ये कैसी कार्य संस्कृति है?
इंफोसिस के संस्थापक उद्योगपति नारायणमूर्ति के बाद एल एंड टी के चेयरमैन…
इंफोसिस के संस्थापक उद्योगपति नारायणमूर्ति के बाद एल एंड टी के चेयरमैन सुब्रह्मण्यम चाहते हैं कि कर्मचारी अधिक घंटे काम करें। नारायणमूर्ति की इच्छा एक सप्ताह में 70 घंटे काम करवाने की थी तो वहीं सुब्रह्मण्यम चाहते हैं कि कर्मचारी 90 घंटे काम करें। हो सकता है कई और उद्योगपति भी इसी दिशा में सोच रहे हों, लेकिन अभी किसी और का सार्वजनिक बयान नहीं है। पर दुनिया के समृद्ध देशों में तो लोग 33 से 40 घंटे काम करके खुश हैं। वो इकोनॉमीज तरक्की भी कर रही हैं। सवाल यह है कि देश के शीर्ष उद्योगपतियों की औसत कर्मचारी को लेकर सोच क्या है? उन्हें कामगार चाहिए अथवा जरखरीद गुलाम चाहिए? बहुराष्ट्रीय कंपनी इंफोसिस के संस्थापक उद्योगपति नारायणमूर्ति ने भी कुछ साल पहले बयान दिया था कि यदि देश को तरक्की करनी है, तो कर्मचारियों को सप्ताह में कमोबेश 70 घंटे काम करना चाहिए। एलएंडटी के चेयरमैन की इच्छा 90 घंटे के कर्मचारी की ही नहीं है, बल्कि वह कामगारों के घर में ताक-झांक कर तंज भी कसते हैं-घर में बैठकर क्या करोगे? कितनी देर तक पत्नी को निहारोगे और पत्नी तुम्हें निहारेगी? चलो, दफ्तर आओ और काम करो।
वर्क लाइफ बैलेंस की बात करें, तो इंडिया में वैसे भी ये बहुत कम है। अगर आप मेट्रो, लोकल ट्रेन या बस में ऑफिस जाने के लिए ट्रैवल करते हैं, तो आपने देखा होगा कि रोजाना ऑफिस टाइम में कितने लटके हुए चेहरे दिखते हैं। ड्रीम जॉब भी लोगों के लिए ड्रीम नहीं रह जाती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग 38 घंटे ही काम करते हैं। इंटरनेशनल लेवल ऑर्गेनाइजेशन के डेटा के आधार पर विकसित देशों में लोग कम घंटे काम करते हैं। लक्समबर्ग जिसे दुनिया से सबसे समृद्ध देशों में से एक माना जाता है, वहां लोग 33 घंटे प्रति हफ्ते काम करता है। ऐसे में अहम प्रश्न यह भी है कि आज का कर्मचारी क्या ‘जंगली प्राणी’ है, जिसके कुछ पारिवारिक दायित्व ही नहीं हैं? यदि वह सप्ताह में 90 घंटे नौकरी ही करेगा, तो रोजाना की नींद लेने, रोजाना के कार्यों से निवृत होने, नाश्ता और डिनर करने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, बीमार माता-पिता को डॉक्टर तक ले जाने, घर से दफ्तर और दफ्तर से घर लौटने के घंटों के बाद उसके पास अपने लिए कितना समय बचेगा? शायद जिंदगी ही छोटी पड़ जाए! क्या सुब्रह्मण्यम ने अपनी जिंदगी के बारे में कभी आत्मचिंतन किया है?
लार्सन एंड टुब्रो (एल एंड टी) एक बहुराष्ट्रीय समूह है और देश की शीर्ष 100 कंपनियों में उसका नाम आता है। कंपनी में 59,000 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। उनके अलावा, दिहाड़ीदार मजदूर भी कंपनी की परियोजनाओं से जुड़े रहते हैं। कंपनी का सालाना टर्नओवर कई लाख करोड़ रुपए का है। ऐसे औद्योगिक समूह के चेयरमैन सुब्रह्मण्यम की इच्छा है कि कंपनी के कर्मचारी सप्ताह में 90 घंटे काम करें। वे रविवार को भी दफ्तर आएं। एक शीर्ष उद्योगपति का यह विचार निरर्थक नहीं हो सकता। उन्होंने बेमतलब ही यह विचार व्यक्त नहीं किया है। बेशक वह अत्यंत प्रतिभाशाली, बौद्धिक, मेहनती, अन्वेषक उद्योगपति हैं, जिन्होंने इतनी बुलंदियां छुई हैं, लेकिन उनकी इच्छा में कई सवाल भी निहित हैं। कर्मचारी 90 घंटे, सातों दिन, काम करें, लेकिन वेतन वही रहेगा। सालाना बढ़ोतरी भी औसतन 1-7 फीसदी ही होगी, लेकिन चेयरमैन का वेतन 51.05 करोड़ रुपए सालाना है। अर्थात 14 लाख रुपए हर रोज..! उनकी वेतन-वृद्धि भी 43 फीसदी है। औसतन कर्मचारी का सालाना वेतन 9.7 लाख रुपए है और महिला कर्मचारी का 6.7 लाख रुपए ही मिलते हैं।
