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हम मूर्खता की हदें पार कर रहे हैं

मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत 1707 में हो गई थी। उसकी मौत एक बूढ़े-थके हुए….

10:25 AM Mar 26, 2025 IST | Chander Mohan

मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत 1707 में हो गई थी। उसकी मौत एक बूढ़े-थके हुए….

मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत 1707 में हो गई थी। उसकी मौत एक बूढ़े-थके हुए आदमी की थी जिसने खुद स्वीकार किया था कि उसने बड़े पाप किए हैं। यह भी लिखा था कि ‘ख़ुदा किसी को बादशाह न बनाए’। दक्षिण में लम्बा सैनिक अभियान उसे खोखला छोड़ गया था। उसे महाराष्ट्र में औरंगाबाद से कुछ दूर खुलताबाद में एक साधारण कब्र में दफ़नाया गया जिसके उपर छत भी नहीं थी, न ही दीवार है। बताया जाता है कि औरंगजेब खुद ऐसा चाहता था और अपनी वसीयत में लिख गया था। संगमरमर का फ़र्श और जाली बाद में लगाए गए नहीं तो पहले उसके दफ़नाए जाने की जगह मिट्टी का ढेर ही था। आज 318 साल के बाद उसकी कब्र को लेकर उग्र विवाद उठा गया है। नागपुर में विशेष तौर पर भारी बवाल मचा, खूब दंगा हुआ, आगज़नी हुई और 30 से अधिक पुलिस कर्मी घायल हो गए। एक व्यक्ति मारा गया। क्या हम पागल हो गए हैं? जो शख्स 318 साल पहले ख़त्म हो चुका है उसे लेकर आज भिड़ंत हो रही है?

औरंगजेब क्या था यह सब जानते है। वह एक क्रूर शासक था जिसके 50 वर्षों में हिन्दुओं का जमकर उत्पीड़न किया गया। वह अपने पिता शाहजहां को क़ैद कर और बड़े भाई दारा शिकोह जिसे शाहजहां उत्तराधिकारी बनाना चाहता था, को कतल करवा गद्दी पर बैठा था। वह एक निर्मम निरंकुश शासक था जिसने शरिया लागू किया और हिन्दुओं पर जज़िया लगा दिया। उसने कई मंदिरों को नष्ट करवाने का आदेश दिया जिनमें वाराणसी और मथुरा के मंदिर शामिल हैं। औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का सर कलम करवाया। उसने शिवाजी महाराज के पुत्र सम्भाजी महाराज को 40 दिन यातनाएं देकर मार डाला। गुरु तेगबहादुर की तरह सम्भाजी पर भी मजहब बदलने के लिए दबाव डाला गया, उनके इंकार करने के बाद उनका सर कलम कर दिया गया। कई ऐतिहासकार दावा करते हैं कि उसने कुछ मंदिरों को दान दिया था। यह हो सकता है। पर अगर उसका पूरा कार्यकाल देखा जाए तो उसके बराबर का क्रूर शासक नहीं हुआ। यह स्वीकार करते हुए इस मांग का तर्क नहीं समझ आया कि उसकी कब्र को खोद डाला जाए। बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कुछ शूरवीरों ने तो उसके पुतले को आग लगा कर उसकी लाठियों से खूब पिटाई की। इन शूरवीरों ने सदियों का बदला ले लिया!

