डाेनाल्ड ट्रम्प की दुनिया
लॉस एंजिल्स अमेरिका का न्यूयार्क के बाद दूसरा बड़ा शहर है। यहां अमेरिका के…
लॉस एंजिल्स अमेरिका का न्यूयार्क के बाद दूसरा बड़ा शहर है। यहां अमेरिका के लाजवाब राष्ट्रपति डाेनाल्ड ट्रम्प,उनकी अपनी भाषा में, युद्ध लड़ रहे हैं। दंगों और प्रोटेस्ट को रोकने के लिए उन्होंने सेना तक को झोंक दिया है। महानगर की एक तिहाई जनसंख्या का जन्म अमेरिका से बाहर हुआ है। अधिकतर ब्लैक हैं तथा मैक्सिको और लेतिन अमेरिका के देशों से हैं। बड़ी संख्या अवैध भी हैं। भारी प्रदर्शन ट्रम्प सरकार की आप्रवासन नीति और प्रवासी समुदायों पर सरकारी दमन के खिलाफ किए जा रहे हैं। जब से ट्रम्प राष्ट्रपति बने हैं वह वहां प्रवासियों के खिलाफ हाथ धोकर पड़े हैं। हमारे भी कुछ लोग दो विमानों में हथकड़ियां लगाकर भेज दिए गए थे, पर हमारी सरकार ख़ामोश रही। लॉस एंजिल्स में स्थिति लगभग गृह युद्ध जैसी बन गई है, क्योंकि जो पकड़ा जा रहा है वह हिंसक विरोध कर रहा है। कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम ट्रम्प के कदम का डट कर विरोध कर रहे हैं। उन्होंने केन्द्रीय सरकार के खिलाफ अधिकारों के दुरुपयोग का मामला अदालत में दर्ज करवाया है। ट्रम्प का उल्टा जवाब था कि वह ‘न्याय को रोकने’ के आरोप में गवर्नर की गिरफ्तारी का समर्थन करते हैं।
प्रवासियों का क्या किया जाए, यह अमेरिका का बड़ा धर्म संकट है। यह देश प्रवासियों ने बनाया है। डाेनाल्ड ट्रम्प खुद प्रवासियों की तीसरी पीढ़ी हैं, पर अब जो अंदर आ चुके हैं जिनमें भारतीय मूल के लोग भी शामिल हैं, वह दूसरों के लिए दरवाज़ा बंद करना चाहते हैं। हमारे जो लोग अवैध रह रहे हैं वह चुपचाप अपनी ज़िन्दगी व्यतीत करते हैं। कोशिश होती है कि कानून का उल्लंघन न हो, पर जो ब्लैक और दक्षिण अमेरिका के देशों से वहां घुस आए हैं। उनमें से बहुत अपराध में संलिप्त हो जाते हैं। वह बेरोज़गार हैं, बेघर हैं, बहुत ड्रग्स पर होते हैं। ज़िन्दगी से उन्हें कोई आशा नहीं है इसलिए हर क़िस्म के अपराध में संलिप्त रहते हैं। अमेरिका के हर बडे़ शहर में ऐसे क्षेत्र हैं जहां कोई शरीफ़ आदमी कदम नहीं रख सकता। लॉस एंजिल्स में ही नक़ाबपोशों ने दो दर्जन बड़े स्टोर लूट लिए जिनमें एप्पल का स्टोर भी शामिल है। अमेिरकी समाज में ऐसे लोग भी हैं जो मौक़ा मिलने पर बेधड़क स्टोर लूट लेते हैं। कुछ वर्ष पहले न्यूयार्क में रात के समय बिजली जाने पर असंख्य स्टोर लूट लिए गए। भारत में ऐसा नहीं होता। छोटी-मोटी चोरियां होती रहती हैं, पर सामूहिक तौर पर स्टोर लूटे नहीं जाते, जबकि रात को बिजली जाना तो आम बात है। ट्रम्प उस कानून का सहारा ले रहे हैं जिसके अनुसार वह नेशनल गार्ड को किसी भी जगह तैनात कर सकते हैं “अगर देश पर हमला हो रहा हो” या देश में “विद्रोह हो या विद्रोह का ख़तरा हो”। वैध या अवैध प्रवासियों से क़ानून के उल्लंघन का तो ख़तरा हो सकता है, पर इन निहत्थे गरीब लोगों से विद्रोह का तो कोई ख़तरा नहीं है। अधिकारियों को 3000 प्रवासियों की दैनिक गिरफ्तारी का कोटा दिया गया है जिससे देश में भारी तनाव फैला हुआ है। देश