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संविधान हत्या दिवस : आखिर क्यों हुआ जरूरी?

07:25 AM Jun 27, 2025 IST | Editorial

25 जून का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। इसी दिन 1975 को देश में आपातकाल लगाया गया था -एक ऐसा निर्णय जो भारत के संविधान, नागरिक स्वतंत्रताओं और लोकतांत्रिक मूल्यों की घोर अवहेलना था। इसीलिए आज देशभर में इसे ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में याद किया जाता है। हालांकि आज की पीढ़ी के बहुत से युवाओं को यह नहीं मालूम कि संविधान हत्या दिवस किस प्रसंग से जुड़ा है। न ही वे उस अघोषित तानाशाही के दौर को समझ पाते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल के रूप में थोपा था। वे पूछते हैं-यह आपातकाल क्या था? क्यों लगाया गया? क्या संविधान इसकी इजाजत देता है?

संविधान के अनुच्छेद 352 में आपातकाल की व्यवस्था है, लेकिन यह केवल बाहरी युद्ध, आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में, मंत्रिमंडल की सिफारिश पर, राष्ट्रपति द्वारा लागू किया जा सकता है। इसे संसद से अनुमोदन लेना भी अनिवार्य है। अब तक भारत में केवल दो बार युद्ध के चलते (1962 में चीन और 1971 में पाकिस्तान) के साथ आपातकाल लागू किया गया था। लेकिन 1975 का आपातकाल इससे बिल्कुल अलग था। यह न तो युद्ध की स्थिति थी, न ही कोई आंतरिक विद्रोह। यह निर्णय पूरी तरह राजनीतिक था -सत्ता बचाने का एक उपाय। उस समय देश में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनांदोलन चल रहे थे, जिसका नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। पूरा विपक्ष एकजुट होकर इंदिरा सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया था।

इसी पृष्ठभूमि में 25 जून, 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। रातों-रात देशभर में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई। मेरे पिता, जनसंघ के वरिष्ठ नेता चरती लाल गोयल, जो पहले भी कई बार जेल जा चुके थे, को भी गिरफ्तार किया गया। हमने सोचा था कि दो-तीन दिन में छूट जाएंगे, लेकिन यह गिरफ्तारी पूरे 19 महीनों तक चली। दिल्ली विश्वविद्यालय में उस समय छात्र राजनीति अपने चरम पर थी। छात्र संघ अध्यक्ष अरुण जेटली ने मुझे और मेरे साथी रजत शर्मा को फोन किया -"इमरजेंसी के खिलाफ जुलूस निकालना है, छात्रों को एकत्र करो।" हमने आवाज दी, “तानाशाही नहीं चलेगी! इंदिरा गांधी हाय-हाय!” और छात्रों के साथ प्रदर्शन किया। लेकिन जल्द ही स्थिति की गंभीरता का अहसास हुआ, जब अरुण जेटली को कॉफी हाउस से गिरफ्तार कर लिया गया।

इसके बाद हम भूमिगत हो गए। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई थी, प्रेसों की बिजली काट दी गई थी, कोई समाचार छप नहीं सकता था। हमने ‘मशाल’ और ‘प्रतिशोध’ नामक दो समाचार पत्र भूमिगत होकर निकाले, जिन्हें हम रातभर जागकर साइक्लोस्टाइल कर के छात्रों में बांटते। यह हमारा सत्याग्रह था -एक शांत लेकिन सशक्त प्रतिरोध। हमारे मार्गदर्शक थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना, जो हमारी गुप्त बैठकों का नेतृत्व करते थे। भेष बदलकर, रातें बाहर बिताकर हम आंदोलन को जीवित रखे हुए थे। धीरे-धीरे गिरफ्तारियों का सिलसिला तेज होता गया -नेता, कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षक, छात्र कोई नहीं बचा। तिहाड़ जेल में हमें बैरक 7 और 13 में रखा गया। यातनाएं, पिटाई, मानसिक उत्पीड़न आम बात हो गई थी। सबसे काले पक्ष थे-जबरन नसबंदी अभियान, जनता का जबरन पुनर्वास, सरकारी तंत्र द्वारा उत्पीड़न, प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध और नागरिक अधिकारों का पूर्ण हनन। अगर किसी को जेल से बचना था, तो उसे इंदिरा गांधी के 20-सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करना होता।

देशभर में करीब 1 लाख से अधिक लोगों को बिना मुकदमे के जेलों में ठूंस दिया गया। कई परिवारों के सभी सदस्य बंदी बना लिए गए। कमाने वाले पुरुष जेल में, और घर पर महिलाएं और बच्चे असहाय। लोकतंत्र उस दिन मर गया था। आपातकाल हटने के बाद जनता ने इसका करारा जवाब दिया -1977 के चुनाव में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा और पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। आज जब देश संविधान हत्या दिवस मना रहा है, यह केवल अतीत की याद भर नहीं है। यह चेतावनी है कि कोई भी शासक या सरकार फिर कभी भारतीय लोकतंत्र को रौंदने का दुस्साहस न करे। युवा पीढ़ी को जानना चाहिए कि स्वतंत्रता और अधिकार केवल किताबों के शब्द नहीं, बल्कि संघर्ष की विरासत हैं। यह दिन याद दिलाता है कि संविधान की रक्षा केवल अदालतों या सरकारों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक की जागरूकता, साहस और सक्रियता पर निर्भर करती है।

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