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डूसू चुनाव में उल्टफेर

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के चुनाव परिणामों पर सबकी नजरें थीं। इन चुनावों को पूरा देश यूं ही नहीं देखता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ ने देश को कई ऐसे बड़े नेता दिए हैं जो राजनीति के फलक पर चमकते सितारे बने है…

11:19 AM Nov 26, 2024 IST | Aditya Chopra

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के चुनाव परिणामों पर सबकी नजरें थीं। इन चुनावों को पूरा देश यूं ही नहीं देखता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ ने देश को कई ऐसे बड़े नेता दिए हैं जो राजनीति के फलक पर चमकते सितारे बने है…

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के चुनाव परिणामों पर सबकी नजरें थीं। इन चुनावों को पूरा देश यूं ही नहीं देखता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ ने देश को कई ऐसे बड़े नेता दिए हैं जो राजनीति के फलक पर चमकते सितारे बने हैं।

राजनीति की प्राथमिक पाठशाला कहे जाने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव के दिग्गजों ने देश को भी दिशा दी है। डूसू से निकले छात्र नेताओं ने नगर निगम, विधानसभा ही नहीं बल्कि लोकसभा और राज्यसभा तक अपनी राजनीति का डंका बजाया है। इन्हीं की राह पर चलने के लिए एनएसयूआई और एबीवीपी से टिकट की दौड़ में शामिल भावी उम्मीदवार टिकट पाने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे है। डूसू के जरिये दिल्ली से राष्ट्रीय राजनीति तक मुकाम हासिल करने की इच्छा में वह संगठन के नेताओं से लेकर राजनीतिक दलों के नेताओं की पैरवी लगाने से भी नहीं चूक रहे। 68 साल के इतिहास में डूसू ने देश को कई काबिल नेता दिए हैं। सुभाष चोपड़ा, अजय माकन, अरुण जेतली, पूर्णिमा सेठी और विजय गोयल कुछ ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने डूसू के बाद राष्ट्रीय राजनीति तक कई नए मुकाम हासिल किए।

डूसू चुनावों की शुरूआत 1956 में हुई थी। अजय माकन, सुभाष चोपड़ा, हरचरण सिंह जोश, हरिशंकर गुप्ता, अलका लाम्बा, शालू मलिक, नीतू वर्मा, अमृता धवन, रागिनी नायक, नुपूर शर्मा और रोहित चौधरी ऐसे नाम हैं जिन्होंने डूसू चुनावों से सियासत की शुरूआत की और दिल्ली नगर निगम से लेकर विधानसभा और संसद तक अपनी राजनीति का जलवा ​बिखेरा। अदालत के निर्देश पर हुई मतगणना में इस बार कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआई ने सात वर्ष बाद अध्यक्ष पद पर जीत प्राप्त की। अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई के रौनक खत्री और संयुक्त सचिव पद पर एनएसयूआई के लोकेश चौधरी विजयी हुए जबकि भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के भानुप्रताप उपाध्यक्ष पद और मित्रविंदा कर्णवाल सचिव पद पर विजयी हुए। डूसू चुनाव अपने आप में अहम चुनाव हैं और इन चुनावों में 52 कॉलेज जुड़े हुए हैं। पहले यह धारणा काफी मजबूत थी कि डूसू चुनाव देशभर के युवाओं के मिजाज और रुझान का संकेत देते हैं। समय के साथ-साथ सियासत में धारणाएं बदलती रहती हैं। डूसू चुनाव आज के दौर में काफी महंगे चुनाव हो चुके हैं। चुनाव जीतने के लिए हर संगठन धन-बल का सहारा लेने लगे हैं। दिल्ली की सड़कें, दीवारें, पुलिस स्टेशन और मैट्रो स्टेशन प्रचार के पोस्टरों से पट गए थे। एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज तक गाड़ियों के काफिले घूमते देखे गए। चुनावी खर्च की जो सीमा रखी गई है उससे कहीं ज्यादा तो पैट्रोल पर खर्च हो गया।

दिल्ली हाईकोर्ट ने चुनावों के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति के नुक्सान के मामले में एक याचिका पर संज्ञान लिया और मतगणना पर तब तक रोक लगा दी जब तक कॉलेजों में सभी पोस्टर, होर्डिंग, प्ले कार्ड हटा नहीं दिए जाते। चुनाव प्रचार के दौरान फैलाई गंदगी साफ होने पर ही हाईकोर्ट ने मतगणना की अनुमति दी। यह तो साफ है कि डूसू चुनावों में भी चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। चुनाव परिणामों के बाद अब यह प्रश्न सामने आया है कि क्या एनएसयूआई दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी पकड़ दोबारा बना चुकी है क्योंकि अध्यक्ष पद का चुनाव हारने से एबीवीपी को बड़ा नुक्सान हुआ है। अध्यक्ष पद पर रौनक खत्री और संयुक्त सचिव पद पर लाेकेश चौधरी की जीत को उनकी अपनी मेहनत का नतीजा भी माना जा रहा है लेकिन क्या इन परिणामों को वि​श्वविद्यालय के छात्रों द्वारा कांग्रेस की विचारधारा का समर्थन करना मान लिया जाना चाहिए। रौनक खत्री मटका मैन के नाम से छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। चुनावी प्रचार हो या फिर धरना-प्रदर्शन सभी जगह उनके पास एक मटका रहता है। रौनक खत्री ने विश्वविद्यालय मेें पीने के पानी की खराब व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई थी और कॉलेज में मटके रखवाए थे। उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया, तब जाकर समस्या का समाधान हो पाया था। जहां तक चुनावी मुद्दों का सवाल है उन्होंने देहात से डीयू तक का नारा दिया था। आधारभूत सरंचनाओं में सुधार, दाखिलों में पारदर्शिता, छात्र हितों से जुड़े मुद्दों को एनएसयूआई ने खूब उछाला था। उम्मीद की जानी चाहिए कि डूसू की नई टीम मिलजुल कर काम करेगी और विश्वविद्यालय के बुनियादी ढांचे को सर्वोच्च प्राथमिकता देगी। जहां तक छात्र संघ चुनावों में सुधारों का सवाल है वह भी जरूरी है, क्योंकि महंगे होते चुनाव लोकतांत्रिक मर्यादाओं को नष्ट कर रहे हैं।

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