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गुलामी की मानसिकता से मुक्ति क्यों आवश्यक है?

04:30 AM Dec 13, 2025 IST | Editorial
गुलामी की मानसिकता से मुक्ति क्यों आवश्यक है

स्वतंत्रता के लगभग आठ दशकों बाद भी एक प्रश्न बार-बार उठता है कि हम अभी तक उस औपनिवेशिक सोच से मुक्त क्यों नहीं हो पाए हैं जिसने भारतीय शिक्षा की जड़ों को कमजोर कर दिया था? यह प्रश्न हाल के वर्षों में और अधिक प्रखर हुआ है, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस 'गुलामी की मानसिकता' के दुष्परिणामों को रेखांकित करने और 2035 तक इससे पूर्ण मुक्ति का आह्वान करने के बाद। तमाम शिक्षाविद् और शोधकर्ता जब मैकाले की शिक्षा पद्धति के दीर्घकालिक प्रभावों पर गंभीर विमर्श कर रहे हैं, तो यह भी स्पष्ट है कि इस विमर्श को राष्ट्रीय आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना से जोड़ने में प्रधानमंत्री मोदी की पहल निर्णायक रही है। भारत में शिक्षा का इतिहास केवल विद्यालयों की संरचना या पाठ्यपुस्तकों की भाषा तक सीमित नहीं है बल्कि यह उस सांस्कृतिक दर्शन का इतिहास है जिसने इस देश को सामाजिक न्याय, विज्ञान, गणित, खगोल, चिकित्सा और दर्शन में अग्रणी बनाया।
आज भारत 8.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि के साथ दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नीतियों के परिणाम नहीं हैं बल्कि मानसिकता में आए उस व्यापक बदलाव का सूचक भी है जिसकी दिशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार स्पष्ट की है कि भारत को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और अपनी बौद्धिक जड़ों पर पुनः गर्व करने की आवश्यकता है। औपनिवेशिक शासन ने इस दृष्टि को तोड़ दिया था। ‘मैकाले मॉडल’ का मूल उद्देश्य जैसा कि 1835 में उनके ब्रिटिश कोलोनियल मिनट्स ऑन एजुकेशन में स्पष्ट रूप से दर्ज है भारत में ऐसे मध्यवर्ग का निर्माण करना था , जो ‘रक्त और रंग से भारतीय हो लेकिन विचार, आचरण और दृष्टि से अंग्रेज।’ इसी औपनिवेशिक सोच ने आगे चलकर भारत की नीतिगत संरचनाको भी प्रभावित किया । इसका प्रभाव उन प्रशासनिक ढांचों तक पहुंचा, जिनकी परिणति बाद में ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935’ जैसे व्यापक कानून में दिखाई दी। आज जब देश में गुलामी की मानसिकता से मुक्ति पर व्यापक विमर्श सक्रिय है, तब यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम समझे कि किस प्रकार भारत की नई शिक्षा नीति 'मैकाले मॉडल' की उन ऐतिहासिक जंजीरों को तोड़ते हुए एक अधिक आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और भारतीय दृष्टि-आधारित शिक्षा भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इससे पहले हमें षड्यंत्र के तहत थोपी गई औपनिवेशिक शिक्षा के उद्देश्य को भी समझना होगा।
भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली चाहे गुरुकुल हों या विक्रमशिला, नालंदा, बल्लभी और तक्षशिला जैसे महाविद्यालय समाज के विविध वर्गों के लिए व्यापक रूप से खुले थे। 18वीं व 19वीं सदी के प्राथमिक स्रोत, जैसे विलियम एडम की रिपोर्ट्स, यह स्पष्ट करती हैं कि औपनिवेशिक शासन से पहले बंगाल और मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा गांव स्तर तक उपलब्ध थी और मातृभाषा इसका मूल आधार थी। मैकाले मॉडल ने इस व्यवस्था को मूलतः तीन तरीकों से प्रभावित किया।
हैरानी की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा नीति में बड़े संरचनात्मक बदलाव दशकों तक नहीं हुए। 1968, 1986 और 1992 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों में सुधार के प्रयास तो हुए परंतु वे अंग्रेज़ी केन्द्रित, परीक्षा-आधारित और डिग्री उन्मुख ढांचे को चुनौती देने में असमर्थ रहे। कई शिक्षाविदों का मानना है कि स्वतंत्रता के बाद भारतीय सत्ता-वर्ग भी अंग्रेज़ी शिक्षा की सामाजिक प्रतिष्ठा से इतना प्रभावित रहा कि उन्होंने भाषा और पाठ्यक्रम दोनों स्तरों पर समावेशी सुधारों को प्राथमिकता नहीं दी।
