दलित किसान निशाने पर क्यों?
इस समय देश के सर्वोच्च पद पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा हुआ है जो समाज के निचले तबके से आता है। फिर भी दलितों, किसानों पर अत्याचार जारी हैं। लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल खुद को दलितों और किसानों के मसीहा के तौर पर पेश करता है,
12:00 AM Jul 18, 2020 IST | Aditya Chopra
Advertisement
इस समय देश के सर्वोच्च पद पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा हुआ है जो समाज के निचले तबके से आता है। फिर भी दलितों, किसानों पर अत्याचार जारी हैं। लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल खुद को दलितों और किसानों के मसीहा के तौर पर पेश करता है, सरकारों की तरफ से भी बड़े-बड़े वायदे किए जाते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर सबसे दबे-कुचले पीड़ित इस समुदाय के लिए कुछ नहीं किया जाता। मध्य प्रदेश के गुना में एक दलित किसान दम्पति की पुलिस द्वारा की गई बेरहमी से पिटाई का वीडियो वायरल होने के बाद एक बार फिर देश को महसूस हुआ कि प्रशासन चाहता तो अत्याचार रोक सकता था। कहीं न कहीं प्रशासनिक स्तर पर भयंकर भूल हुई है। इस वीडियो में देखा गया कि जब इस दम्पति की बर्बर पिटाई की जा रही थी तो उनके बच्चे रोते और चिल्लाते रहे लेकिन किसी को तरस नहीं आया। वीडियो वायरल होने के बाद राज्य सरकार जागी और मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को पद से हटा दिया। इसके अलावा 6 पुलिस कर्मियों को निलम्बित कर दिया। दरअसल इस मामले को मानवीय पहलु से देखा ही नहीं गया।
Advertisement
दरअसल जिस जमीन से अतिक्रमण हटाने के लिए पुलिस टीम गई थी वह दलित किसान के कब्जे में है ही नहीं। यह जमीन एक कालेज को आवंटित की गई थी। इस जमीन पर गुना के ही एक पूर्व पार्षद का कब्जा रहा है, उसने ही पैसे लेकर किसान को खेती करने की इजाजत दी थी। किसान ने जमीन पर फसल बोने के लिए लगभग दो लाख का कर्जा लिया था। परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए उसे इस जमीन पर होने वाली फसल का ही सहारा था। किसान ने बार-बार अनुरोध किया, हाथ जोड़े कि फसल कटने तक उसे रहने दिया जाए लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी। प्रशासन ने जेसीबी मंगा कर उसकी फसल बर्बाद कर दी। आपत्ति जताने पर उसकी पिटाई की गई। अपनी तबाही को देख किसान दम्पति ने कीटनाशक पी कर आत्महत्या करने की कोशिश की। अब सवाल तो उठेंगे ही। प्रशासन को असली आरोपी के खिलाफ कार्रवाई करने की जरूरत क्यों महसूस नहीं हुई। जिस व्यक्ति ने जमीन पर अवैध कब्जा कर पैसे लेकर किसान को फसल बोने की इजाजत दी, उसके विरुद्ध एक्शन क्यों नहीं लिया गया। यदि उस प्लाट पर लम्बे समय से अवैध कब्जा चल रहा था तो प्रशासन सोया क्यों रहा? जिस दलित किसान पर जुल्म ढाया गया वह तो मूल रूप से जमीन पर अतिक्रमण या कब्जे का दोषी है ही नहीं।
जब देश भर में तीखे प्रश्न दागे जाने लगे तो कुछ अधिकारियों को हटा दिया गया। सवाल तो यह है कि चंद अफसरों के तबादले से स्थिति बदलने वाली नहीं। इस तरह की घटनाएं लगातार सामने आती रहती हैं। कुछ समय चर्चा जरूर होती है, बाद में मामले रफा-दफा कर दिए जाते हैं। देश में दलितों, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार का मुख्य कारण अत्याचारों को बर्दाश्त करना होता है। दलितों पर होने वाले अत्याचारों का भी मुख्य कारण यही है। गरीब दलित किसान दम्पति में इतनी ताकत नहीं थी कि वह प्रशासन का विरोध कर पाता। आज भी ग्रामीण अंचलों में दबंगों द्वारा दलितों की पिटाई की जाती है। गुजरात और राजस्थान में दलित युवकों को शादी के लिए घोड़ी पर चढ़ कर आने नहीं दिया जाता। देश में दलितों की कुल आबादी 20.14 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 16.6 प्रतिशत है। दलित समाज अपने अधिकारों को लेकर लगातार सजग भी हुआ है, लेकिन विकास में पिछड़े इलाकों में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऐसी घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि दलितों को लेकर समाज का एक बड़ा तबका अब भी पुरानी सोच से बंधा है।
दरअसल शासन-प्रशासन में वही लोग हैं जो अपने भाषणों में दलितों से सहानुभूति व्यक्त करते हैं। उन्हें न्याय दिलाने का भरोसा देते भावुक भी हो जाते हैं। वे लोगों की तालियां समेटते हैं लेकिन उनके भीतर उच्च जाति के अहंकार छिपे हुए होते हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर का नाम लेना उनका फैशन है, लेकिन विवेकानंद को भूल जाते हैं जिन्होंने उच्च जाति के समाज को जातिगत भेदभाव को मिटाने और अंधे कर्मकांडों के खिलाफ निर्भीकतापूर्वक आवाज उठाई थी। यह सही है कि दलित समुदाय के युवाओं का एक ऐसा वर्ग तैयार हो चुका है जो उच्च पदों पर पहुंचा है। तरक्की करने वाला दलित आज खुद को सामाजिक रूप से ऊंचे दर्जे का समझने लगा है। दलितों का यह वर्ग दलितों का क्रीमी लेयर वर्ग अब दलित आबादी से दूर हो चुका है। इनके हित अलग हो गए हैं। इनकी तरक्की से समाज के दूसरे तबके को शिकायत है। उनका निशाना वही दलित बनते हैं जो गांवों में रहते हैं और तरक्की के पायदान में नीचे हैं। कृषि क्षेत्र के बढ़ते संकट का असर उन पर पड़ रहा है क्योंकि दलित भूमिहीन होते हैं। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है, बढ़ते शहरीकरण के चलते यह भी इनसे छीनी जा रही है। देश में दलितों के नाम पर सियासत बहुत होती है मगर अपनी जातीय पहचान के सहारे राजनीति करने वाले अपनी दुकानें चलाने में ही माहिर हैं। उन्हें दलितों की कोई चिंता नहीं। बेहतर होगा कि भूमिहीन दलितों की सुध ली जाए और समाज अपनी पुरानी मानसिकता बदले।
Advertisement
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
Advertisement