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फिर यूसीसी पर चर्चा

जब भी चुनाव आते हैं तब समान नागरिक संहिता का मुद्दा सुर्खियों में आ जाता है। समान नागरिक संहिता या​नि यूनिफोर्म सिविल कोड का अर्थ होता है-भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान कानून का होना, फिर चाहे उनका धर्म या उनकी जा​ति कुछ भी क्यों न हो।

12:00 PM Nov 05, 2024 IST | Aditya Chopra

जब भी चुनाव आते हैं तब समान नागरिक संहिता का मुद्दा सुर्खियों में आ जाता है। समान नागरिक संहिता या​नि यूनिफोर्म सिविल कोड का अर्थ होता है-भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान कानून का होना, फिर चाहे उनका धर्म या उनकी जा​ति कुछ भी क्यों न हो।

फिर यूसीसी पर चर्चा

जब भी चुनाव आते हैं तब समान नागरिक संहिता का मुद्दा सुर्खियों में आ जाता है। समान नागरिक संहिता या​नि यूनिफोर्म सिविल कोड का अर्थ होता है-भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान कानून का होना, फिर चाहे उनका धर्म या उनकी जा​ति कुछ भी क्यों न हो। देश की सर्वोच्च अदालत तो यहां तक कह चुकी है कि अब वक्त आ गया है कि देश में यूसीसी को लागू किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत सरकार यह भी स्प्ष्ट करे कि देश संविधान से चलेगा अथवा शरिया कानून भी संवैधानिक माना जाता रहेगा? पर्सनल लॉ तो सिख, ईसाई, पारसी, जैन आदि समुदायों के भी हैं।

आदिवासी क​बीलों से उनकी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि मुस्लिम देश की दूसरी बहुसंख्यक आबादी है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की तो झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा संकल्प पत्र जारी करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने झारखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने का ऐलान कर दिया। इससे एक बार ​फिर समान नागरिक संहिता पर बहस शुरू हो गई। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने यह वादा भी किया कि समान नागरिक संहिता से आदिवासी किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होंगे।

उनके कानून, उनकी परम्पराएं, उनकी संस्कृति पूर्ववत रहेगी। आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखा जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी भी पहले से ही यूसीसी का ​विरोध कर रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा और उसके सहयोगी दल यूसीसी को लेकर यह ढिंढोरा पीट रहे हैं कि अगर यह कानून लागू हुआ तो आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। यूसीसी लागू हो जाने से पूरे देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद ​लिए जाने जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक समान कानून के तहत आ जाएंगे। इसमें धर्म के आधार पर कोई कोर्ट या अलग व्यवस्था लागू नहीं होगी।

दूसरी ओर 21वें ​विधि आयोग ने साफ तौर पर यह कहा था कि इस समय समान नागरिक संहिता की जरूरत नहीं है। इसके बाद 22वें विधि आयोग का गठन किया गया और कानून मंत्रालय के अनुरोध पर वि​धि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर लोगों से राय मांगी। यूसीसी के विरोधियों का कहना है कि मोदी सरकार बार-बार इस मुद्दे को चर्चा में लेकर धुव्रीकरण और अपनी विफलताओं से ध्यान हटाने की राजनीति कर रही है। सवाल यह भी है कि भारत को यूसीसी की जरूरत क्यों है। अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे।

शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा, फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं। समान नागरिक संहिता की अवधारणा है कि इससे सभी के लिए कानून में एक समानता से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति में भी सुधार की उम्मीद है। यूसीसी का उद्देश्य महिलाओं और धा​र्मिक अल्पसंख्यकों स​हित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिन्दू कानून को लागू करने जैसा है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है। सेक्युलर देश में पर्सनल लॉ में दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। समान नागरिक संहिता बने तो धार्मिक स्वतंत्रता का ध्यान रखा जाए। संसद 2019 में तीन तलाक के ​खिलाफ कानून बनाया गया फिर भी मुस्लिम 15वीं, 16वीं सदी के समाज में जीना चाहता है। जब सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम मर्द (प​ति) को तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने का आदेश सुनाया तो मुस्लिम धर्म गुरु, मौलाना, नेता, विशेषज्ञ आदि चीखने लगे और कहने लगे कि यह फैसला शरिया के ​​खिलाफ है। संविधान अल्पसंख्यकों के अधिकारों और आरक्षण के लिए तो मुस्लिम मौलानाओं को खूब याद आता है ले​किन म​हिलाओं के भरण-पोषण का मुद्दा है तो वे शरिया की आड़ लेने लगते हैं।

दरअसल यह मामला सामाजिक समानता और लैंगिक समानता का ज्यादा है। संविधान ने दोनों ही स्थितियों के लिए समता का अधिकार दिया है। कौन नहीं जानता कि मुस्लिम महिलाएं आज भी सर्वाधिक पीड़ित हैं। शरिया की आड़ में छिपकर महिलाओं का शोषण किया जाता है। समान ना​गरिक संहिता कई देशों में लागू है तो ​फिर भारत में इसका विरोध क्यों है। समान नागरिक संहिता लागू हो यह देश के हित में होगा। अब जबकि आ​दिवासियों को यूसीसी के बाहर रखने की बात कही गई है तो अब विरोध का कोई औचित्य नजर नहीं आता।

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Aditya Chopra

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