क्यों इस्तीफा देने को मजबूर हुए धनखड़?
‘क्या मेरे अपनों में ही बेगानों सा था मैं
तेरे गीत क्यों गाता रहा दीवानों सा मैं
बावफा न था तू, बेवफा न था मैं
तेरी महफिल में क्यों परवानों सा जला मैं’
शोहरत और कामयाबी एक खुशबू की तरह होती है जो ज्यादा देर तक किसी के हिस्से टिकती नहीं, इस बात का इल्म देश के उपराष्ट्रपति रह चुके जगदीप धनखड़ को भी बकायदा हो चुका होगा, नहीं तो भाजपा के भक्ति-भाव से ओत-प्रोत होकर उन्होंने सियासी दंभ और रंगे स्वांगों से अब तक का सबसे बड़ा रंगमंच सजाया था, आज उनके इस ‘सोलो प्ले’ के ग्रीन रूम के चुप सन्नाटे ही उन्हें काटने को दौड़ रहे हैं। सूत्रों के अनुसा भाजपा की ओर से उनसे इस्तीफा नहीं मांगा गया था, दरअसल नेताओं के संवादों की गर्मी इस कदर बढ़ गई थी कि दबाव में आकर उन्हें इतना बड़ा फैसला लेना पड़ा। यहां तक कि धनखड़ के इस्तीफे की बात से भाजपा हैरान थी। भाजपा के एक नेता ने उपराष्ट्रपति को फोन भी किया था, पर किसी कारणवश दोनों नेताओं के दरम्यान बातचीत नहीं हो पाई।
दरअसल भाजपा व धनखड़ के संबंधों के दरम्यान तल्खी तब से आनी शुुरू हो गई थी जब कथित तौर पर धनखड़ ने राहुल समेत अन्य विपक्षी नेताओं से अपनी दोस्ती की पींगे बढ़ानी शुरू कर दी थी। पिछले दिनों धनखड़ ने उपराष्ट्रपति रहते राहुल को अपने पास मिलने को बुलाया, कहते हैं यह मुलाकात कोई ढाई घंटे चली। धनखड़ ने राहुल के समक्ष स्पष्ट किया कि ‘वे भी विपक्षी दलों से अच्छे संबंधों के पक्षधर हैं’, इसके बाद ही जयराम रमेश की अगुवाई में कांग्रेस सांसदों की एक टीम उपराष्ट्रपति से मिलने पहुंची और तब सदन में एक बेहतर तालमेल व सौहार्द के लिए सहमति बनी। कहते हैं इस मुलाकात से जयराम इतने अभिप्रेरित थे कि उन्होंने बाहर आकर अपने नेता मल्लिकार्जुन खड़गे से कह दिया कि ‘आप लोकसभा देख लो, यहां (राज्यसभा में) तो सब बढ़िया हो गया है।’ यह बात भाजपा तक पहुंच गई। धनखड़ यहीं नहीं रुके उन्होंने तृणमल समेत अन्य विपक्षी दलों के नेताओं से भी मेल-जोल शुरू कर दिया। इस कड़ी में वे अरविंद केजरीवाल से भी मिले। इसके बाद धनखड़ वामपंथी रुझान रखने वाले और सत्ताधारी दल व उनके नेताओं के कटु आलोचक माने जाने वाले आधा दर्जन पत्रकारों से भी मिले, ये पत्रकार अपने स्वतंत्र विचारों के लिए जाने जाते हैं।
कई सार्वजनिक मंचों से उपराष्ट्रपति ने किसानों के हक में खुल कर बोलना शुरू कर दिया, उनके इन विचारों की तपिश सत्ताधारी दल को परेशान करने लगी थी। पिछले कुछ समय से जिस तरह धनखड़ ने न्यायपालिका को आड़े हाथों लेते हुए उसके वर्चस्व को चुनौती दी थी यह बात भी सरकार को रास नहीं आ रही थी, जब से सुप्रीम कोर्ट में नए चीफ जस्टिस गवई ने अपना कार्यभार संभाला है सरकार कोर्ट से किसी प्रकार की कोई तकरार नहीं चाहती है। धनखड़ जस्टिस वर्मा पर महाभियोग के मामले को लेकर भी खासे उत्साहित और एक्टिव थे। चूंकि लोकसभा में यह मामला आ चुका था सो सरकार राज्यसभा में इंतजार करने के हक में थी, पर 61 विपक्षी राज्यसभा सांसदों के दस्तखत के साथ धनखड़ ने ऊपरी सदन में भी जस्टिस वर्मा पर महाभियोग चलाने की संभावनाओं के द्वार खोल दिए थे। एक तरह से यह दिल्ली के निज़ाम के समक्ष खुली चुनौती उछाल दी गई थी।
