Top NewsindiaWorldViral News
Other States | Delhi NCRHaryanaUttar PradeshBiharRajasthanPunjabjammu & KashmirMadhya Pradeshuttarakhand
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariBusinessHealth & LifestyleVastu TipsViral News
Advertisement

उर्दू है खालिदा खानम तो हिंदी है राजकुमारी

क्या हिंदी और उर्दू अलग-अलग हैं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि बक़ौल अफ़जल मंगलौरी…

11:30 AM Feb 25, 2025 IST | Firoj Bakht Ahmed

क्या हिंदी और उर्दू अलग-अलग हैं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि बक़ौल अफ़जल मंगलौरी…

क्या हिंदी और उर्दू अलग-अलग हैं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि बक़ौल अफ़जल मंगलौरी :

उर्दू भी हमारी है

हिंदी भी हमारी है

एक खालिदा खानम है

एक राजकुमारी है!

ईमानदारी की बात तो यह है कि हिंदी और उर्दू में कभी कोई रंजिश ही नहीं रही और सदा ही दोनों दूध और शक्कर की भांति एक-दूसरे से नत्थी हैं। अभी हाल ही में राष्ट्रीय उर्दू भाषा परिषद में प्रधानमंत्री के मंत्र और भारतीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा, “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास” के अंतर्गत उर्दू की संगोष्ठी, ‘विश्व उर्दू सम्मेलन’ आयोजित हुआ जिसमें इसके अध्यक्ष डॉ. शम्स इक़बाल ने बताया कि उर्दू भाषा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिल में है, जैसा कि वे कहते है। उर्दू के व्याकरण की जड़ें प्राचीनतम संस्कृत भाषा से उद्धृत की गई हैं और यह कि इसका जन्म भारत में हुआ और इसकी जननी स्वयं भारत माता है।

यह राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र ज्योति की भाषा है और कठमुल्लों की नहीं, क्योंकि इस में लिखने और शायरी करने वालों की एक बड़ी संख्या गैर मुस्लिम लेखकों और शायरों की भी है, जिन। में से बहुतसों ने अपने नाम में उर्दू ‘तखल्लुस’ (उपनाम) जोड़ लिया था, जैसे, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ हो गए, रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ बन गए, पंडित आनंद मोहन जुत्शी ‘गुलज़ार देहलवी’ बन गए, बृज मोहन दत्तात्रेय ‘कैफ़ी’ हो गए, बृज नारायण ‘चकबस्त’ बन गए, दयाचंद ‘नसीम’ हो गए, हरि चंद ‘अख्तर’ बन गए राजेंद्र सिंह बेदी ‘सहर’ हो गए, जगन्नाथ ‘आज़ाद’ हो गए, तिलोक चंद ‘महरूम’ हो गए, आनंद नारायण ‘मल्ला’ हो गए, संपूर्ण सिंह ‘गुलज़ार’ बन गए, कृष्ण बिहारी ‘नूर’ हो गए तो उपेंद्र नाथ ‘अश्क’ बन गए! इस प्रकार के और भी कई उदाहरण भी हैं।

चाहे वह पूर्व राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद हों या शंकर दयाल शर्मा हों दोनों ने उर्दू मदरसे या उर्दू के उस्तादों से सीखी थी। समाज सुधारक, राजा राममोहन राय ने तो उर्दू, फ़ारसी और अरबी भी सीखी थी और अपना फ़ारसी अख़बार, ‘मिरात-उल-अख़बार’ फ़ारसी में प्रकाशित करते थे, जिसे अंग्रेजों ने झूठे आरोप लगा कर बंद कर दिया था, जैसे भारत रत्न, मौलाना आज़ाद के ‘अल-हिलाल’ और ‘अल-बलाग़’ की जमानत ज़ब्त कर ली गई थी। एक समय था कि जब पंजाब में ही नहीं बल्कि पूर्ण भारत में उर्दू बोली, पढ़ी, बोली, सुनी और लिखी जाती थी और उर्दू के विशेष पत्र-पत्रिकाएं इसी क्षेत्र से निकला करते थे। यूं तो ‘जाम-ए-जहांनुमा हरिहर दत्त द्वारा संपादित प्रथम उर्दू अखबार था जो 17 मार्च 1822 को प्रकाशित हुआ था, पंजाब से जो मुख्य उर्दू अख़बार निकाले जाते थे उन में लाहौर से मुंशी हरसुख राय का 12 मई 1850 को शुरू हुआ ‘कोहिनूर’ था, वहीं से, 27 जुलाई 1852 को ‘पंजाब अख़बार’ जारी हुआ।

