चौतरफा शोर में कहां-कहां जाएं हम?
चौतरफा शोर का माहौल है। कभी-कभी लगता है हम शांत जि़ंदगी जीने का
चौतरफा शोर का माहौल है। कभी-कभी लगता है हम शांत जि़ंदगी जीने का सलीका भी भूल चुके हैं। इस बारे में जब भी मौका मिले, फिल्म अभिनेता अब दिवंगत मनोज कुमार की फिल्म ‘शोर’ को एक बार फिर से देख लें ‘नेट’ पर। वैसे जब भी आप ‘शोर’ की परिभाषा तलाश करेंगे तो यही पाएंगे, ‘अवांछित, अप्रिय और ऐसी हानिकारक ध्वनि जो किसी भी वांछित ध्वनियाें ‘सिग्नल’ को बाधित करती है।’
मगर अधिकांश टीवी एंकर यही मान कर चलते हैं कि ‘शोर’ से ‘टीआरपी’ बढ़ती है। अधिकांश कार्यक्रम भी अब ‘हल्लाबोल’ की तर्ज पर चलते हैं। शोर के पर्यायवाची शब्दों में भी ‘कोलाहल, हंगामा, चीख, भनभनाहट, विस्फोट, गर्जना और अशांति आदि शामिल हैं, मगर इन दिनों ‘शोर’ का भी अपना बाज़ार है। यह शोर अब चाहे अनचाहे हमारी जि़ंदगी का अभिन्न अंग बन गया है। संसद में शोर, मस्जिदों में शोर, टीवी चैनलों पर शोर, केजरीवाल की विपश्यना पर शोर, प्रधानमंत्री मोदी कुछ करें तो शोर, कुछ न करें तो शोर। यानि कुल मिलाकर शोर हमारी जि़ंदगी में इतना अधिक रच-बस गया है कि हम शांत रहना, शांत माहौल में जीना, कमोबेश भूल ही चुके हैं।’
‘शोर’ के इसी मर्म को लेकर जिस फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने वर्ष 1972 में एक फिल्म ‘शोर’ का निर्माण किया था, वही मनोज कुमार लगभग 48 घंटे पूर्व अपनी जीवनयात्रा को समेट कर उस अनंत-शांत लोक की ओर प्रस्थान कर गए हैं जहां शोर के लिए कोई जगह नहीं है। वैसे मनोज कुमार की जि़ंदगी को भी कई बार विवादों से जूझना पड़ा था। ‘आपातकाल’ के मध्य भी उनकी एक िफल्म ‘दस नम्बरी’ का प्रसारण रोका गया था। वस्तुत: श्रीमती इंदिरा गांधी चाहती थीं कि मनोज कुमार ‘आपातकाल’ के पक्ष में भी एक फिल्म बनाएं, मगर मनोज कुमार ने इन्कार कर दिया था। ये यह वही दिन थे जब अभिनेता एवं गायक किशोर कुमार पर भी कुछ प्रतिबंध लगे थे।
इन्हीं दिनों प्रख्यात हिंदी लेखिका कृष्णा सोबती की जन्मशताब्दी मनाई जा रही है। ‘शोर’ सिर्फ बाहर नहीं है, बड़े लोगों के भीतर भी बना है। कृष्णा सोबती और अमृता प्रीतम दोनों ही भारतीय साहित्य में लेखन के स्तर पर ‘शिखर’ शख्सियतों में शुमार थीं। दोनों की पृष्ठभूमि पंजाब की थी। दोनों के जीवन में भारत-विभाजन की परिस्थितियों ने गहरा असर डाला था। मगर दोनों ही एक शब्द ‘जि़ंदगीनामा’ को लेकर विवादों के शोर में एक दूसरी से जूझती रहीं। लेखन की विलक्षण ऊंचाइयों पर जाकर भी सोबती व अमृता अदालतों में 26 साल तक एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ती रहीं।
वर्ष 1984 में कृष्णा सोबती ने अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘हरदत्त का जि़ंदगीनामा’ के प्रकाशन के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया था।
उनका दावा था कि अमृता प्रीतम ने उनके उपन्यास ‘जि़ंदगीनामा’ के शीषक के समान शीर्षक का इस्तेमाल करके उनके कॉपीराइट का उल्लंघन किया है। कृष्णा सोबती ने अमृता प्रीतम और उनके प्रकाशकों से ‘जि़ंदगीनामा’ शब्द को पुस्तक के शीर्षक से हटाने का अनुरोध किया था। यह विवाद मामला 26 साल तक चला और अंतत: 2011 में अमृता प्रीतम के पक्ष में फैसला आया।
अदालत ने कहा कि ‘जि़ंदगीनामा’ शब्द का इस्तेमाल पहले से ही कई लेखकों द्वारा किया गया है और यह कोई विशेष शब्द नहीं है जिस पर कॉपीराइट हो सकता है। इस मामले पर साहित्य जगत में भी काफी बहस हुई और कुछ लोग कृष्णा सोबती के पक्ष में थे तो कुछ अमृता प्रीतम के। खुशवंत सिंह ने कहा था कि ‘जि़ंदगीनामा’ जैसे शब्द पर कोई कॉपीराइट का दावा कैसे कर सकता है? यह मामला भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण विवाद बन गया और इसने कॉपीराइट और साहित्यिक संपत्ति के मुद्दे पर एक शोर भरी बहस को जन्म दिया।
हालांकि कृष्णा सोबती ने मुकदमा हारा लेकिन इस मामले में साहित्य जगत में उनकी पहचान को और मज़बूत किया। कुछ लोगों का मानना है कि इस विवाद के कारण कृष्णा सोबती ने ‘जि़ंदगीनामा’ के ‘सीक्वेल’ के रूप में दो और खंड लिखने की योजना को स्थगित कर दिया। कितना शोर मचा था तब इस कलम-लेखन की दुनिया में भी।
शोर और शांति के मध्य इसी खींचतान को लेकर गुरुदेव टैगोर ने लिखा था,
‘ओ रे शांति… ओ रे शांति कोथाय बाबा।
शांति कोथाय पावी।’
महान शख्सियतों के नाम पर दिल्ली व आसपास राजघाट, शांति घाट, विजय घाट, किसान घाट, समता घाट, मनमोहन-स्मृति आदि अनेकों स्मृति स्थल हैं, मगर सभी पर अपने-अपने समय में विवाद और शोर रहे हैं। इनके आदर्श व जीवनमूल्य किसी को भी याद नहीं है। शांति इन स्मृति स्थलों पर भी नहीं है।