भारत अब एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो डिजिटल, तकनीकी और वैश्विक दुनिया की प्रतिस्पर्धा के अनुरूप अपनी शिक्षा प्रणाली को तैयार कर रहा है। इस संदर्भ में दो प्राथमिक आवश्यकताएं उभरती हैंः ज्ञान का लोकतंत्रीकरण ताकि भाषा, वर्ग और आर्थिक स्थिति के आधार पर सीखने के अवसर सीमित न हों और भारतीय ज्ञान प्रणाली का पुनर्व्याख्यान ताकि पारंपरिक स्रोतों को आधुनिक विज्ञान के साथ समन्वित किया जा सके। इस विमर्श के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 'मैकाले मॉडल' पर उठाए गए प्रश्नों ने इस बहस को राष्ट्रीय प्राथमिकता के केंद्र में ला दिया है। 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी 2020) ने पहली बार मातृभाषा आधारित शिक्षा, बहुभाषावाद, कौशल आधारित शिक्षा, शोध-उन्मुख उच्च शिक्षा और भारतीय ज्ञान परंपरा के समावेश को नीति के केंद्र में रखा। इस नीति के तीन महत्वपूर्ण आयाम उल्लेखनीय हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का एक केंद्रीय सिद्धांत यह है कि प्रारंभिक स्तर पर सीखने की प्रक्रिया तभी ज्यादा प्रभावी होती है जब बच्चा अपनी प्रथम भाषा या मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करे। यह कोई भावनात्मक आग्रह नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय शोध पर आधारित एक स्थापित शैक्षिक सत्य है। UNESCO, UNICEF और विश्व बैंक के कई अध्ययन यह दर्शाते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा से बच्चों की अवधारणात्मक समझ, स्मरण शक्ति, विश्लेषण क्षमता और समस्या समाधान कौशल अधिक विकसित होते हैं। इसीलिए एनईपी 2020 यह सुनिश्चित करती है कि कक्षा 5 तक और जहां संभव हो, कक्षा 8 तक शिक्षण की प्राथमिक भाषा मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा ही हो। आईआईटी, एम्स और अन्य तकनीकी संस्थानों में भारतीय भाषाओं को शामिल करने की दिशा में उठाए गए कदम शिक्षा के भारतीयकरण की एक ऐतिहासिक शुरुआत है। वैदिक गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष, दर्शन और साहित्य को शोध-आधारित मॉडयूल के रूप में शामिल करने के प्रयास हो रहे हैं और मौजूदा नेतृत्व के प्रोत्साहन से यह प्रक्रिया एक 'सांस्कृतिक पुनरुत्थान' से आगे बढ़कर वैज्ञानिक कठोरता पर आधारित हो रही है। भाषा-आधारित अवरोध आज भी ड्रॉपआउट का प्रमुख कारण है। इस समस्या का समाधान केवल पुस्तकों के अनुवाद से नहीं बल्कि शिक्षक प्रशिक्षण, स्थानीय शब्दावली निर्माण, डिजिटल सामग्री और परीक्षा प्रणाली में क्षेत्रीय भाषाओं के विस्तार से हो रहा है। एनईपी 2020 के बाद शिक्षक-शिक्षण में गुणवत्तात्मक सुधारों पर अभूतपूर्व ध्यान दिया गया है। NCTE का National Mission for Mentoring, डिजिटल प्रशिक्षण मॉडयूल, DIETS का आधुनिकीकरण और विशेषज्ञ शिक्षकों का मेंटरिंग ढांचा ये सभी संकेत देते हैं कि शिक्षक प्रशिक्षण आज 'पेशेवर क्षमता-निर्माण' का राष्ट्रीय अभियान बन चुका है।
कौशल विकास और व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास अब वास्तविक जमीनी परिवर्तन का रूप ले चुके हैं। शिक्षा वह आधार है जिस पर समाज, संस्कृति और राष्ट्र की आत्मा निर्मित होती है। इसीलिए 'मैकाले मॉडल' से मुक्ति को केवल तकनीकी या पाठ्यक्रमीय सुधार तक सीमित नहीं देखा जा सकता। जिस परिवर्तन की ओर भारत अग्रसर है, वह मात्र शैक्षणिक सुधार नहीं बल्कि मानसिकता और राष्ट्रीय दृष्टिकोण का पुनर्निर्माण है। यही परिवर्तन उस आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना को साकार करता है। गुलामी की मानसिकता से मुक्ति का प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान भी मूलतः इस व्यापक सत्य की ओर ही संकेत करता है कि राष्ट्र की प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध बाहरी नहीं बल्कि भीतर जड़ जमा चुकी वह सोच है जो स्वयं को सीमित और निर्भर मानकर चलती रही है। नई शिक्षा दिशा को यह विचार एक वैचारिक आधार प्रदान करता है और स्पष्ट करता है कि भविष्य का भारत केवल ढांचागत बदलाव से नहीं बल्कि मानसिक स्वतंत्रता की गहरी प्रक्रिया से निर्मित होगा।

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