उपराष्ट्रपति चुनाव और दलगत राजनीति
भारत की संसदीय प्रणाली की व्यवस्था में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों के ही चुने जाने को अनिवार्य बताया गया है। राष्ट्रपति जहां केन्द्रीय मन्त्रिमंडल की सलाह से बन्धे होते हैं वहीं उपराष्ट्रपति सीधे संसद की कार्यवाही से जुड़े होते हैं। उपराष्ट्रपति अपने चुने जाने के क्षण से ही राज्यसभा के सभापति या चेयरमैन बन जाते हैं। भारत के संविधान की यह खूबसूरती है कि इसमें ऊंचे से ऊंचे पद तक पर भी आसीन व्यक्ति को जांच के घेरे में लेने का अधिकार संसद को दिया गया है। वर्तमान में उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव आगामी 9 सितम्बर को होगा। चुनाव की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि विगत 21 जुलाई को श्री जगदीप धनखड़ ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
भारत में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पदों के लिए होने वाले चुनावों में आम जनता की रुची 1967 से तब शुरू हुई जब इस वर्ष कांग्रेस के प्रत्याशी डा. जाकिर हुसैन ने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा। वह तब निवर्तमान उपराष्ट्रपति भी थे। 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी झटका लगा था। देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हो चुका था और लोकसभा में इस पार्टी को केवल 20 सांसदों का बहुमत ही प्राप्त हुआ था। तब डा. जाकिर हुसैन के विरुद्ध संयुक्त विपक्ष की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री कोका सुब्बाराव को प्रत्याशी बनाया गया था। दोनों के बीच अच्छी टक्कर हुई थी मगर डा. हुसैन इस मुकाबले में विजयी रहे थे।
इसी वर्ष उपराष्ट्रपति पद का चुनाव भी हुआ जिसमें मजदूर नेता श्री वी.वी. गिरी सफल रहे थे। विपक्षी दलों खास कर जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी व संसोपा आदि जैसे दक्षिणपंथी व मध्यमार्गी दल ने श्री कोका सुब्बाराव का समर्थन किया था जबकि वामपंथी दलों ने अपना पृथक प्रत्याशी खड़ा किया था। हालांकि बात उपराष्ट्रपति की हो रही है मगर राष्ट्रपति चुनाव का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि तब तक दोनों पदों पर चुनाव लगभग साथ-साथ ही होते थे। मगर 1969 में डा. जाकिर हुसैन की मृत्यु हो जाने की वजह से राष्ट्रपति चुनाव पांच साल से पहले ही कराना पड़ा था। यह राष्ट्रपति चुनाव एेसा था जिसकी चर्चा भारत के हर गांव कस्बे में जम कर हो रही थी। इसकी वजह यह थी कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने आह्वान कर डाला था कि कांग्रेस समेत सभी दलों के सांसद व विधायक अपनी अन्तर्आत्मा की आवाज पर वोट डाले। यह चुनाव स्व. नीलम संजीव रेड्डी व वी.वी. गिरी के बीच हुआ था।
राष्ट्रपति चुनाव में प्रत्येक राज्य के विधायक व संसद के दोनों सदनों के सदस्य वोट डालते हैं। जबकि उपराष्ट्रपति के चुनाव में केवल दोनों सदनों के सदस्य वोट डालते हैं। जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में होती है प्रायः उसी का उम्मीदवार जीत भी जाता है। अभी तक एेसा ही होता रहा है कि उपराष्ट्रपति सत्ताधारी दल का प्रत्याशी ही निर्वाचित होता रहा है। उपराष्ट्रपति पद पर निर्विरोध चुनाव भी होता रहा है। 1952 के पहले चुनावों में सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन निर्विरोध ही चुने गये थे। इसका कारण यह था कि उनके खिलाफ विपक्षी दलों ने जिन महाशय को खड़ा किया था उनके नामांकन पत्र में ही गड़बड़ी पाई गई थी। दूसरे उपराष्ट्रपति स्व. एम. हिदायतुल्ला थे जिनका चुनाव 1977 में हुआ था। वह सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर मुख्य न्यायाधीश थे। इस वर्ष में हुए लोकसभा चुनावों कांग्रेस पार्टी की महापराजय पहली बार हुई थी।
