हम भारत के लोग और ‘एक वोट’ का अधिकार
भारत के चुनाव आयोग की पूरे विश्व में विशिष्ट पहचान और प्रतिष्ठा है। दुनिया के जितने भी लोकतान्त्रिक देश हैं वे सभी मानते हैं कि भारत के लोकतन्त्र को गतिमान रखने के लिए चुनाव आयोग हर पांच साल बाद मतदान की जो कवायद भारत राष्ट्र के भीतर और इसके विभिन्न राज्यों में करता है वह दुनिया की सबसे बड़ी प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया है। इस सन्दर्भ में भारत के लोगों ने 26 जनवरी 1950 को जो संविधान अपने ऊपर लागू किया उसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मिला एक वोट का अधिकार सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक अधिकार है जिसका उपयोग करके हम अपनी मन पसन्द की सरकार चुनते हैं। इस सम्बन्ध में भारत के भीतर चुनाव आयोग जो भी कार्य करता है उस पर पूरी दुनिया की नजर रहती है। इसके साथ ही चुनाव आयोग अपना कार्य केवल संविधान से शक्ति लेकर ही करता है।
भारतीय संविधान चुनाव आयोग को स्वतन्त्र व स्वायत्त दर्जा देता है जिससे वह भारत की दल गत राजनैतिक प्रणाली को स्वच्छ व पारदर्शी रख सके। चुनाव आयोग का मुख्य कार्य सभी चुनाव पूरी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता के साथ कराने का है। वह जब किसी विधानसभा या लोकसभा के चुनाव कराता है तो उसे इस बात से कोई मतलब नहीं रहता कि कौन सा राजनैतिक दल सत्ता मे है और कौन सा विपक्ष में। उसकी नजर में सरकार पर काबिज राजनैतिक दल और विपक्ष में बैठी कोई भी पार्टी बराबर होती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को इसीलिए स्वतन्त्र सत्ता दी जिससे वह चुनाव कराने के अपने काम को पूरी निष्पक्षता के साथ अंजाम दे सके। चुनाव आयोग यह कार्य सीधे आम मतदाता के प्रति जवाबदेह रहते हुए करता है। उसके और मतदाता के बीच में सरकार कहीं नहीं आती है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि चुनाव में हर एक आदमी भाग ले सके। वह दूर-दराज के दुर्गम इलाकों तक में मतदाता के वोट डालने के इन्तजाम करता है। मगर बिहार में चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर जो पूरे देश में कोहराम मचा हुआ है उसका सत्य यही है कि चुनाव आयोग प्रत्येक मतदाता की विश्वसनीयता जांचने की कार्रवाई कर रहा है। मगर इस क्रम में वह कहीं मतदाता से दूर न चला जाये क्योंकि इसने राज्य के मतदाताओं की मतदाता सूची के पुनरीक्षण का जो काम बिहार में चला रखा है वह विपक्षी दलों के निशाने पर है। इन राजनैतिक दलों का मुख्य आरोप है कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण करने के बहाने आयोग उनकी नागरिकता की जांच कर रहा है।
बिहार में चुनाव आयोग ने 2003 की मतदाता सूची को शंका से ऊपर रखा है मगर इसके बाद बने मतदाताओं से वह अपनी पुख्ता पहचान के प्रपत्र जमा कराने की मांग कर रहा है। आयोग ने 11 एेसे दस्तावेजों की फेहरिस्त जारी की है जिनमें से किसी एक को जमा करना अनिवार्य होगा। मगर इन पहचान प्रपत्रों में न तो आधार कार्ड को शामिल किया गया है और न ही राशन कार्ड या वोटर पहचान पत्र को। जो 11 प्रपत्र हैं उनमें स्थायी निवास से लेकर सरकारी पेंशन पाने का प्रमाणपत्र भी है और अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रमाणपत्र भी शामिल है। इसके अलावा भी अन्य नौ प्रमाणपत्र एेसे हैं जिनसे किसी व्यक्ति की नागरिकता का सबूत मिलता है। गौर से देखा जाये तो इसमें कोई हर्ज भी नजर आता है क्योंकि केवल भारतीय नागरिक को ही हमारा संविधान वोट देने का अधिकार देता है। मगर इसमें पेंच यह है कि चुनाव आयोग का कार्य नागरिकता जांचने का नहीं है। यह कार्य भारत सरकार का गृह मन्त्रालय करता है। उसका काम हर वैध मतदाता को मतदान के लिए प्रेरित करने का होता है। लेकिन दूसरी तरफ केवल भारतीयों को ही यह हक है कि हर पांच साल बाद वे अपनी मनमर्जी की सरकार अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करके चुनें। लोगों को अधिक से अधिक संख्या में मतदान करने के लिए प्रेरित करना भी चुनाव आयोग का काम है।