बात नड्डा से शुरू होकर दूर तलक गई
सदन में जिस अंदाज में जेपी नड्डा ने खड़गे को संदर्भित करते हुए कहा कि ‘नड्डा बताएंगे कि सदन में बोला गया क्या रिकार्ड पर जाएगा या नहीं’, इस बात और नड्डा के बोलने के अंदाज पर धनखड़ बेहद असहज हो गए। सूत्रों की मानें तो सत्र स्थगित होने के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने नड्डा को अपने कमरे में बुला कर कुछ इस अंदाज में झिड़क दिया कि ‘आप कौन होते हैं मेरे अधिकार क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करने वाले और मुझे कमांड देने वाले?’ नड्डा ने यह संवाद भाजपा तक पहुंचा दिया।
सूत्रों के दावों पर अगर यकीन किया जाए तो फिर वहां से सीधे धनखड़ को फोन गया और यह बातचीत का सिलसिला धीरे-धीरे झड़प की शक्ल अख्तियार करता गया। धनखड़ ने फोन के दूसरे तरफ वाले अति प्रभावशाली सत्ताधारी नेता को समझाना चाहा कि ‘संवैधानिक तौर पर मैं अभी भी देश का नंबर दो हूं, आप मुझ से जूनियर हैं, आप इस टोन में मुझसे बात नहीं कर सकते।’ तो दूसरी तरफ से कहा गया कि ‘कल ही हम आपके खिलाफ नो कॉनफिडेंस मोशन ले आएंगे तब तो आपकी कुर्सी नहीं बचेगी।’ कहते हैं एक इतने ही असहज नोट पर दोनों नेताओं के बीच बातचीत खत्म हो गई। इसके तुरंत बाद एक मंत्री के कमरे में भाजपा के राज्यसभा सांसदों को तलब किया गया और सादे कागज पर उनके दस्तखत ले लिए गए, उपराष्ट्रपति को जब इस बात की भनक मिली तो उन्होंने समझा कि शायद उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी शुरू हो चुकी है। संविधान के मर्मज्ञ धनखड़ जानते थे कि अगर राज्यसभा सांसद संसद में मोशन लेकर आ गए तो उन्हें अपने पद से हटना पड़ सकता है, तो घर जाकर उन्होंने इस पूरी बात की चर्चा अपनी पत्नी और बेटी के साथ की। परिवार में यह राय बनी कि पद से हटाए जाने से बेहतर होगा स्वयं ही सम्मानजनक तरीके से इस पद को छोड़ देना, और धनखड़ ने वैसा ही किया।
धनखड़ का पहला फोन जयंत को
पद से त्यागपत्र लिखने के बाद कहते हैं धनखड़ ने पहला फोन केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत चौधरी को किया। सूत्रों का दावा है कि जयंत को धनखड़ अपना दत्तक पुत्र मानते हैं और उन पर अतिरिक्त स्नेह रखते हैं। माना जाता है कि पिछले चुनाव में जयंत को अखिलेश के पाले से निकाल कर भाजपा के बगलगीर करने में धनखड़ की ही सबसे अहम भूमिका थी। यह भी दावा किया जा रहा है कि अगली अल्स्सुबह ही जयंत धनखड़ से मिलने उनके घर पहुंचे और दोनों नेताओं के दरम्यान एक लंबी बातचीत हुई। यह भी माना जा रहा है कि धनखड़ के इस्तीफे के बाद से ही जाट समुदाय में भाजपा को लेकर किंचित नाराज़गी और बढ़ गई है। इससे पहले भी जब जाट नेता सत्यपाल मलिक के मामले ने तूल पकड़ा था तो हरियाणा, राजस्थान व पश्चिमी यूपी के जाट बहुल इलाकों में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। कहते हैं इस ‘जाट इफेक्ट’ की वज़ह से हरियाणा की 3, राजस्थान की 7 और पश्चिमी यूपी की मुजफ्फरनगर व नगीना सीट भाजपा को गंवानी पड़ी थी। इसके अलावा पश्चिमी यूपी में भाजपा के विजयी उम्मीदवारों की जीत का अंतर भी कम हो गया था। अब देखना है कि इन नई परिस्थितियों में धनखड़ कितने दिनों तक अपने को चुप्पी के ओढ़े आवरण में रख पाते हैं।