के 12 राज्यों के 25 शहरों में प्रदर्शन फैल चुके हैं। कोई बड़ा शहर ऐसा नहीं जहां प्रदर्शन न हो रहे हों। प्रदर्शनकारियों का नारा है ‘नो किंग’। वह ट्रम्प की तानाशाही प्रवृत्ति का विरोध कर रहें हैं। इन प्रवासियों के बिना अमेरिका का गुज़ारा नहीं। ट्रम्प ने खुद माना है कि प्रवासियों के बिना उनके फ़ार्म, होटल और रेस्टोरेंट नहीं चल सकते। पर इस समय तो अमेरिका के राष्ट्रपति दमन पर लगे हुए हैं। अपने ही लोगों पर सेना के इस्तेमाल से भी वह परहेज़ नहीं कर रहे। तानाशाही प्रवृत्ति है इसलिए पुतिन या शी जिनपिंग जैसे लोग पसंद हैं। यूरोप जो सदा अमेरिका का साथी रहा है, को वह पसंद नहीं करते क्योंकि वह अधिक लिबरल है, उदार हैं। कैलिफ़ोर्निया में बहुत लोग बाहर से आए हैं इसलिए विभिन्नता को स्वीकार किया जाता है। राजनीतिक तौर पर यह स्टेट सदैव ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी का विरोधी रहा है। इसीलिए ट्रम्प ने भी अपना अभियान यहां से ही शुरू किया है। इससे उनके संघीय ढांचे की चूलें हिलेंगी और समाज में और विभाजन पैदा होगा। जिस तरह वह और उनकी सरकार हार्वर्ड और कोलम्बिया जैसी प्रसिद्ध यूनिवर्सिटीज के पीछे पडे़ हैं उससे पता चलता है कि ट्रम्प लिबरल राय से कितनी नफ़रत करते हैं। हार्वर्ड तो विशेष तौर पर अमेरिका का क्राउन ज्यूल है, मुकुट का हीरा है। अमेरिका को उस जगह जाना जाता है जहां हार्वर्ड यूनिवर्सिटी है। अमेरिका के आठ राष्ट्रपति यहां से पढ़ कर निकले हैं। अप्रैल में ट्रम्प हार्वर्ड को रिसर्च के लिए मिल रहे 2.2 अरब डॉलर का अनुदान रोक चुके हैं। वह यूनिवर्सिटी की स्वायत्तता समाप्त करना चाहते हैं। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के हार्वर्ड प्रवेश पर रोक लगा दी है जिसे अदालत ने रोक दिया है। वह हर उस संस्था के विरोधी हैं जो स्वतन्त्र राजनीतिक सोच को प्रोत्साहित करती है, जो अब तक अमेरिका की ताक़त रही है। वह हार्वर्ड को लोकतंत्र के लिए ख़तरा कह चुके हैं। स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सुमित गांगुली का मानना है कि ट्रम्प जिस तरह यूनिवर्सिटीज के पीछे पड़े हुए हैं उससे उच्च शिक्षा जो अमेरिका की बड़ी शक्ति है, कमजोर हो रही है।
जर्मनी के पूर्व विदेश मंत्री जोशका फ़िशर ने सवाल किया है कि ट्रम्प जो हरकतें कर रहे हैं उससे अमेरिका को क्या मिला है? वह इसका उत्तर देते हैं, “ट्रम्प की नीतियों से पता चलता है कि यह अमेरिका को कमजोर करेंगी और यह भी हो सकता है कि यह अमेरिका को आत्म विनाश की तरफ़ ले जाएं”। उनकी आशंका कितनी सही है यह समय बताएगा, पर यह तो सही है कि उनकी नीतियों के कारण अमेरिका अलग- थलग पड़ गया है। न्यूयार्क टाइम्स ने भी लिखा है कि अमेरिका के प्रति अविश्वास के कारण मित्र देश नई साझेदारियां तलाश रहे हैं। इस समय तो न देश के अंदर और न ही बाहर कोई अमेरिका के राष्ट्रपति पर विश्वास करने को तैयार होगा। विदेशी मामलों में भी उनकी धमकियों और डींग के बावजूद एक उपलब्धि नहीं है। कहा था कि राष्ट्रपति बनने के 24 घंटों में यूक्रेन का युद्ध रुकवा दूंगा, पर