हम मूर्खता की हदें पार कर रहे हैं। पहली चिंगारी बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं ने लगाई। वह कब्र को उखाड़ने की मांग कर रहे थे, जबकि वहां गए पत्रकार बताते हैं कि ‘गिराने, ढाहने वाला कुछ नहीं है’। जलती पर तेल कुछ तथा कथित हिन्दू नेताओं ने डाल दिया। एक की घोषणा थी कि वह अयोध्या की तर्ज़ पर खुलताबाद में कार सेवा करेंगे और उनके कार्यकर्ता औरंगजेब की कब्र को उठा कर समुद्र में फेंक देंगे। महाराष्ट्र के मंत्री नितेश राणा की धमकी थी कि “हम बाबरी दोहराएंगे’। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का कहना था कि फ़िल्म ‘छावा’ में औरंगजेब द्वारा छत्रपति सम्भाजी को दिखाई गई यातनाओं से लोगों की भावनाएं भड़क गईं। यह भी आरोप लगाया कि यह “यह पूर्व नियोजित साज़िश है”। अगर यह सही है तो सवाल है कि आपकी सरकार इस स्थिति से निबटने के लिए तैयार क्यों नहीं थी? अपनी सरकार में और अपने ‘परिवार’ में जो भड़काने की कोशिश करते रहे उन्हें रोका क्यों नहीं? विधानसभा में उन्होंने चेतावनी दी कि वह औरंगजेब के ‘महिमामंडन’ को बर्दाश्त नहीं करेंगे। पर ऐसा कर कौन रहा है? अगर एक सपा नेता ने कुछ कह भी दिया तो क्या इतना बड़ा बवाल कि 1 व्यक्ति मारा गया, 30 पुलिस वाले घायल हो गए और नागपुर के 11 थानों में कफ्यू लगाने की नौबत आ गई, जायज़ है? फिर अफ़वाह फैलाई गई कि धार्मिक चिन्ह की अवमानना की गई है। उसके बाद पैट्रोल बम, तलवारों और लाठियों से हिन्दू घरों पर हमले कर दिए गए। निश्चित तौर पर यह एक कुशल प्रशासन और स्वस्थ समाज की तस्वीर पेश नहीं करता। महाराष्ट्र वह प्रदेश है जहां हर साल लगभग 1000 किसान आत्महत्या करते हैं। यह हक़ीक़त परेशान क्यों नहीं करती?

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का कहना था कि जिन्होंने शरारत की है उन्हें माफ़ नहीं किया जाएगा। अच्छी बात है। जिन्होंने दंगा किया उन पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, पर क्या वह उन पर भी कार्रवाई होगी जो भावनाएं भड़काते रहे और उत्तेजना देते रहे? सरकार तो सबकी होती है। महाराष्ट्र हमारे सबसे प्रगतिशील प्रदेशों में गिना जाता है। यह उद्योग का पॉवर हाउस है। लोग उदार हैं और सहिष्णु हैं,पर अब वहां भी साम्प्रदायिकता के ज़हर का प्रसार हो रहा लगता है। हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग दुकानों की मांग की जा रही है। पहले दोनों समुदाय इकट्ठा मिलकर त्यौहार मनाते थे, अब होली पर कहा गया कि मुसलमान नहीं मना सकते। त्यौहार जो लोगों को एक साथ लाते थे, वह अब बांट रहे हैं। धार्मिक जुलूस अब भद्दे शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बन रहे हैं। रामनवमी पर टकराव हो चुका है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 2024 में 2023 की तुलना में 84 प्रतिशत अधिक दंगे हुए हैं। महाराष्ट्र तो वह प्रांत है जहां सबसे अधिक उद्योग है, जहां बॉलीवुड भी है जो केवल प्रतिभा देखता है मज़हब नहीं। क्या अगले पांच वर्ष में यह सब कुछ बदल जाएगा? क्या यह नहीं सोचा कि निवेश पर क्या असर पड़ेगा? और दुनिया, विशेष तौर पर इस्लामी देश को क्या संदेश जा रहा है? कि वह तो मंदिर बनाने की इजाज़त दे रहे हैं, पर हम पुरानी क़ब्रें उखाड़ना चाहते हैं?