राहुल का धनखड़ प्रेम
इसी शुक्रवार को राहुल गांधी ने धनखड़ साहब को फोन कर पहले तो उनका खैर मकदम पूछा, फिर कहा-बड़े दुख की बात है कि सरकार आपके लिए कोई फेयरवैल ही नहीं रख रही है, सो हमने 25-26 विपक्षी पार्टियों ने मिल कर तय किया है कि हम आपके सम्मान में दिल्ली के अशोक होटल में एक फेयरवैल कार्यक्रम रखेंगे, इसमें सदन को दिए गए आपके योगदानों की चर्चा करेंगे।’ कहते हैं धनखड़ पहले तो इस प्रस्ताव पर थोड़े भावुक हुए, फिर खुद को संयत करते हुए कहा-मैं आपका दिल से आभारी हूं, आपका और तमाम विपक्ष का कि आप लोगों ने मेरे लिए ऐसा सोचा, पर मैं इस पूरे मामले को कोई राजनैतिक रंग नहीं देना चाहता, क्योंकि आप इस कार्यक्रम में पीएम को तो आमंत्रित करेंगे नहीं?’ राहुल ने कहा-क्यों नहीं करेंगे, जरूर करेंगे, पर आना न आना उनकी मर्जी।
जैसे ही राहुल की इस पहल की खबर तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी को लगी उन्होंने फौरन खड़गे को फोन कर हड़का दिया और कहा-राहुल जी हर जगह तृणमूल का नाम ले लेते हैं, पर धनखड़ जी को फेयरवेल देने के कार्यक्रम रखने में हमारी सहमति क्यों नहीं ली गई? जाहिर है इस पर खड़गे से कोई जवाब देते नहीं बना।
...और अंत में
पिछले दिनों जब संघ प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली में थे तो उन्होंने यहां कई बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवियों और इस्लामिक विद्वानों से मुलाकात की। इत्तफाक देखिए उसी रोज बिहार के गवर्नर आरिफ मोहम्मद खान भी दिल्ली पधारे थे, सबको लगा कि वे भी संघ प्रमुख से मिलने यहां आए हैं, पर वे सीधे चले गए गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के लिए। कयास लगे कि उप राष्ट्रपति बनने के लिए वे भी नंबर में हैं, पर सोचने की बात है कि खुल कर हिंदुओं की राजनीति करने वाली भाजपा के लिए क्या वे एक मुफीद चेहरा हो पाएंगे?
वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार खुले तौर पर इस पद के लिए दिवंगत कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर की पैरवी कर रहे हैं। ताकि राज्य के ओबीसी और ईबीसी वोटरों को फिर से जदयू के पाले में लामबंद किया जा सके। कर्पूरी ठाकुर को अगड़ों के विरोधी तथा गरीबों व ओबीसी के मसीहा के तौर पर देखा जाता था। नीतीश इसी बात को भुनाना चाहते हैं पर लोग उनके बारे में कह रहे हैं कि ‘नीतीश को जब भी मौका मिलता है उनके कोटे की मलाई तो अगड़े ही लूट जाते हैं, मसलन इस दफे जदयू के कोटे से केंद्र में मंत्री बनने की बात आई तो भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह बाजी मार गए, और नीतीश ने अपनी पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष एक ब्राह्मण संजय कुमार झा को बनाया है।’