पंचमेल पार्टी जनता पार्टी इन चुनावों में अच्छे खासे बहुमत से जीती थी। हिदायतुल्ला इसी पार्टी के प्रत्याशी थे और कांग्रेस ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। दरअसल भारत की जनता में उपराष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर जिज्ञासा का अभाव देखा जाता है क्योंकि इस चुनावों के लिए मतदाता मंडल केवल संसद में ही सीमित रहता है। उपराष्ट्रपति के चुनाव में केवल लोकसभा व राज्यसभा के सभी सांसद (मनोनीत सांसदों सहित) वोट डालते हैं। इसलिए जनता इस निष्कर्ष पर पहले से ही पहुंच जाती है कि जिस पार्टी या गठबन्धन के कुल सांसदों की संख्या अधिक होगी उसी का प्रत्याशी जीत जायेगा। मगर यह जरूरी नहीं है कि लोकसभा में जिस पार्टी के सांसद अधिक हों उसी के राज्यसभा में भी सांसदों की सर्वाधिक होगी।
दूसरे इन चुनावों में पार्टी अपने सांसदों को अपने प्रत्याशी को ही वोट देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है। क्योंकि इन चुनावों में कोई भी पार्टी व्हिप या संचेतना जारी नहीं कर सकती। इस वजह से परिणाम आने तक राजनैतिक पंडितों की जिज्ञासा जरूर बनी रहती है क्योंकि कई बार सांसद पार्टी मोह त्याग कर दूसरे प्रत्याशी को भी वोट डाल आते हैं। मतदान पूरी तरह गुप्त रखा जाता है और हर मतदाता के वोट की कीमत एक समान एक वोट की होती है और वह प्रत्याशियों की संख्या देख कर अपना वरीयता क्रम का वोट डाल सकते हैं। अपनी पहली, दूसरी व तीसरी वरीयता भी मतदाता इस चुनाव में करते हैं। वरीयता का निर्धारण प्रत्याशियों की संख्या देख कर तय होता है। भारत का चुनाव आयोग ही इस चुनाव का संचालन करता है और बताता है कि विजयी होने के लिए कुल सांसदों की संख्या के आधे से एक वोट अधिक पर विजयश्री मिलेगी।
लोकसभा में कुल 545 व राज्यसभा में कुल 245 सांसद होते हैं। मगर वर्तमान में कुछ सीटें खाली भी पड़ी हुई हैं अतः चुनाव आयोग संख्या को देख कर ही विजयी बिन्दू तय करता है। इस बार उपराष्ट्रपति चुनाव में सत्तापक्ष की तरफ से अपनी पार्टी के तपे हुए नेता श्री सी.पी. राधाकृष्णन को प्रत्याशी बनाया गया गया है। लोकसभा में भाजपा के कुल सांसद 240 हैं जबकि इसके गठबन्धन में शामिल जद (यू) व तेलगूदेशम को मिला कर यह संख्या 293 होती है जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस की अगुवाई वाले इंडिया गठबन्धन के लोकसभा सांसदों की संख्या 240 के करीब जाकर बैठती है। इस गठबन्धन की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर न्यायाधीश श्री बी. सुदर्शन रेड्डी को प्रत्याशी बनाया गया है। राज्यसभा में भाजपा व इसके गठबन्धन एनडीए के सदस्यों की संख्या इंडिया गठबन्धन से ज्यादा है। इस समीकरण को देखते हुए कहा जा सकता है कि विजयश्री राधाकृष्णन की ही होनी चाहिए। मगर विपक्षी दल उम्मीद कर रहे हैं कि कुछ सांसद अपना पाला छोड़ कर उनके पाले में आ सकते हैं। इसकी संभावना बहुत कम दिखाई पड़ती है क्योंकि 2002 में जब भाजपा नीत गठबन्धन की वाजपेयी सरकार थी तो उपराष्ट्रपति चुनाव हुआ था। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह उपराष्ट्रपति चुनाव सर्वाधिक दिलचस्प चुनाव माना जाता है क्योंकि इसमें विरोधी गठबन्धन यूपीए की ओर से श्री सुशील कुमार शिन्दे खड़े हुए थे और एनडीए की तरफ से श्री भैरो सिंह शेखावत प्रत्याशी थे।
इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती यह थी कि शेखावत अपनी युवा अवस्था में राजस्थान पुलिस में कांस्टेबल रहे थे और श्री शिन्दे महाराष्ट्र की कचहरी में अर्दली। दोनों ही नेता जमीन से उठ कर राजनीति में चमके थे। विजयी तो श्री शेखावत ही रहे थे मगर राजनैतिक सरगर्मियों ने इसे बहुत दिलचस्प बना दिया था जिसकी तरफ भारत के आम मतदाताओं का ध्यान भी गया था। लेकिन वर्तमान चुनाव भी कम दिलचस्प नहीं होने जा रहे हैं क्योंकि श्री राधाकृष्णन जहां एक उच्च शिक्षा प्राप्त संघ के स्वयंसेवक रहे हैं वहीं श्री रेड्डी न्यायपालिका में प्रगतिशील विचारों के प्रतिपालक कहे जा रहे हैं। वैसे तो हर चुनाव में बहुत पेंचोखम होते हैं मगर उपराष्ट्रपति के चुनाव में सब कुछ सदस्यों की अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा मायने रखती है।