औरंगजेब की मौत के 111 साल बाद तक मराठा साम्राज्य रहा। इसका अंत 1818 में पेशवा बाजीराव की पराजय से हुआ। यह पराजय मुग़लों के हाथ से नहीं, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों हुई। इससे दो बातें निकलती हैं। एक, अपने सौ साल से अधिक के शासन में इन मराठा शासको ने औरंगजेब की कब्र को हटाने या उसके अनादर का कोई प्रयास नहीं किया। वह बदला ले सकते थे, पर अधिक समझदार और परिपक्व थे। दूसरा, हमारे देश में अतीत की ज़्यादतियों का बदला लेने का बड़ा प्रयास किया जाता है, पर किसी का ग़ुस्सा अंग्रेजों पर क्यों नहीं फूटता? सब झगड़ा हिन्दू-मुसलमान है जबकि इस देश को लूटने वाले असलियत में अंग्रेज थे। शशि थरूर ने अपनी किताब एन इरा ऑफ डार्कनैस में बताया है कि जिस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर नियंत्रण किया उस समय विश्व की जीडीपी में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था। पर उनके जाने के समय यह गिर कर 3 प्रतिशत रह गया था। अमरीकी ऐतिहासकार विल डुरेंट ने लिखा है कि “ब्रिटेन द्वारा भारत का जानबूझकर कर बहाया गया खून …सारे इतिहास में सबसे बड़ा अपराध है”। पर क्या किसी ने अंग्रेजों के पुतलों को लाठियों से पिटते देखा है? या चर्चिल की तस्वीर को उसी तरह जूतों से कुचलते देखा है जैसे हमारे शूरवीरों ने औरंगजेब की तस्वीरों के साथ किया है?

इस सारे घटनाक्रम ने देश की छवि ख़राब की है। हमारा मजाक बन रहा है। औरंगजेब ने हिन्दू पहचान पर हमला किया था, पर यह 318 साल पुरानी घटना है। क्या तीन शताब्दी पुरानी घटना के कारण हम देश में आग लगाने को तैयार हैं? जो कुछ हुआ वह इतिहास में दर्ज है। देश का बच्चा-बच्चा इससे वाकिफ हैं फिर इसको लेकर नफ़रत क्यों बढ़ाई जा रही है? इससे किसका फ़ायदा होगा? अगर हम पुराने ज़ख्म कुरेदते रहे तो हम एक राष्ट्र की तरह कभी भी स्वस्थ नहीं होंगे। घटनाक्रम पर नापसंदगी व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रवक्ता का कहना था कि ‘औरंगजेब अब प्रासंगिक नहीं है’। मोहन भागवत पहले भी सख्त शब्दों में ऐसी घटनाओं की निन्दा कर चुके हैं। उनका कहना है कि हिन्दू और मुसलमान का डीएनए एक है और ‘हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग नहीं ढूंढना चाहिए’। सही बात है क्योंकि अगर हम अतीत को उखाड़ते रहे तो भविष्य को प्रभावित कर जाएंगे।

पर सवाल यह भी है कि जो समझदारी की बात भागवत और भाजपा का शिखर नेतृत्व कहता है उसका असर नीचे तक क्यों नहीं पहुंचता? क्या इसलिए कि फटकार लगाने के सिवाय उचित कार्यवाही नहीं होती? या यह कि जो जिन्न बोतल से निकाला चुका है वह वापस लौटने को तैयार नहीं? कारण कुछ भी हो, इस मूर्खता को रोकने की तत्काल ज़रूरत है। हम वह क्यों करना चाहते हैं जिसके लिए औरंगजेब इतना बदनाम है, अर्थात धार्मिक स्थल पर हमला ? याद रखिए कि शिवाजी ने कभी भी धर्म पर आधारित शासन नहीं किया। उनकी सरकार और सेना में उच्च पदों पर मुसलमान भी थे। मार्च 2001 में तालिबान के नेतामुल्ला मुहम्मद उमर के आदेश पर अफगानिस्तान में सिल्क रूट पर स्थित बमियान में बुद्ध की दो विशाल मूर्तियों (55 मीटर और 38 मीटर ऊंची) को तोपों से उड़ा दिया था। हमें उस तरफ़ नहीं जाना। हमें यहां तालिबान का छोटा संस्करण नहीं चाहिए। न ही हम हिन्दू-पाकिस्तान बनना चाहते हैं। हमें वर्तमान में रहना है और भविष्य की तरफ़ देखना है, अतीत से सीखना है उसे कुरेदना नहीं।

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