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संघ का त्रिदिवसीय सम्मेलन

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07:48 AM Sep 17, 2018 IST | Desk Team

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आज से राजधानी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का तीन दिवसीय विचार समारोह शुरू हो रहा है जिसमें भाग लेने के लिए देश के सभी वैचारिक पक्षों के प्रमुख लोगों को बुलाया गया है और विदेशी दूतावासों को भी निमन्त्रण दिया गया है। राष्ट्रीय मुद्दों पर संघ के विचारों को प्रकट करने का पहला एेसा सम्मेलन या समारोह कहा जा सकता है जिसमें उससे वैचारिक मतभेद रखने वाले चिन्तकों को भी आमन्त्रित किया गया है। सभी जानते हैं कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी मूल रूप से संघ की ही राजनैतिक शाखा है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक धरातल पर संघ बहुत पहले से विभिन्न विरोधी विचारधाराओं वाले दलों के साथ चलने की कला सीख चुका है। इसके बावजूद राजनीतिक धरातल पर संघ के विचारों का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की कमी नहीं है। इसकी असली वजह संघ की अपनी राष्ट्रवाद और देश प्रेम की परिभाषा और परिकल्पना है जिस पर अक्सर अन्य दलों के चिन्तक अंगुली उठाते रहते हैं।

इनमें सबसे बड़ा विवादास्पद मुद्दा हिन्दुत्व रहा है। संघ की समूची सोच के केन्द्र में हिन्दुत्व इस प्रकार रहा है कि इसके राष्ट्रवाद का इसे पर्याय कहा जा सकता है परन्तु इस विषय पर संघ के विरोधी विचारधारा वाले दल समय-समय पर संशोधनवादी रुख अख्तियार करते रहे हैं और मानते रहे हैं कि इसकी सांस्कृतिक धरोहर की इस पहचान को एकांगी दृष्टि के स्थान पर समावेशी दृष्टि से देखना बेहतर होगा क्योंकि हिन्दुत्व धार्मिक पहचान के दायरे में बंधने वाली पहचान नहीं हो सकती। इसमें अक्सर गफलत भी होती रही है और कभी-कभी हिन्दुत्व व भारतीयता एक-दूसरे के आमने-सामने भी खड़े होने की स्थिति में आते रहे हैं। संघ के विचारक इसमें भेद स्वीकार नहीं करते हैं और मानते हैं कि भारत का उद्गम ही हिन्दुत्व के सूत्र से बन्धा हुआ है। इसके बावजूद भाजपा 1976 से ही देश में शुरू हुए गैर कांग्रेसवाद के दौर से विभिन्न विरोधी विचारधारा वाले दलों के साथ काम करती आ रही है हालांकि तब उसे जनसंघ कहा जाता था।

यह सब इसलिए स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि 1998 में पहली बार केन्द्र में जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा नीत सांझा सरकार बनी थी तो उसमें दो दर्जन के लगभग राजनीतिक दल शामिल थे और इनमें से शिवसेना जैसी पार्टी के अलावा शेष सभी दलों की विचारधारा भाजपा से किसी भी स्तर पर मेल नहीं खाती थी। यहां तक कि अकाली दल से भी नहीं। बाद में 1999 में जब श्री वाजपेयी की पुनः सरकार स्थापित हुई तो उसमें प. बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी भी शामिल हुईं और दक्षिण भारत की द्रविड़ संस्कृति मूलक वे पार्टियां भी शामिल हुईं जो हिन्दुत्व के सिद्धान्त को नकारते हुए ही सामाजिक न्याय के सिद्धांत के बूते पर अपनी हैसियत में आई थीं परन्तु आज प. बंगाल की राजनीति में इस मुद्दे पर ही हड़कंप मचा हुआ है कि वहां की मुख्यमन्त्री ममता दी ने दुर्गा पूजा के अवसर पर लगने वाले पांडालों को आर्थिक मदद देने की घोषणा की है।

ममता दी की दृष्टि में यह राज्य की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत बनाये रखने की कोशिश है जबकि संघ के समर्थक मानते हैं कि यह उदार हिन्दुत्व की तरफ कदम है और इस बात का प्रतीक है कि संघ की विचारधारा का विरोध करने वाले लोग भी उसके विचारों को कहीं न कहीं मान्यता देते हैं। इसी प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा मन्दिरों की यात्रा करने और हाल ही में मानसरोवर की यात्रा करने को भी उदार हिन्दुत्व की श्रेणी में रखने से कुछ चिन्तक पीछे नहीं हट रहे हैं। यदि हम बारीकी के साथ इन घटनाओं का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इनका धार्मिक आस्थाओं से लेना-देना है जिससे उदार हिन्दुत्व का स्वर उभरता है। अतः कुछ लोग यह सप्रमाण कह सकते हैं कि भारत की राजनीति उदार हिन्दुत्व की तरफ तेजी से घूम रही है जो केन्द्र में स्थापित भाजपा सरकार के उस प्रभाव से उपजी है जिस पर संघ की विचारधारा का भरपूर असर है।

इसे भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि वाजपेयी सरकार के शासन के दौरान इसके गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण अाडवाणी ने संसद में ही कई बार यह वक्तव्य दिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एेसा विश्वविद्यालय है जिसमें प्रशिक्षण लेकर स्वयंसेवक विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में कार्य करते हैं उनमें से राजनीति भी एक है। यह सर्वविदित है कि श्री अाडवाणी अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के प्रवर्तक थे और संघ का मानना था कि राम मन्दिर का सम्बन्ध भारत की राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ हैै। यह स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं कर सकता कि राम मन्दिर आन्दोलन हिन्दुत्व का ही ध्वज प्रवाहक था। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे राष्ट्रीय आन्दोलन कहा था। आशा की जानी चाहिए कि संघ अपने विरोधियों की शंकाओं का निवारण करेगा।

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