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संविधान पर बहस क्यों जारी है?

भारत के संविधान निर्माता स्वतन्त्रता सेनानियों ने इस देश का लक्षित संकल्प…

10:13 AM Jan 24, 2025 IST | Rakesh Kapoor

भारत के संविधान निर्माता स्वतन्त्रता सेनानियों ने इस देश का लक्षित संकल्प…

भारत के संविधान निर्माता स्वतन्त्रता सेनानियों ने इस देश का लक्षित संकल्प (आब्जेक्टिव रिजोल्यूशन) 1946 में संविधान सभा में पारित कर दिया था। तब संविधान लिखना शुरू ही हुआ था। इस संकल्प में लगभग उन्हीं बिन्दुओं को छुआ गया था जिन पर 1928 में गठित मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता वाली संविधान प्रारूप समिति ने जोर दिया था। भारत को एक धर्म निरपेक्ष व समाजवादी राष्ट्र बनाने की परिकल्पना मोतीलाल समिति ने प्रस्तुत की थी और भारत के प्रत्येक नागरिक को वोट का अधिकार दिया था तथा भारत को एक संघीय ढांचे का राष्ट्र मानते हुए केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के अधिकार नियत किये थे। इस समिति ने एक मजबूत केन्द्र सरकार की संरचना के साथ ही राज्यों को अपनी भौगोलिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों को संरक्षित रखते हुए शासनाधिकार दिये थे और इन अधिकारों की दो सूचियों का खाका रखा था। एक केन्द्रीय सूची तथा दूसरी राज्य सूची। इन दो सूचियों में जो विषय नहीं आ पाये थे उन पर केन्द्र की सरकार का वर्चस्व स्थापित किया था। तब तक यह तय नहीं हुआ था कि अंग्रेजों की भारत का बंटवारा करने की नीति है भी अथवा नहीं।

मोती लाल समिति ने भारत के हर क्षेत्र की प्रतिनिधी संस्थाओं से संविधान के बारे में सुझाव मांगे थे मगर मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इसमंे शामिल होने से इंकार कर दिया था। इसके बावजूद लीग के कुछ नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से इस समिति में शिरकत की थी। समिति में कांगेसी नेता सुभाष चन्द्र बोस भी थे और पं. जवाहर लाल नेहरू के साथ एम ए अंसारी भी। मोती लाल समिति ने अंग्रेजों द्वारा हिन्दू– मुसलमानों को तकसीम करने की नीति के खिलाफ देश के मुसलमानों व सिखों के लिए पृथक चुनाव मंडलों की व्यवस्था को अस्वीकार किया और प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट के अधिकार से लैस करने की अनुशंसा की। इस समिति की रिपोर्ट में तथ्यपरक तर्कों के आधार पर भारत को एक संघीय ढांचे का देश माना गया। जिसका असर अंग्रेज सरकार पर भी पड़ा और 1935 में अंग्रेजों द्वारा बनाये गये भारत सरकार कानून (गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट) में भारत के संघीय ढांचे को स्वीकार किया गया। इससे पहले का 1919 का जो भारत सरकार कानून था उसमें भारत को एक संघीय देश स्वीकार नहीं किया गया था।

इस नये कानून के तहत अंग्रेजों ने प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव कराये गये जिसमें कांग्रेस पार्टी को शानदार सफलता मिली परन्तु पंजाब व बंगाल में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल सका। बाद में 1947 में भारत का बंटवारा हुआ तो प्रमुख रूप से इन दो राज्यों को ही हिन्दू व मुस्लिम के आधार पर विभाजित किया गया। मगर 1936 के चुनावों में जिन्ना की मुस्लिम लीग को भारी शिकस्त मिली। संयुक्त पंजाब की 175 सदस्यीय विधानसभा में पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला । जबकि जिन्ना की मुस्लिम लीग को सिर्फ दो सीटें मिली और यह पार्टी मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों पर भी पराजित हुई। अंग्रेजों ने 1909 में ही मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल बना दिया था। बाद में 1919 में सिखों के लिए भी एेसा किया गया। जिन्ना ने 1936 के बाद ही खुल कर एेलानिया साम्प्रदायिक राजनीति शुरू की जिसके चलते 1945 में हुए चुनावों में इसे पंजाब में भी अच्छी सफलता मिली मगर यह पूर्ण बहुमत से दूर रही। मगर ये चुनाव अंग्रेजों द्वारा चयनित मतदाताओं के आधार पर ही हुए थे। उस समय बामुश्किल 11 प्रतिशत संभ्रान्त माने जाने वाले लोगों को मतदान का अधिकार था। अतः भारत के आब्जेक्टिव रिजोल्यूशन में वयस्क आधार पर मतदान कराये जाने का लक्ष्य तय किया जाना कांग्रेस पार्टी के 1931 मे हुए करांची अधिवेशन से जाकर जुड़ता है जिसकी सदारत सरदार पटेल ने की थी। इससे पिछला कांग्रेस अधिवेशन 1930 में लाहौर में हुआ था जिसकी अध्यक्षता पं. जवाहर लाल नेहरू ने की थी ।

