भाषा के मुद्दे पर द्रमुक आक्रोशित क्यों
जब डीएमके की सांसद डॉ. सुमति ने हिंदी की तुलना एक भोजन से, अंग्रेज़ी को…
जब डीएमके की सांसद डॉ. सुमति ने हिंदी की तुलना एक भोजन से, अंग्रेज़ी को ‘मास्टर शेफ’ से और तमिल को घर में पकाए गए खाने से की तब उन्होंने भाषा के मुद्दे को न केवल राजनीतिक बल्कि प्रतीकात्मक रूप से भी संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया। सिर्फ़ एक लेखिका और कवयित्री के रूप में नहीं, बल्कि एक सशक्त विचारक के रूप में भी, सुमति यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने द्रविड़ राजनीति के प्रणेता ई.वी. रामासामी ‘पेरियार’ का उदाहरण देकर अपने विचारों को और मजबूती प्रदान की। उन्होंने कहा- हमारे संस्थापक ने समझाया कि मैं एक घर बना रहा हूं और उसमें एक विशाल दरवाज़ा लगा रहा हूं। फिर दीवार में एक छोटा-सा छेद रखने की क्या आवश्यकता है? जो लोग तीसरी भाषा थोपने की कोशिश कर रहे हैं, वे बड़े दरवाज़े के बगल में एक छोटा छेद जबरन बना रहे हैं। यदि भाषा का मुद्दा भावनात्मक है तो परिसीमन एक ऐसा विषय है जो पूरी तरह से राजनीति और सत्ता के समीकरणों में डूबा हुआ है।
दोनों ही मामलों में द्रविड़ मुनेत्र कषगम इस संघर्ष का नेतृत्व कर रही है लेकिन असली सवाल यह है कि इस मुद्दे के केंद्र में क्या है? डीएमके क्यों आक्रोशित है? यह केवल राजनीति है या फिर दशकों से गहरी जड़ें जमाए हुए भावनात्मक अस्मिता का विषय? क्या यह आगामी राज्य चुनावों को ध्यान में रखते हुए भावनाओं को भड़काने का प्रयास है? क्या भाजपा पूरी तरह निष्पक्ष है या, जैसा कि डीएमके कहती है, उसके पास कोई छुपा हुआ दांव है?
ये जटिल प्रश्न हैं जिनका कोई आसान उत्तर नहीं लेकिन एक बात स्पष्ट है -इस विचारधारात्मक संघर्ष में एक व्यक्ति उभरकर सामने आया है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन, जो भाषा और परिसीमन दोनों ही मुद्दों पर नेतृत्व कर रहे हैं। डीएमके इसे क्रांतिकारी एम.एन. रॉय से तुलना करने से नहीं हिचकती, जबकि भाजपा इसे एक चुनावी रणनीति का हिस्सा मानती है। तथ्य यह है कि तमिलनाडु में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं।
डीएमके केंद्र पर “राष्ट्रीय शिक्षा नीति” (एनईपी) के नाम पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रही है। भाजपा इसे एक व्यापक सुधार कहती है, जबकि स्टालिन इसे “हिंदुत्व नीति” करार देते हुए तमिल समेत सभी क्षेत्रीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए ख़तरा बताते हैं। तमिलनाडु में हिंदी विरोध कोई नया विषय नहीं है। इसकी जड़ें 1930 के दशक से चली आ रही हैं। साल 1937 में जब कांग्रेस सत्ता में थी तब उसने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य विषय के रूप में लागू किया। तमिल समुदाय ने इसे अपनी संस्कृति और पहचान पर हमला माना, जिसके परिणामस्वरूप व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए।
द्रविड़ आंदोलन के नेता पेरियार ने हिंदी थोपने के विरुद्ध मुखर रूप से संघर्ष किया। आगे चलकर 1965 में यह मुद्दा और उग्र हो गया, जब रेलवे कर्मचारी चिन्नास्वामी ने आत्मदाह कर अपने अंतिम पत्र में लिखा ‘ओह, तमिल! मैं कष्ट सहकर अपने प्राण त्याग रहा हूं ताकि तुम जीवित रह सको। ओह, तमिल।’ इसके बाद पूरे तमिलनाडु में हिंसा भड़क उठी। उग्र भीड़ ने रेलवे स्टेशनों, डाकघरों और सरकारी इमारतों को आग के हवाले कर दिया। यदि उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हस्तक्षेप न किया होता और अंग्रेज़ी को सहायक आधिकारिक भाषा बनाए रखने का आश्वासन न दिया होता तो यह आंदोलन और विकराल रूप ले सकता था। इसके ठीक दो साल बाद हुए चुनावों में डीएमके ने भारी जीत दर्ज कर सत्ता हासिल कर ली।
