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वाघेला का 'बागी' होना

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09:23 PM Jul 22, 2017 IST | Desk Team

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श्री शंकर सिंह वाघेला ने गुजरात विधानसभा के चुनावों में कुछ महीने शेष रह जाने पर कांग्रेस पार्टी से किनारा करके साफ कर दिया है कि उनकी मंशा मतदाताओं की अदालत में अपनी पार्टी के विरोध में खड़ा होने की है। मूल रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के रूप में अपना राजनीतिक सफर ‘जनसंघ’ से शुरू करने वाले वाघेला की राजनीति अवसरवादिता के घेरे में ज्यादा घूमती रही है जिसके चलते उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में ही विद्रोह का झंडा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हालांकि 1980 में जनसंघ के भाजपा में तब्दील होने पर वह इस पार्टी के गुजरात में कर्णधारों में से एक थे। ‘सत्ता’ उनके लिए शुरू से ही राजनीति का ध्येय भी रही जिसकी वजह से उन्होंने 90 के दशक में अपनी तब की पार्टी भाजपा के सत्ता में आने पर ‘विद्रोह’ कर दिया था। जब चुनावों में श्री केशूभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा को विजय मिली तो मुख्यमंत्री पद भी उनके हिस्से में आया और श्री वाघेला को लगा कि उनके साथ पार्टी ने न्याय नहीं किया है तो उन्होंने श्री पटेल के विरुद्घ विद्रोह का बिगुल बजाकर अपने समर्थक विधायकों के साथ ‘पर्यटक स्थलों’ पर डेरा जमाने की संस्कृति को जन्म देकर ‘सत्ता पलट’ को अंजाम दिया और नई राष्ट्रीय जनता पार्टी तक बना डाली और कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाई।

उसके बाद उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ डाला और कांग्रेस का दामन थाम लिया, परन्तु गुजरात की राजनीति में श्री नरेन्द्र मोदी के चमकने के बाद वह हाशिए पर ही ज्यादातर पड़े रहे, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के भीतर उसके अपने क्षेत्रीय नेताओं का भी उद्भव होता रहा मगर चतुर वाघेला ने राज्य की राजनीति छोड़कर केन्द्र की ओर प्रस्थान किया और 2004 में लोकसभा चुनाव जीतने पर वह मनमोहन सिंह की पहली सरकार में कपड़ा मंत्री बनाए गए। उनका कार्यकाल साधारण रहा, जबकि उनके राज्य गुजरात में श्री मोदी का बतौर मुख्यमंत्री डंका बजता रहा। श्री मोदी का मुकाबला करने के लिए उन्होंने गुजरात में ‘शक्ति सेना’ का भी गठन किया, परन्तु वह मुकाबला नहीं कर सके लेकिन राज्य कांग्रेस में अपने नेतृत्व की धमक पैदा करने की कोशिश में उन्होंने ‘गुटबंदी’ को जमकर बढ़ावा दिया। केन्द्र की राजनीति से राज्य की राजनीति में उन्होंने 2012 के विधानसभा चुनावों की मार्फत प्रवेश किया परंतु उन चुनावों में भाजपा की भारी विजय ने उनके नेतृत्व की असलियत खोल कर रख दी क्योंकि कांग्रेस ‘सत्ता विरोधी’ माहौल बनाने में असमर्थ रही।

उन चुनावों में भी मोदी की लगातार तीसरी बार शानदार विजय हुई और उनके सामने पूरी कांग्रेस बौनी साबित हो गई। श्री वाघेला जो भाजपा में रहते श्री मोदी के व्यक्तिगत रूप से विरोधी थे, हाशिये पर ही पड़े रहे। राज्य कांग्रेस में रस्साकशी के चलते विधानसभा में वह विपक्ष के नेता के तौर पर तो आसीन हो गए मगर राजनीति में अपनी छवि एक सशक्त विरोधी नेता के रूप में बनाने में सफल नहीं हो सके। वह भी तब जब उस राज्य में भाजपा ने ‘विजय रूपानी’ नाम के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया। इसके बावजूद उनकी इच्छा थी कि आने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों का सारा दारोमदार कांग्रेस पार्टी उन पर छोड़ दे जिसके लिए पार्टी हाईकमान राजी नहीं हुआ, खासकर उस हालत में जबकि उसी राज्य से इस पार्टी के कद्दावर नेता श्री अहमद पटेल भी आते हैं। श्री पटेल कुशल रणनीतिकार माने जाते हैं और पार्टी में एक साधारण कार्यकर्ता से शुरूआत करके इस मुकाम तक पहुंचे हैं। कांग्रेस के साथ गुटबंदी और गुटबाजी शब्द ऐसे लगे रहते हैं जैसे ‘खेत’ के साथ ‘मेढ़’। इस गुटबाजी को नियंत्रित करने के लिए पार्टी में जितनी ज्यादा जरूरत वर्तमान में है उतनी उससे पहले कभी नहीं थी क्योंकि पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे गिरता जा रहा है, इसके बावजूद तीन महीने पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से तीन में उसकी अच्छी विजय हुई है हालांकि सरकार केवल एक राज्य ‘पंजाब’ में ही बनी है। अत: श्री वाघेला का ऐसे समय में कांग्रेस से अलग होना उनके पुराने राजनीतिक अंदाज को ही दोहराना लग रहा है।

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