वक्फ बोर्ड संसदीय समिति
भारत के संसदीय लोकतन्त्र में संसदीय समितियों की संसद का काम निपटाने के मामले में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है और इन्हें ‘मिनी संसद’ कहा जाता है।
भारत के संसदीय लोकतन्त्र में संसदीय समितियों की संसद का काम निपटाने के मामले में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है और इन्हें ‘मिनी संसद’ कहा जाता है। इनमें भी जो संयुक्त संसदीय समिति होती है उसकी महत्ता बहुत ज्यादा होती है। एेसी समिति में लोकसभा व राज्यसभा दोनों के सदस्य नामांकित किये जाते हैं। प्रायः संयुक्त संसदीय समिति, इसके अध्यक्ष को छोड़कर 30 सदस्यीय होती है जिसमें 20 सदस्य लोकसभा के व 10 सदस्य राज्यसभा के होते हैं। इनके अलावा एक अध्यक्ष होते हैं जो प्रायः लोकसभा के सदस्य ही होते हैं। 1965 तक भारत में संसदीय समितियां नहीं होती थी। वह स्व. लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमन्त्रित्व का कार्यकाल था। उस समय यह महसूस किया गया कि संसद में रखे गये किसी भी सरकारी विधेयक पर समय सीमा देखते हुए, सदस्यों को इसके सभी पक्षों पर गंभीरता के साथ विचार करने का समय नहीं मिल पाता है अतः क्यों न संसद के दोनों सदनों की अलग-अलग एेसी समितियां बनाई जायें जो किसी भी विधेयक के सभी अनुच्छेदों व धाराओं पर गंभीरता के साथ विचार करके इसका निष्कर्ष सर्वसम्मति से निकालें जिससे संसद के किसी भी सदन में विधेयक को समय सीमा के भीतर पारित करने में किसी को भी शिकायत न रहे। एेसी समितियों में सत्ता व प्रमुख विपक्षी दलों के सदस्य को उनकी संख्या के अनुपात के हिसाब से शामिल किया जाता है। इससे ये समितियां मिनी संसद कहलाती हैं।
संयुक्त संसदीय समिति की महत्ता इसलिए और भी अधिक हो जाती है कि इसके द्वारा समिति में शामिल सत्ता व विपक्ष के सदस्य संसद के दोनों सदनों का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः यह समिति जिस भी विधेयक पर अपना सर्वसम्मत निष्कर्ष निकालेगी वह कमोबेश रूप से दोनों सदनों की ही राय मानी जायेगी और जब यह विधेयक राज्यसभा या लोकसभा में से किसी भी सदन में जायेगा तो इसके पारित होने या न होने में कठिनाई नहीं होगी क्योंकि दोनों सदनों के विद्वान सांसदों ने विधेयक के सब पहलुओं पर गहराई से विचार किया होगा। प्रायः संयुक्त संसदीय समिति के पास बहुत पेचीदा विधेयक ही भेजे जाते हैं अथवा एेसे विधेयक भेजे जाते हैं जिन्हें लेकर सत्ता पक्ष व विपक्ष के सदस्यों के बीच बहुत गंभीर मतभेद किसी भी सदन में विधेयक के पेश करने के अवसर पर उभर कर सामने आये हों। मुस्लिम वक्फ बोर्ड विधेयक भी एेसा ही विधेयक माना गया क्योंकि मोदी सरकार ने पुराने वक्फ बोर्ड कानून में कम से कम 44 संशोधन प्रस्तुत किये। इन संशोधनों पर विपक्षी सांसदों को ही बहुत गंभीर एेतराज नहीं थे बल्कि सत्तारूढ़ गठबन्धन एनडीए के घटक दलों को भी इन पर एेतराज था। खास कर एनडीए में शामिल तेलगूदेशम पार्टी को। यह विधेयक लोकसभा के पिछले सत्र में पेश किया गया था। मगर इसके पेश होते समय ही इसे संयुक्त संसदीय समिति में भेजे जाने का फैसला सरकार ने किया। इसके बाद समिति का गठन किया गया और इसके अध्यक्ष भाजपा के सांसद श्री जगदम्बिका पाल बनाये गये। अब इन जगदम्बिका पाल पर विपक्षी सदस्य आरोप लगा रहे हैं कि वह समिति की बैठक आयोजित करने से लेकर इसमें विचारार्थ रखे गये विषयों तक पर मनमानी चला रहे हैं और विपक्षी सांसदों की बात नहीं सुन रहे हैं।
श्री पाल संसदीय मामलों के बहुत जानकार माने जाते हैं। वह उत्तर प्रदेश से सांसद हैं और इस राज्य के 90 के दशक में 18 घंटे के विवादास्पद मुख्यमन्त्री भी रह चुके हैं। उनसे एेसे व्यवहार की अपेक्षा कोई नहीं कर सकता उनका अभी तक का काफी जीवन कांग्रेस पार्टी में ही बीता है और वह उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। भाजपा में वह 2014 के बाद ही आये हैं। श्री पाल पहले भी कई संसदीय समितियों के सदस्य रह चुके हैं और भलीभांति जानते हैं कि समितियों का कामकाज सर्वसम्मति से ही चलता है। मगर उनकी सदारत में चल रही समिति की पिछली बैठक में सत्ता पक्ष भाजपा के एक सदस्य व तृणमूल कांग्रेस के सदस्य श्री कल्याण बनर्जी के बीच इतनी गर्मागरम बहस हुई कि श्री बनर्जी ने मेज पर कांच की बोतल ही तोड़ डाली। जिस समिति से हमें सर्वसम्मत निर्णय की अपेक्षा है उसमें अध्यक्ष के रहते हुए एेसी घटना का होना शर्मनाक ही कहा जायेगा। मगर विपक्षी सांसदों ने श्री पाल के रुख को लेकर लोकसभा अध्यश्र से मंगलवार को भेंट की और श्री पाल की शिकायत की।
अध्यक्ष ओम बिरला ने उनकी शिकायतों को धैर्यपूर्वक सुना और कहा कि किसी भी संसदीय परंपरा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। संसदीय समितियों की महान परंपरा रही है। इसमें मतभेदों का सर्वसम्मत हल निकाला जाता है। इनमें सदस्यों के बीच किसी मुद्दे पर मतदान नहीं होता है और मतभेदों को आपसी विचार-विमर्श से दूर किया जाता है। यह परंपरा हमने भारत की संविधान सभा से ली है जिसने पूरा संविधान ही इसके तीन सौ से कुछ कम सदस्यों के बीच किसी भी मुद्दे पर मतभेद होने की सूरत में बिना किसी मतदान कराये ही सर्वसम्मत फैसला किया और हमें दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान दिया। 30 सदस्यीय समिति में कुल 13 सदस्य विपक्ष के हैं, जिनमें नौ लोकसभा के और चार राज्यसभा के हैं। अतः वक्फ बोर्ड संयुक्त समिति को अपना फैसला सर्वसम्मति से देने के लिए आपसी लाॅग-डांट से दूर रहना होगा। आम जनता को यह भी जानना होगा कि असीदुद्दीन ओवैसी अपनी पार्टी इत्तेहादे मुसलमीन के अकेले लोकसभा सदस्य हैं, मगर उन्हें समिति में शामिल किया गया है जिससे वह वक्फ बोर्ड विधेयक के मामले में मुस्लिमों का पक्ष खुलकर रख सकें। इसीलिए समितियों को मिनी संसद कहा जाता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com