आज जब उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन कहते हैं कि ‘हजारों लोग तैयार हैं,’ तो उनका यह बयान स्पष्ट संकेत देता है कि डीएमके इस मुद्दे को पूरी तरह भुनाने के लिए कटिबद्ध है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब मोदी सरकार ने तमिलनाडु द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत प्रस्तावित तीन-भाषा फ़ॉर्मूले को अस्वीकार करने के बाद राज्य के लिए शिक्षा निधि के 2000 करोड़ रुपये रोक दिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तीन-भाषा फ़ॉर्मूले को इस आशय के साथ प्रस्तुत करती है कि राज्यों, क्षेत्रों और छात्रों को अपनी पसंद की भाषा चुनने की स्वतंत्रता होगी, बशर्ते कि चुनी गई तीन में से कम से कम दो भाषाएं भारतीय हों लेकिन डीएमके इसे ‘पीछे के दरवाज़े से हिंदी थोपने की साजिश’ के रूप में देख रही है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने स्पष्ट रूप से कहा-हमें किसी भी भाषा, यहां तक कि हिंदी से भी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन हम किसी भी भाषा को हम पर थोपने नहीं देंगे। उन्होंने इस नीति को ‘प्रतिगामी’ करार देते हुए इसकी कड़ी आलोचना की।
उन्होंने केंद्र सरकार की इस नीति पर सवाल उठाया कि अन्य भाषाओं के लिए धन आवंटन में भारी असमानता है। उन्होंने कहा-संस्कृत, जिसे केवल कुछ हजार लोग बोलते हैं, उसके लिए केंद्र ने 1488 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं लेकिन तमिल, जिसे 8 करोड़ लोग बोलते हैं उसके लिए मात्र 74 करोड़ रुपये ही दिए गए हैं। इस भाषा विवाद के साथ ही एक अन्य राजनीतिक रूप से विस्फोटक मुद्दा भी खड़ा हो गया है-परिसीमन। इस पर भी डीएमके आर-पार की लड़ाई के लिए पूरी तरह तैयार है।
डीएमके ने परिसीमन को ‘अन्यायपूर्ण’ बताते हुए यह तर्क दिया है कि इससे दक्षिणी राज्यों की संसद में आवाज़ कमजोर हो जाएगी। चूंकि परिसीमन की प्रक्रिया जनसंख्या पर आधारित होगी, इसलिए जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण किया है, उनकी सीटें कम होंगी, जबकि जिन राज्यों में जनसंख्या तेज़ी से बढ़ी है उन्हें संसद में स्वाभाविक रूप से अधिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। इससे सत्ता संतुलन उत्तर भारतीय राज्यों की ओर झुक सकता है।
स्टालिन इस मुद्दे पर विपक्ष शासित राज्यों को एक मंच पर लाने की कवायद कर रहे हैं। इस संदर्भ में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2023 के तेलंगाना चुनावी भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘प्रधानमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया था कि परिसीमन के बाद दक्षिण भारत में लोकसभा सीटों की संख्या घट जाएगी। यह हमारे राजनीतिक प्रभाव पर सीधा आघात है।’ तमिलनाडु ही नहीं, अन्य विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी स्टालिन के साथ हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी ने इसे दक्षिणी राज्यों के खिलाफ ‘षड्यंत्र’ करार देते हुए कहा-हम 1976 से राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का पालन कर रहे हैं लेकिन अब हमें बताया जा रहा है कि हमारी संसदीय सीटें घट सकती हैं। उन्होंने आगे कहा-यह केवल संख्याओं की बात नहीं है, बल्कि दिल्ली में हमारी आवाज़ की भी बात है। हम इसे चुपचाप नहीं होने देंगे। मैं तमिलनाडु के साथ खड़ा हूं और ऐसी प्रक्रिया की मांग करता हूं जो हमारे प्रयासों का सम्मान करे। हम मिलकर न्याय के लिए संघर्ष करेंगे।
स्थिति चाहे जो भी हो, यह राजनीतिक संघर्ष अब अपने शुरुआती चरण में ही है। डीएमके भावनात्मक भाषा विवाद और परिसीमन के विवादास्पद मुद्दे को लेकर पूरे दमख़म से आगे बढ़ रही है। दूसरी ओर भाजपा भी इस विवाद के केंद्र में बनी हुई है जहां वह विपक्षी हमलों के बीच अपने रुख को स्पष्ट करने की कोशिश कर रही है।