इस बाबत वह हर चुनाव से पहले मतदाताओं को विभिन्न प्रचार माध्यमों से सन्देश देता है कि वे बड़ी से बड़ी संख्या में अपने मनपसन्द प्रत्याशी को वोट डालने जायें जिससे भारत का लोकतन्त्र मजबूत हो सके। इस दृष्टि से देखा जाये तो भारत के लोकतन्त्र को खाद-पानी देने का काम भी चुनाव आयोग का ही है। लेकिन बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण के सन्दर्भ में यह मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय में भी पहुंच गया। न्यायालय में इस बाबत याचिकाएं विपक्षी दलों द्वारा ही दाखिल की गई थीं। देश की सर्वोच्च अदालत ने विपक्ष की इस मांग को कि, बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण कार्य को स्थगित किया जाये, खारिज करते हुए साफ किया कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। अतः उसके काम में दखल देना उचित नहीं है मगर यह जरूर कहा कि चुनाव आयोग राशन कार्ड व आधार कार्ड को भी 11 पहचान प्रपत्रों में शामिल कर ले तो बेहतर होगा। दरअसल मतदाता सूची पुनरीक्षण का कार्य चुनाव आयोग प्रायः हर लोकसभा चुनाव से पहले कराता है। अभी तक वह यह कार्य 1952 के प्रथम चुनावों से लेकर 14 बार हो चुका है। मतदाता सूची के पुनरीक्षण का मन्तव्य यही रहता है कि किसी भी वैध मतदाता का नाम इस सूची से बाहर न रह सके। साथ ही यदि कोई मतदाता फर्जी है तो उसका नाम सूची से बाहर किया जाये।
स्वतन्त्रता के बाद हमारी आबादी 33 करोड़ से बढ़ कर 140 करोड़ से भी ऊपर जा चुकी है। वर्ष 2024 के चुनावों में देश में कुल मतदाताओं की संख्या 97 करोड़ के आसपास थी जिसमें से लगभग 67 करोड़ वयस्क मतदाताओं ने अपने वोट का प्रयोग किया था। इतनी बड़ी प्रक्रिया को शान्तिपूर्ण ढंग से कराना कोई आसान काम भी नहीं है। जाहिर है कि चुनावों के समय आचार संहिता लागू होने के बाद प्रशासन की बागडोर चुनाव आयोग के हाथ में ही आ जाती है और वह चुनावों को विभिन्न सरकारी महकमों से लाखों कर्मचारी लेकर सम्पन्न करता है। जरा अन्दाजा लगाईये कि पिछले लोकसभा चुनाव में पूरे देश में कुल 12 लाख मतदान केन्द्र स्थापित किये गये थे जिनमें 55 लाख ईवीएम मशीनों का उपयोग किया गया था। इन मतदान केन्द्रों पर 15 लाख कर्मचारियों को तैनात किया गया था और कई चरणों में लोकसभा चुनावों को सम्पन्न कराया गया था।
भारत का संविधान कहता है कि हर भारतवासी के पास वोट का अधिकार है अतः चुनाव आयोग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर सुदूर समुद्र तट पर रहने वाले मतदाताओं का भी पंजीकरण करता है और चुनाव के मौके पर उन्हें अपना वोट डालने की भी सुविधा प्रदान करता है। उदाहरण के लिए गुजरात के गिर वनों में बहुत दूर एक शिव मन्दिर में अकेले पुजारी जी का ही 2019 तक वोट था। उनका एक वोट लेने के लिए चुनाव आयोग ने अपनी पूरी टीम उस वन में भेजी थी और उनका वोट डलवाया था। इसी प्रकार हिमाचल व जम्मू-कश्मीर या गढ़वाल अंचल के दुर्गम गांवों तक पहुंचने के लिए आयोग अपनी टीम खच्चर, हाथी या अन्य किसी वाहन से गांवों तक भेजता है और वैध मतदाताओं से उनके मनपसन्द प्रत्याशी को वोट डलवाता है। चुनाव आयोग का मूल मन्त्र यही है कि एक भी वैध मतदाता छूटना नहीं चाहिए। अतः बिहार में जो विपक्षी दल मतदाता सूची के पुनर्रीक्षण पर सवाल उठा रहे हैं उन्हें ये तथ्य भी ध्यान में रखने चाहिए और चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी कार्रवाई समावेशी है न कि मतदाताओं को अलग-थलग करने वाली। मगर बिहार का सच यह भी है कि इसके सीमांचल के चार मुस्लिम बहुल जिलों में आधार कार्डों की संख्या कुल आबादी की 120 प्रतिशत के लगभग है। इसलिए इन जिलों में केवल आधार कार्ड के आधार पर यदि मतदाता सूची तैयार होगी तो उसमें फर्जी मतदाताओं के नाम भी हो सकते हैं। इस विसंगति को दूर करना भी चुनाव आयोग का काम है।