एक हफ्ते में 168 घंटे होते हैं। इसमें से अगर आप 90 हटा दें तो बचे 78 घंटे। एक इंसान को 6 से 8 घंटे की नींद चाहिए। अगर आप एवरेज 6 घंटे भी लेकर चलें, तो हफ्ते के 42 घंटे आप सोते हैं। अब 78 में से 42 घटा दीजिए तो बचे 36 घंटे। इसमें नहाना, खाना, तैयार होना और ऑफिस आने-जाने का टाइम निकाल दें, तो दिन के कम से कम 4 घंटे तो इस सबमें निकल जाएंगे। इसका मतलब 7 दिनों के हो गए 28 घंटे। अब बचे 8 घंटे। अब पूरे हफ्ते में 8 घंटे आप या तो अपने घर वालों से बात कर लें, या फिर कहीं घूमने चले जाएं या किसी एक दो दिन एक्स्ट्रा सो लें।
अब गौर कीजिए कि इस कैल्कुलेशन में कहीं भी फोन पर बात करने, एंटरटेनमेंट या रील्स देखने का समय नहीं है। जब आप लगातार हर हफ्ते 90 घंटे काम करेंगे, तो आपका शरीर हमेशा स्ट्रेस में रहेगा। आपको लगेगा कि इससे शरीर का नेचुरल स्ट्रेस रिस्पॉन्स सिस्टम कम हो रहा है। इससे स्ट्रेस और भी ज्यादा बढ़ता जाएगा। एक ऐसा प्वाइंट भी आ सकता है कि आपको लगे कि आप बर्नआउट हो रहे हैं। इससे इमोशनल समस्याएं भी हो सकती हैं और मेंटल प्रेशर जो बढ़ेगा वो तो बढ़ेगा ही। इससे आपका काम करने में मन भी नहीं लगेगा और अगर कंपनी के हिसाब से बोला जाए, तो कर्मचारियों का इंटरेस्ट और भी कम होने लगता है। ऐसे में उनकी प्रोडक्टिविटी कम होती है।
अगर कोई व्यक्ति लंबे समय तक काम कर रहा है तो उसकी कॉग्निटिव एबिलिटीज यानी सोचने-समझने की शक्ति कम होगी। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की सोचने, समझने, याद रखने, निर्णय लेने, या समस्या सुलझाने जैसी मानसिक क्षमताएं कम होने लगती हैं। पहले अगर आप कोई काम एक बार में कर लेते थे, तो उसे करने में आगे और समय लगेगा। आप ज्यादा देर किसी कर्मचारी को बैठाकर उससे प्रोडक्टिविटी की उम्मीद नहीं कर सकते। 90 घंटे काम करने का मतलब है कि आपको पर्सनल काम जैसे नींद के लिए समय नहीं मिलेगा। आप हर दिन 6 घंटे सोएं ऐसा मुमकिन नहीं है। इससे ब्रेन आसानी से इमोशन्स को कंट्रोल नहीं कर पाएगा। इसमें सही तरह से प्रोसेस फॉर्मेशन भी नहीं होगा। ऐसे में एंग्जायटी, डिप्रेशन, चिड़चिड़ापन आदि बढ़ जाएगा। समझ लीजिए कि आप किसी जनरेटर को आधे फ्यूल पर चला रहे हों, बिल्कुल वैसा ही असर होगा।
इससे मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर बढ़ेंगे और पैनिक अटैक भी ज्यादा होंगे। नतीजा होगा टॉक्सिक माहौल। घर और बाहर दोनों जगह एम्प्लॉई खराब महसूस करेगा। इससे होगा यह कि वर्क लाइफ बैवेंस खत्म होता जाएगा। आप घर पर भी काम का प्रेशर ही महसूस करेंगे और रिलेशनशिप और सेल्फ केयर जैसी जरूरी चीजों को भूल जाएंगे। आप सोशल आइसोलेशन पर पहुंच जाएंगे और आपके फैमिली डायनेमिक्स अच्छे नहीं होंगे। चिकित्सा के विभिन्न शोधों के निष्कर्ष हैं कि यदि मनुष्य लगातार काम ही करता रहेगा, तो वह हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक, मानसिक असंतुलन सरीखी बीमारियों का शिकार हो सकता है। एक रपट के मुताबिक, भारत में करीब 62 फीसदी लोग बर्नआउट (तनाव) का शिकार होते हैं। आपको शायद इस बात का अंदाजा ना हो, लेकिन ज्यादा घंटे काम करने से प्रोडक्टिविटी भी कम हो जाती है। इसे लेकर कई तरह की रिसर्च की गई है और डॉक्टर भावना का कहना भी है कि मैक्सिमम प्रोडक्टिविटी तभी रहती है जब आप 35 से 40 घंटे प्रति हफ्ते काम करें। ओवरवर्किंग से मानसिक और शारीरिक समस्याओं से दोचार होना पड़ता है।
हमारे श्रम-कानून में भी प्रावधान है कि कामगार से सप्ताह में 48 घंटे से अधिक श्रम नहीं करा सकते, लिहाजा जो सुब्रह्मण्यम ने कहा है, क्या वह कानून का उल्लंघन नहीं है? एलएंडटी समूह के जानकार विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनी में जो कर्मचारी फील्ड, साइट पर काम कर रहे हैं, वे औसतन 12 घंटे हर रोज से ज्यादा काम कर रहे हैं। यदि एक रविवार को काम किया, तो कर्मचारी अगले रविवार भी आधा दिन काम करेगा। यह कैसी कार्य-संस्कृति है? उद्योगपतियों को इस तरह की बयान देने से परहेज करना चाहिए। श्रम शक्ति खुशहाल और स्वस्थ होगी तो वर्तमान में निर्धारित समय में भी वह उत्पादन को बढ़ा सकती है। इस तरह की शोषणवाली प्रवृति को बढ़ावा देने वाली मानसिकता से परहेज बरतना ही श्रेयस्कर होगा।