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कौन बनेगा कांग्रेस अध्यक्ष ?

अब यह सवाल थोड़ा टेढ़ा हो गया है कि देश की सबसे पुरानी और इसे अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कौन बनेगा? लगभग दो दशक बाद भारत में ऐसे चुनावों की गूंज हो रही है,

01:23 AM Sep 28, 2022 IST | Aditya Chopra

अब यह सवाल थोड़ा टेढ़ा हो गया है कि देश की सबसे पुरानी और इसे अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कौन बनेगा? लगभग दो दशक बाद भारत में ऐसे चुनावों की गूंज हो रही है,

कौन बनेगा कांग्रेस अध्यक्ष
अब यह सवाल थोड़ा टेढ़ा हो गया है कि देश की सबसे पुरानी और इसे अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी  का अध्यक्ष कौन बनेगा? लगभग दो दशक बाद भारत में ऐसे चुनावों की गूंज हो रही है, जिसमें मतदाता आम आदमी नहीं बल्कि किसी विशिष्ट पार्टी के सदस्य होंगे। लोकतन्त्र में यह घटना स्वागत योग्य है क्योंकि भारत एक राजनैतिक दल-गत व्यवस्था वाली प्रशासनिक प्रणाली का मजबूत लोकतन्त्र है। 136 वर्ष पहले अपनी स्थापना से लेकर  आज तक कांग्रेस की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसके भीतर की व्यवस्था भी हमेशा (केवल इन्दिरा जी के दौर को छोड़ कर) सार्वजनिक बहस-मुहाबिसों का विषय रही है। यही वजह है कि आज हम राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलोत की अध्यक्ष पद के चुनाव में निभाई जाने वाली भूमिका पर खुल कर बहस कर रहे हैं और राज्य में मुख्यमन्त्री पद के लिए उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले नेता सचिन पायलट के किरदार को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लगातार कमजोर होती जा रही कांग्रेस ने अपने उस विशिष्ट चरित्र का परित्याग नहीं किया है जिसने आजादी के बाद स्वतन्त्र भारत के लिए लोकतान्त्रिक प्रणाली का चयन किया था।
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वर्तमान सन्दर्भों में इसका स्वरूप जरूर बदल गया है क्योंकि कांग्रेस अब देश की सत्तारूढ़ पार्टी न रह कर केवल दो राज्यों राजस्थान व छत्तीसगढ़ में शासन करने वाली रह गई है और लोकसभा में इसके केवल 53 सदस्य ही चुनकर आ सके हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि पार्टी की राष्ट्रव्यापी पहचान आज भी गांधी-नेहरू परिवार की प्रतिष्ठा से ही जुड़ी हुई है। अतः प्रत्येक उस कांग्रेस अध्यक्ष को जो इस परिवार के बाहर से चुना जाता है, इस परिवार की गौरवशाली विरासत के समक्ष नत मस्तक होना ही पड़ेगा। मगर यह कार्य आन्तरिक लोकतन्त्र को शक्तिशाली बना कर ही हो सकता है जिससे पार्टी के भीतर आम कांग्रेसी कार्यकर्ता का सर्वोच्च स्थान तक पहुंचने का मनोबल बना रहे। श्री गहलोत आम कांग्रेसी की इसी योग्यता व इच्छा शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि वह एक बहुत से साधारण परिवार से राजनीति में आये व्यक्ति हैं और उन्होंने अपने परिश्रम के बूते पर ही राजनीति में प्रतिष्ठा पाई है। संभवतः यही वजह रही होगी कि श्री राहुल गांधी से लेकर श्रीमती सोनिया गांधी तक उन्हें इस पद पर देखना चाहती हैं, मगर बीच में राजस्थान की राजनीति आ गई जिसकी वजह से समीकरण गड़बड़ाने लगे।
दरअसल राजनीति में इतिहास का भी बहुत महत्व होता है। राजस्थान के पार्टी के प्रति समर्पित विधायकों के वे जख्म अभी तक ताजा हैं जो दाे साल पहले 2020 में उन्हें मिले थे और गहलोत सरकार के टूट कर इसके भाजपा सरकार में बदलने का खतरा पैदा हो गया था। श्री सचिन पायलट के कांग्रेस से विद्रोह करने की वजह से ऐसा दृश्य बना था और पूरे डेढ़ महीने तक जयपुर में अस्थिरता का वातावरण बन गया था तथा लड़ाई उच्च न्यायालय तक पहुंच गई थी। ये विधायक चाहते हैं कि यदि श्री गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो केवल निष्ठावान विधायकों के बीच से ही नये मुख्यमन्त्री का चयन हो। इस मंजर को कांग्रेस आलाकमान को पूरी निष्पक्षता के साथ देखना होगा और यह ध्यान में रखते हुए देखना होगा कि एक समय तक लगातार सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी की पहचान ‘षड्यन्त्रों की पार्टी’ के रूप में भी इसके ही नेताओं द्वारा की जाती रही है। अतः वर्तमान समस्या से निपटने के लिए जिस तरह श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी के कद्दावर नेता श्री कमलनाथ को भोपाल से नई दिल्ली बुला कर उनसे राय-मशविरा किया वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसका मतलब यही है कि सोनिया जी चाहती हैं कि राजस्थान की समस्या का हल इस तरह निकले कि पार्टी भी कमजोर होती दिखाई न पड़े क्योंकि यहां मामला बाहर के तत्वों द्वारा कांग्रेस की राज्य सरकार को नुकसान पहुंचाने का नहीं है बल्कि खतरा अन्दर से ही है। लेकिन यह समझना भी नादानी होगी कि श्री अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमन्त्री पद के लालच में कांग्रेस अध्यक्ष के पद की अवहेलना कर देंगे परन्तु इतना जरूर वह देखना चाहेंगे कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद उनके गृह राज्य राजस्थान में अगले वर्ष 2023 होने वाले विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी कांग्रेस की ही विजय हो। इसके लिए उनके दिमाग में जो योजना है उस पर भी कांग्रेस आलाकमान को गौर करना होगा।
दूसरी तरफ श्री सचिन पायलट एक बार गलती करके यह सबक सीख चुके हैं कि उनकी जो कद्र कांग्रेस पार्टी के भीतर है उसकी अपेक्षा वह देश की किसी दूसरी पार्टी के भीतर नहीं कर सकते। मुख्यमन्त्री का पद कोई ऐसा पद नहीं है जिसे पाने के लिए कोई नेता अपनी जीवन भर की पूंजी को फूंक मार कर उड़ा डाले। अतः जरूरी यह है कि 30 सितम्बर तक राजस्थान विवाद का अन्त इस तरह हो कि हर पक्ष प्रसन्न नजर आये  और रास्ता साफ नजर आये।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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