औरंगजेब को आखिर क्यों ज़िंदा रखा जा रहा है !
मुग़ल शहंशाहों को समय-समय पर भारत में भिन्न-भिन्न मामलों में याद किया जाता रहा…
मुग़ल शहंशाहों को समय-समय पर भारत में भिन्न-भिन्न मामलों में याद किया जाता रहा है, कुछ अच्छाई के लिए, कुछ बुराई के लिए। वैसे यह बात समझ से बाहर है कि जो लोग छह-सात सौ साल भारत पर राज कर चुके हैं और जिनका आज कोई औचित्य नहीं है, कुछ लोगों द्वारा ऐसा समझा जाता है कि उनको गलियां देने से मुसलमान को कष्ट होगा, तो यह कदापि उचित नहीं। इसका कारण यह है कि मौजूदा दौर के मुसलमानों के आदर्श और हीरो मुग़ल शहंशाह नहीं, बल्कि एपीजे अब्दुल कलाम, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक मौलाना आज़ाद, हिंद-पाक बॉर्डर पर देश को अपने प्राण समर्पित करने वाले हवलदार अब्दुल हामीद, ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान और कैप्टन जावेद हैं।
देश में इन दिनों छत्रपति शिवाजी महाराज और औरंगजेब को लेकर मामला गरमाया हुआ है। महाराष्ट्र के समाजवादी पार्टी के नेता अबू आसिम आज़मी को सदा से ही भिरड़ों के छत्ते में हाथ देने की आदत है और इसी के चलते उन्होंने औरंगजेब की तारीफ़ में कसीदे पढ़ दिए कि वह रहमतुल्लाह थे, ईमानदारी से उम्र गुजारी, सरकारी ख़ज़ाने से एक पाई तक नहीं ली, चटाईयां और टोपियां आदि बुनकर अपनी कमाई करते थे। इस सरकार को स्पीड ब्रेकर लगाने से न तो अबु आज़मी का कोई भला होगा और न ही उस क़ौम का जिसकी नेतागिरी का वह ढोंग करते हैं। उन्हें समाज में प्यार-मुहब्बत के पुल बनाने चाहिए।
रिसर्च में कहा गया है कि कई बड़े मंदिरों के स्वयं बनाने और बनवाने में औरंगजेब का हाथ था, जैसे चांदनी चौक में गौरी शंकर मंदिर, जो उन्होंने अपने मराठा सेनापति अप्पा गंगाधर को दक्षिण में एक युद्ध जीतने पर तोहफ़ा दिया था। ऐसे ही दिगंबर जैन लाल मंदिर, चांदनी चौक, के लिए एक बड़ी रक़म दी थी और प्रयाग संगम के तट पर सोमेश्वर महादेव मंदिर, वाराणसी में कुमारस्वामी और जंगमबाड़ी मंदिर, चित्रकूट में बालाजी मंदिर के अतिरिक्त दक्षिण में भी कई मंदिर बनाए। आसिम आज़मी को पहले से ही गरमाए वातावरण में पिन मारने की आवश्यकता नहीं थी।
तमाम राजनीतिक दल इसको लेकर सियासत कर रहे हैं और अब आरटीआई ने जो खुलासा किया है उसने आग में घी डालने का काम किया है। आरटीआई ने कहा है कि औरंगजेब जैसे क्रूर शासक के लिए सरकार सालभर में करीब 2 लाख रुपये खर्च करती है और छत्रपति शिवाजी के मंदिर के लिए सिर्फ 250 रुपये महीना ही दिया जाता है। इसी संदर्भ में यह भी कहा जा रहा है कि औरंगजेब के मज़ार को बुलडोजर द्वारा ध्वस्त कर दिया जाए। नफ़रत की आंधी इतनी नहीं बढ़नी चाहिए कि मजारों और समाधियों के ऊपर नजला गिराया जाए। नामचीन शायर अली सरदार जाफरी ने क्या खूब कहा है :
“दुश्मनी करो तो जम कर करो, मगर एक आंख लिहाज की रखो!”
कुछ समय पूर्व दिल्ली के औरंगजेब रोड का नाम बदल कर एपीजे अब्दुल कलाम रोड करवा दिया गया था। क्या पुरानी सड़कों और स्मारकों के नाम बदलने से कुछ नहीं होता है तो इस मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम समस्या के अंतर्गत कह दिया गया कि यदि क्रूर मुस्लिम शासक औरंगजेब के नाम को बदला गया तो उसके स्थान पर एक राष्ट्रवादी मुस्लिम और ‘अग्नि’ मिज़ाइल के बनाने वाले कलाम के नाम पर ही तो रखा गया है। मात्र सड़क का नाम पलटने भर से उनके नाम में एक बहुउद्देश्यीय स्कूल या कॉलेज का निर्माण भी हो सकता था, जहां सभी धर्मों के लोग लाभ उठा सकते थे।
एक बार ऐसा हुआ कि पुरानी दिल्ली के प्रसिद्ध “चांदनी चौक” के नाम को बदलने का प्रस्ताव रखा गया कि इसका नाम “सचिन तेंदुलकर चौक” रख दिया जाए। संयोग से इस पर किसी अख़बार में खबर छप गई, जिस पर प्रेस में ही बवंडर खड़ा हो गया कि “चांदनी चौक” एक ऐतिहासिक नाम है और शताब्दियों से चला आ रहा है और यह कि अगर सचिन के नाम में कुछ करना है तो कोई क्रिकेट एकेडमी या स्टेडियम बना दिया जाए ताकि वहां से और बहुत से सचिन, कपिल देव, विराट कोहली अजहरुद्दीन, पठान आदि निकलें।
वास्तव में इस सरकार और संगठन के औरंगज़ेब से खिन्न होने के कई कारण हैं। एक बड़ा कारण तो यह है कि औरंगजेब ने गुरु गोबिंद सिंह के चार साहिबजादों, अर्थात साहिबजादा अजित सिंह, साहिबजादा फतेह सिंह, साहिबजादा जुझार सिंह और साहिबजादा ज़ोरावर सिंह को केवल इसलिए शहीद कर दिया कि उन्होंने अपना धर्म परिवर्तित नहीं किया। इस्लाम में सफ़ाई से कुरान द्वारा प्रदर्शित किया गया है, “लकुम दीनोकुम, वले यदीन”, अर्थात, तुम्हें तुम्हारा धर्म मुबारक!” पंजाबी में इसी बात को कहा गया है, “ईह राम रहीम, ते मौला कि/ गाल समझ ली तो रौला कि!” वैसे औरंगज़ेब ने तो अपने सगे भाई, दारा शिकोह का भी कुर्सी के लिए वध करा दिया था।
सौ बात की एक बात यह कि सारे मुग़ल चले गए और उनके द्वारा किए गए सभी अच्छे-बुरे काम भी उनके साथ चले गए। औरंगजेब को मंदिर तोड़ कर नहीं, बल्कि उनको बचा कर मस्जिदें बनानी चाहिए थीं ताकि आज के मुसलमानों को उसका खमियाजा नहीं भुगतना पड़ता। अफ़ज़ल मंगलौरी के शब्दों में :
मंदिर भी ले लो, मस्जिद भी ले लो,
इंसान के लहू से मगर अब न खेलो!