न पुतिन और न ही जलेंस्की ही उनकी बात सुन रहे हैं। उन्होंने अमेरिका में पढ़ रहे चीनी छात्रों पर पाबंदी लगा दी थी और प्रवेश पर रोक लगी दी थी। चीन पर 245% तक टैरिफ़ लगा दिया, पर जब चीन नहीं झुका तो ‘डील’ कर ली और अब कहता है कि चीनी छात्र तो ‘सदा ही मेरे मनपसंद रहे हैं’! अमेरिका में उनकी तानाशाही प्रवृत्ति को लेकर बहुत चिन्ता व्यक्त की जा रही है क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति को बहुत अधिकार है। अदालतों के सिवाय उन्हें कोई नहीं रोक सकता। ट्रम्प ने कहा था कि ‘मैं किसी भी समस्या का हल कर सकता हूं’। पर शोर-शराबे के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कर सके। नवीनतम झटका इज़राइल का ईरान पर हमला है। ट्रम्प ने कहा है कि इज़राइल ने उन्हें हमला करने से पहले पूछा तक नहीं। अमेरिका की और फ़ज़ीहत क्या हो सकती है कि इज़राइल ने ईरान के प्रतिनिधिमंडल के उन सदस्यों को मार दिया जो उसके परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका से बात कर रहे थे। नेतन्याहू अपनी मनमर्ज़ी करते हैं। ट्रम्प इस युद्ध से बाहर रहना चाहते हैं, पर आशंका है कि इज़राइल अमेरिका को बीच में खींच लेगा। इज़राइल ने ईरान के जनरल और न्यूक्लियर वैज्ञानिक मार दिए हैं, पर अभी तक ईरान के न्यूक्लियर संयंत्र नष्ट नहीं कर सका। वह इतनी गहराई पर हैं कि केवल अमेरिका के पास उन्हें नष्ट करने के बम हैं। ट्रम्प की सनक का शिकार अमेरिका की भारत नीति भी हो गई है। अचानक परिवर्तन आया है। वह शायद ख़फ़ा है कि भारत उन्हें पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम का श्रेय नहीं दे रहा। वह 12बार कह चुके हैं कि मैंने करवाया, मैंने करवाया। पर भारत नहीं मान रहा। वह यह ‘उपलब्धि’ दिखाना चाहते हैं, क्योंकि और कुछ दिखाने के लिए है नहीं। भारत के साथ रिश्ते अनिश्चित बन रहे हैं जबकि पाकिस्तान की सेना के साथ रिश्ता फिर से मजबूत किया जा रहा है। आपरेशन सिंदूर के बाद से अमेरिका का रवैया भारत के प्रति बदला हुआ है। हमारी बात को नज़रंदाज़ किया जा रहा है। अमेरिकी सेंट्रल कमान के कमांडर जनरल माइकल करिल्ला ने पाकिस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में ‘अद्भुत साझेदार है’। पाकिस्तान को यह सर्टिफ़िकेट पहलगाम में हुई आतंकी घटना के दो महीने के अंदर दिया गया है। पाकिस्तान वह देश है जिसकी एबटाबाद सैनिक छावनी में अमेरिका का मोस्ट वांटेड ओसामा बिन लादेन कई वर्ष छिपा रहा। पाकिस्तान के कारण ही अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में शिकस्त का सामना करना पड़ा था, पर अब फिर वहां पाकिस्तान प्रेम जाग रहा लगता है। भारत को अपनी विदेश नीति फिर से तय करनी पड़ेगी। हम कोई छोटा- मोटा देश नहीं है। बंगलादेश के युद्ध के समय तो इंदिरा गांधी निक्सन के आगे डट गईं थीं, अब फिर अमेरिका के सामने डटने का समय है। भारत और अमेरिका की स्ट्रैटेजिक साझेदारी अब पतली हो रही है। विश्वास ख़त्म हो गया है, पर भारत एकमात्र नहीं है, दुनिया में शायद ही कोई होगा जो अमेरिका के राष्ट्रपति पर विश्वास करता हो।