ऐसे ही लाहौर में 14 अप्रैल 1931 को कर्म चंद शुक्ल का उर्दू अख़बार ‘वंदे मातरम’ शुरू हुआ। महबूब आलम का ‘पैसा अख़बार’ 5 अप्रैल 1888 को शुरू हुआ। आज ये सब अख़बार बंद हो गए। इन्हीं अखबारों में लाला जगत नारायण द्वारा संपादित उर्दू का दैनिक, ‘हिंद समाचार’ भी छपना शुरू हुआ, जो अभी तक चल रहा है। मौलवी ज़फ़र अली ने 15 जनवरी 1903 में ‘जमींदार’ प्रकाशित किया और इसके अतिरिक्त बहुत से उर्दू अख़बार भारसतदे प्रकाशित हुए, जैसे, ‘मिलाप’, ‘प्रताप’, ‘अल-जमीयत’, ‘क़ौमी आवाज़’, ‘राष्ट्रिय सहारा’ (सभी दिल्ली) जहां हिंदू और मुसलमानों को सर सैयद अहमद खान, हिंदुस्तान नामक भारतीय दुल्हन के संबंध में कहा करते थे कि ये दोनों उसकी खूबसूरत आंखें हैं, वहीं नामचीन शायर,

अफ़ज़ल मंगलौरी ने क्या ख़ूब कहा है :

कोई मुश्किल नहीं है हिंदू या मुसलमां होना,

हां, बड़ी बात है इस दौर में इन्सान होना!

यूं तो भारत की सभी 22 भाषाएं बराबरी से प्यारी हैं, मगर कहा जाता है कि यदि आपको इश्क करना है तो उर्दू सीखिए और अगर उर्दू सीखनी है तो इश्क कीजिए, जैसा कि नौशा मियां, मिर्ज़ा गालिब ने भी कहा था कि ‘इश्क़ पर जोर नहीं, है यह वह आतिश ग़ालिब! इश्क-ओ- मुआशिके से बढ़ कर ऊर्दू अंतर्धर्म समभाव, सद्भावना व सदाचार की भाषा भी है, जिस में योगीराज, श्री कृष्ण पर, होली, दिवाली, दशहरे पर नामचीन उर्दू शायरों ने कविताएं और गज़लें लिखी हैं। बहादुरशाह ज़फ़र के दौर में, दिल्ली के रामलीला मैदान में दशहरे की चौपाईयां फ़ारसी में बोली जाती थीं और साझा विरासत के थीम के अंतर्गत होली के समय लाल किले के पीछे दिल्ली और बाहर से टुकड़ियां शहंशाह के होली-ठिठोली कंपीटिशन में भाग ले कर इनाम जीता करती थीं।

आज उर्दू इस लिए पिछड़ रही है कि स्वयं ऊर्दू वाले ही इसका साथ नहीं दे रहे कयोंकि प्रथम तो यह कि वे स्वयं ही यह कहते नहीं थकते कि उर्दू समाप्त हो रही है। वे यह भी कहते हैं कि उर्दू मुस्लिमों की ज़बान है, जो ठीक नहीं, क्योंकि यह साझा विरासत की भाषा है। इसके अतिरिक्त वे उर्दू के प्रोफेसर जो बड़ी-संगोष्ठियों में चिल्लाते हैं कि उर्दू ऑक्सीजन पर है और मर रही है, उन सबके बच्चे मिशनरियों अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और मीर व ग़ालिब की उर्दू के लिए मगरमच्छी आंसू बहाते जैसे। आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है और उर्दू को इससे व आधुनिक तकनीक जोड़ना अत्यंत आवश्यक है।

Advertisement
Advertisement
Next Article