तरह की जकड़न से आजाद हो और वह वायरस मुक्त हवा में सांस ले सके।

01:16 AM Oct 19, 2020 IST | Aditya Chopra

कोरोना महामारी के चलते समूचा विश्व हताशा में है। उसे इंतजार है कोरोना वायरस से मुक्ति का ताकि मानव शांति से जीवन जी सके और हर तरह की जकड़न से आजाद हो और वह वायरस मुक्त हवा में सांस ले सके।

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विश्व को युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए
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कोरोना महामारी के चलते समूचा विश्व हताशा में है। उसे इंतजार है कोरोना वायरस से मुक्ति का ताकि मानव शांति से जीवन जी सके और हर तरह की जकड़न से आजाद हो और  वह वायरस मुक्त हवा में सांस ले सके। इस समय दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए लेकिन दुनिया में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिससे वह चिंतित भी है। महामारी के बीच कोई युद्ध नहीं चाहता लेकिन परिस्थितियां ऐसी हैं जो लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही हैं। लोग मारे जा रहे हैं, महिलाएं क्रंदन कर रही हैं, बच्चे चीख रहे हैं, सड़कें रक्त रंजित हो रही हैं। इमारतें मलबे में तब्दील हो रही हैं। दिन-रात चलने वाले शहर भूतहा हो रहे हैं। कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोगों को अपनी ही सुधबुध नहीं, इसलिए किसी को आभास ही नहीं कि अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच पिछले 21 दिनों से कितना भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है। दोनों ही देश पूर्व सोवियत संघ के ही देश हैं। युद्ध का कारण है करीब साढ़े चार हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र नागोर्नो-कारावाख। यह क्षेत्र अजरबैजान में पड़ता है लेकिन इसकी ज्यादातर आबादी आर्मीनियाई है। 1994 में हुए एक समझौते के तहत इस क्षेत्र को अजरबैजान का हिस्सा मान लिया गया, लेकिन इस पर स्वायत्त शासन आर्मीनियाई अलगाववादियों का ही बना रहा। पिछले माह 27 सितम्बर को अजरबैजान ने आर्मीनियाई अलगाववादियों द्वारा कब्जाए गए कुछ क्षेत्रों को छुड़ाने की कार्रवाई शुरू की तो उबाल आ गया।
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21 दिनों से दोनों देशों में भयंकर युद्ध चल रहा है, जिसमें हजारों लोग मर चुके बताए जाते हैं। हालांकि इस संबंध में कोई ठोस आंकड़ा सामने नहीं आया। अर्मीनिया की ज्यादातर आबादी ईसाई है और अजरबैजान शिया मुस्लिम बहुल देश है। कहा जा रहा है कि यह ईसाईयत पर इस्लाम का हमला है। यही बात सबसे ज्यादा खतरनाक है। तुर्की अजरबैजान का समर्थन कर रहा है तो दूसरी तरफ ईसाई बहुल आर्मीनिया को फ्रांस का समर्थन प्राप्त है। इस्राइल को दुनिया भर में इस्लाम विरोधी माना जाता है लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि इस्राइल इस युद्ध में अजरबैजान को हथियारों की सप्लाई कर रहा है। इससे नाराज होकर आर्मीनिया ने इस्राइल से अपना राजदूत भी वापस बुला लिया है। जैसे पूर्व में हुए युद्धों में अमेरिका ने जमकर हथियार पूरी दुनिया में बेचे उसी तरह इस्राइल अपने हथियार बेचने में लगा है, उसे न तो ईसाईयत से कुछ लेना-देना है और न ही मुस्लिमों से। अमेरिका के प्रयासों से इस्राइल ने संयुक्त अरब अमीरात से समझौता कर इस्लामी जगत में अपनी घुसपैठ बढ़ा ली है। खतरा इस बात का भी है कि यह युद्ध कहीं ईसाई और मुस्लिम लड़ाई में न बदल जाए क्योंकि ये दोनों देश पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहे हैं इसलिए रूस युद्ध विराम के लिए प्रयासरत है। रूस के हस्तक्षेप से ही 11 अक्तूबर को युद्ध विराम समझौते का ऐलान किया गया था लेकिन यह युद्ध विराम एक दिन भी कायम नहीं रह सका।
