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ट्रम्प शांति दूत हैं या युद्ध दूत ?

07:30 AM Jun 27, 2025 IST | Aakash Chopra

इस साल जनवरी के महीने में डोनाल्ड ट्रम्प ख़ुद को 'शांति दूत' बताकर सत्ता में लौटे थे लेकिन अब उन्होंने ईरान और इजराइल के बीच जटिल संघर्ष में अमेरिका को शामिल करने का कदम उठाया है। पद संभालने के बाद से ट्रम्प मध्य पूर्व में शांति लाने में सफल नहीं हो पाए हैं। अब वह एक ऐसे क्षेत्र की अगुआई कर रहे हैं जो और बड़े युद्ध की कगार पर है और इसमें अमेरिका एक सक्रिय भागीदार है। पाकिस्तान के कुछ नेताओं और प्रमुख हस्तियों ने ईरान के तीन परमाणु केंद्रों पर अमेरिका के हमले के बाद सरकार से 2026 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नाम की सिफारिश करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा है।

सरकार ने शुक्रवार को एक आश्चर्यजनक कदम उठाते हुए घोषणा की थी कि वह हाल में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान शांति प्रयासों के लिए ट्रम्प के नाम की सिफारिश इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए करेगी। उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार के हस्ताक्षर वाला अनुशंसा-पत्र नॉर्वे में नोबेल शांति पुरस्कार समिति को भेजा जा चुका है लेकिन अमेरिका द्वारा ईरान के फोर्दो, इस्फहान और नतांज परमाणु केन्द्रों पर हमले किए जाने के बाद इस फैसले को लेकर आपत्तियां आने लगी हैं। ट्रम्प की हाल में पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर के साथ बैठक और दोनों के साथ में भोजन करने से ‘पाकिस्तानी शासकों को इतनी खुशी हुई’ कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति को नोबेल पुरस्कार के लिए नामित करने की सिफारिश कर दी। ‘चूंकि ट्रम्प अब संभावित शांति दूत नहीं रह गए हैं, बल्कि एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने जानबूझकर एक अवैध युद्ध छेड़ दिया है, इसलिए पाकिस्तान सरकार को अब नोबेल पुरस्कार के लिए उनके नाम की सिफारिश पर पुनर्विचार करना चाहिए, उसे रद्द करना चाहिए।” ट्रम्प ने दावा किया है कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध को रोकने में अहम भूमिका निभाई, वहीं भारत ने आधिकारिक रूप से इस बात को खारिज कर दिया।

भारत सरकार का कहना था कि पाकिस्तान और भारत के बीच कोई भी महत्वपूर्ण शांति प्रयास भारतीय कूटनीति और अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के कारण हुए थे, न कि यह ट्रम्प की पहल से हुए। वहीं पाकिस्तान ने तो ट्रम्प को नोबेल पुरस्कार देने का प्रस्ताव तक रख दिया जो एक राजनीतिक मज़ाक जैसा प्रतीत होता है क्योंकि ट्रम्प की भूमिका को लेकर कोई ठोस तथ्य मौजूद नहीं थे। यदि राष्ट्रपति ट्रम्प वाकई ‘शांति दूत’ हैं तो फलस्तीन के गाजा में हमले अब भी जारी क्यों हैं? वह रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्त क्यों नहीं करवा पाए? यह तो ट्रम्प का मुख्य चुनावी मुद्दा था। इराक, सीरिया, लीबिया, लेबनान, यमन, अफगानिस्तान आदि देशों में अमरीका की युद्धबाज के तौर पर और खुद राष्ट्रपति ट्रम्प की क्या भूमिका रही है? मौजूदा इजराइल-ईरान युद्ध को ही लें। बीते 10 दिन से भीषण हमले जारी हैं। करीब 700 मौतें हो चुकी हैं। ईरान के 12 से अधिक सैन्य जनरल मार दिए गए हैं। परमाणु वैज्ञानिक भी मारे गए हैं। कितनी इमारतें और प्रतिष्ठान खंडहर कर दिए गए हैं, उनका डाटा अभी उपलब्ध नहीं है।

राष्ट्रपति ट्रम्प कहते हैं कि वह इजराइल को युद्ध छोड़ने को नहीं कहेंगे। यह कौनसा शांतिकर्म है? ट्रम्प बार-बार बयान बदल रहे हैं। अमरीका युद्ध में संलिप्त भी है और राष्ट्रपति ट्रम्प ने दो सप्ताह के बाद कोई फैसला लेने की बात कही है। वह दावा करते रहे हैं कि ईरान परमाणु बम बना रहा है, जबकि उनकी सरकार में राष्ट्रीय खुफिया निदेशक तुलसी गबार्ड ने कहा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम 2003 में ही बंद करा दिया गया था, लिहाजा ईरान परमाणु बम कैसे बना सकता है? ट्रम्प ने उनके बयान को खारिज कर दिया, तो तुलसी को भी सफाई देनी पड़ी। यदि ट्रम्प वाकई ‘शांति दूत’ हैं तो उनका परमाणु बम से क्या लेना-देना? उनके प्रयास होने चाहिए कि युद्ध अविलंब खत्म हो लेकिन अमरीका की नीयत के मद्देनजर रूस और चीन को चेतावनी देनी पड़ रही है कि अमरीका युद्ध में घुसने की कोशिश न करे।

ट्रम्प ने फिलिस्तीन के मुद्दे पर इज़राइल के पक्ष में कई फैसले लिए, जिसमें यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के रूप में मान्यता देना और फिलिस्तीनियों के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लागू करना शामिल था। इससे मध्य पूर्व में और तनाव बढ़ा। जबकि मानवता कहती है कि उन्हें फिलिस्तीनी निर्दोषों के नरसंहार पर बोलना था, वे निष्पक्ष नहीं रहे और फिलिस्तीन को धमकाते रहे। 2011 में लीबिया में सैन्य हस्तक्षेप किया गया जिससे वहां की सरकार गिर गई और देश अस्थिर हो गया। यह कार्रवाई भी उनकी शांति की नीति के खिलाफ मानी जा सकती है। ट्रम्प के शासन में कई देशों के साथ संघर्ष हुए, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण ये हैं :

ट्रम्प ने चीन के खिलाफ ट्रेड वार शुरू किया जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ा। उन्हीं ने कई देशों, विशेषकर यूरोपीय देशों, जापान और कनाडा पर उच्च टैरिफ्स लगाए। इस नीति से वैश्विक व्यापार में अस्थिरता बढ़ी। राष्ट्रपति ट्रम्प का नोबेल पुरस्कार के लिए दर्द बार-बार बयां हो रहा है कि वह कितना, कुछ भी कर लें लेकिन उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिलेगा। उनकी यह छटपटाहट इसलिए भी घनीभूत होती है, क्योंकि 2009 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था। डोनाल्ड ट्रम्प की नोबेल शांति पुरस्कार पाने की इच्छा पर दुनियाभर के राजनयिक हलकों और मानवाधिकार संगठनों में मिश्रित लेकिन अधिकतर नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आई हैं। ब्रिटेन, जर्मनी और कनाडा जैसे देशों के विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प का ट्रैक रिकॉर्ड संघर्ष और टकराव से भरा हुआ है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने ट्रम्प की “नोबेल चाहत” को “अन्तर्राष्ट्रीय शांति के साथ मज़ाक” कहा है। भारत में सोशल मीडिया पर भी इस पर मीम्स और तंज की बाढ़ आ गई है, जहां यूजर्स ने ट्रम्प के भारत-पाक शांति दावों को ‘राजनीतिक नौटंकी’करार दिया।

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