अजरबैजान ने आर्मीनिया पर समझौता तोड़ने का आरोप लगाया था। रूस ने फिर दोनों देशों के बीच दूसरा मानवीय युद्ध विराम शनिवार की रात को लागू करवाया लेकिन युद्ध विराम लागू होने के चंद मिनटों बाद ही आर्मीनिया ने अजरबैजान पर युद्ध विराम के उल्लंघन का आरोप लगा दिया। युद्ध विराम के नए ऐलान के बावजूद दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें जारी हैं। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लेबरोव ने दोनों देशों के विदेश मंत्रियों से कहा है कि उन्हें इस समझौते का कड़ाई से पालन करना होगा। दोनों ही देश मिसाइलों का इस्तेमाल कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बात को लेकर चिंतित है कि इस दौरान युद्ध ग्रस्त इलाकों में कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका कई गुणा ज्यादा बढ़ गई है। 1980 के दशक के अंत से 1990 के दशक तक नागोर्नो कारावाख को लेकर चले युद्ध में 30 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। उस दौरान अलगाववादी ताकतों ने कुछ इलाकों पर कब्जा जमा लिया था। भारत ने भी सभी पक्षों से तत्काल लड़ाई बंद करने, संयम बरतने और सीमा पर शांति बनाए रखने की अपील की है। भारत मानता है कि इस संघर्ष का दूरगामी समाधान शांति के साथ कूटनीतिक वार्ताओं से ही ​निकल सकता है। भारत की प्रतिक्रिया काफी संतुलित है। आर्मीनिया कश्मीर मुद्दे पर भारत को बिना शर्त समर्थन देता है और भारत ने जब परमाणु परीक्षण किए थे तो उसने भारत की आलोचना नहीं की थी। जहां तक अजरबैजान का सवाल है तो आर्थिक दृष्टि से भारत के आर्थिक हित उससे जुड़े हुए हैं। वह एक तेल सम्पन्न देश है, जहां पर ओएनजीसी ने नईवेश किया हुआ है और भारत की फार्मास्यूटिकल कम्पनियों ने भी कारखाने लगाए हुए हैं। पूर्व सोवियत संघ के दौर में अजरबैजान के मशहूर गायक रशीद बेहबुदोव मजहब नहीं ​सिखाता आपस में बैर रखना गाया करते थे तो हर भारतीय का सीना सोवियत संघ से मैत्री को याद करते हुए फूल जाता था। रशीद 1952 में भारत आए थे तो उनकी दोस्ती बिग शो मैन रहे राजकूपर से हुई, जिनकी 1951 में  रिलीज हुई फिल्म आवारा ने सोवियत संघ के बाक्स आफिस पर झंडे गाड़ दिए  थे। राजकपूर का रशीद के न्यौते पर अजरबैजान की राजधानी बाकू में जबरदस्त स्वागत हुआ था, उस समय यह इतनी बड़ी घटना थी कि राजकपूर की यात्रा पर एक छोटी सी डॉक्यूमैंट्री बन गई थी। तब दोनों ही देश स्वतंत्र देश नहीं ​थे। कई सारी तेल और गैस पाइप लाइनें नागोर्नो-कारावाख से ही गुजरती हैं जो काकेशस से यूरोपीय देशों को तेल और गैस पहुंचाती हैं। इन पाइप लाइनों की सुरक्षा का सवाल भी मुंह वाये खड़ा है। एक तरफ अमेरिका-चीन का टकराव हो रहा है, दूसरी तरफ भारत और चीन में तनाव बना हुआ है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत अपनी लामबंदी कर रहे हैं। कभी-कभी शांति के पौधों को सींचने के लिए युद्ध की जरूरत पड़ती है, लेकिन जब भी युद्ध लड़े गए समझौता मेज पर ही हुआ। बेहतर यही होगा कि आर्मीनिया और अजरबैजान आपस में वार्ता कर युद्ध विराम लागू करें और मानवता को राहत की सांस लेने दें। मानवता युद्ध नहीं शांति चाहती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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