इसी अधिवेशन में कांग्रेस पार्टी ने अंग्रेजों से पूर्ण स्वराज्य की मांग की थी जबकि 1931 कराची अधिवेशन में भारत के लोगों को आश्वासन दिया गया था कि स्वतन्त्र भारत में उन्हें मौलिक नागरिक अधिकारों से लैस किया जायेगा और हर जाति धर्म व वर्ग के वयस्क स्त्री-पुरुषों को एक वोट का अधिकार दिया जायेगा। इसी अधिवेशन मंे मुसलमानों व सिखों के लिए पृथक चुनाव मंडलों की व्यवस्था को समाप्त किये जाने की घोषणा की गई थी। परन्तु मुस्लिम जनता को भरोसा दिया गया था कि जहां भारत का फौजदारी कानून हर व्यक्ति के लिए बराबरी पर लागू होगा वहीं मुसलमानों के अपने घरेलू कानून लागू रहेंगे। इसकी असल वजह यह थी कि मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिन्दू पार्टी कहता था और अंग्रेज इसे राष्ट्रवादी पार्टी समझते थे। लीगी नेता मुस्लिमों को डराते थे कि कांग्रेस राज में उनके हित सुरक्षित नहीं रहेंगे अतः उस समय तक देश की आबादी में 24 प्रतिशत हिस्सा रखने वाले मुस्लिमों की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी बहुत मायने रखती थी क्योंकि लीगी नेता पृथक मुस्लिम राज्य बनाने की मांग कर रहे थे। 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद में हुए सम्मेलन में मुसलमानों के लिए पृथक राज्य बनाने की मांग रखी गई थी। इसकी अध्यक्षता प्रख्यात शायर अल्लामा इकबाल ने की थी। अतः 1931 के करांची अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को आश्वासन देना बहुत जरूरी माना गया था जिससे वे भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ भाग ले सकें। मगर मोती लाल समिति पहले ही कह चुकी थी कि स्वतन्त्र भारत में सभी हिन्दू–मुसलमानों के अधिकार एक समान होंगे और सभी को बिना भेदभाव के एक वोट का अधिकार मिलेगा। अतः जब 1946 से संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान लिखना शुरू किया तो उसके सामने मोती लाल नेहरू समिति की रिपोर्ट भी थी। भारत का संविधान लिखे जाने के बीच ही अंग्रेजों ने 1947 में भारत का बंटवारा कर दिया। अतः 15 अगस्त 1947 से भारत में एक एेसी अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आयी जिसमें हिन्दू महासभा के प्रतिनिधी डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे।

भारत का पूरा संविधान इसके बंटवारे की छाया में ही लिखा गया जिसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष दलितों के सबसे बड़े मसीहा डा. भीमराव अम्बेडकर थे। उन्हें गांधी जी के आग्रह पर ही इसका अध्यक्ष बनाया गया था। डा. अम्बेडकर ने ही भारत का संविधान लिखा जो स्वयं में बहुत क्रान्तिकारी कदम था। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में भारत के बहुसंख्य समाज को चार वर्णों में बांटा गया था और उनकी जन्म गत जाति के आधार पर सजायें मुकर्रर की गई थी। डा. अम्बेडकर इस वर्ण व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे क्योंकि उनका जन्म स्वयं एक दलित व अछूत समझी जाने वाली जाति में हुआ था। उन्होंने हिन्दू समाज की इस उत्पीड़नकारी प्रवृत्ति के खिलाफ जंग छेड़ी थी और दलित समाज से आगे बढ़ने का आह्वान किया था। अतः यह समझना बहुत जरूरी है कि भारत का संविधान किस सामाजिक परिवेश की छाया में लिखा गया। अतः भारत का संविधान एेसा कोहिनूर है जिसकी चमक पूरी दुनिया में फैलती है। यह भारतीय समाज की सबसे अन्तिम सीढ़ी पर बैठे अन्तिम आदमी द्वारा लिखा गया एेतिहासिक जीवन्त दस्तावेज है जिसमें भारत की पहचान ही नहीं बल्कि इसकी विशिष्टता छिपी हुई है। वर्तमान राजनीति में इसी संविधान को लेकर व्यापक बहस छिड़ी हुई है और कांग्रेस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी व उनकी बहन श्रीमती प्रियंका गांधी खुल कर आरोप लगा रहे हैं कि वर्तमान सत्तारूढ़ दल इसे बदलना चाहते हैं। वास्तव में संविधान की बहस को शहरों मे बैठे संभ्रान्त लोग नहीं बल्कि गांवों में बैठे साधारण नागरिक आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी के नेता गण लगातार यह सफाई दे रहे हैं कि उनकी मंशा एेसी नहीं है मगर इसके बावजूद यह अवधारणा भारत के पिछड़े व अनुसूचित समाज मे पैठ कर गई है। इसी वजह से वर्तमान राजनीति में यह बहुत प्रासंगिक विमर्श है। वास्तविकता यह है कि पिछले कुछ वर्षओं से शुरू हुए इस विमर्श को दलित व पिछड़ा समाज अपने दिल के बहुत करीब महसूस कर रहा है। इसी संविधान में बाबा साहेब यह लिख कर गये हैं कि भारत मंे किसी भी पार्टी की सरकार लोक- कल्याणकारी सरकार होगी। इसे सिद्ध करने की कवायद में ही संविधान बहस का विषय बना हुआ है । हमने मई में हुए लोकसभा चुनावों में यह पाया कि यह विषय फलदायी राजनीतिक विमर्श भी है।

दर असल संविधान लिखने का काम जिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने किया था उनके अपने हित भारत देश पर सर्वदा कुर्बान रहे। इसलिए भाजपा के नेता इस हकीकत को न समझे हों एेसा कभी नहीं हो सकता। संविधान लिखने में इस पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी कुछ योगदान रहा है क्योंकि वह भी संविधान सभा के सदस्य थे। यह बात दीगर है कि उनके कांग्रेस पार्टी से गंभीर मतभेद थे जिसकी प्रतिध्वनियां हम आज भी सुनते रहते हैं।

संविधान सभा ने खुद अपने लिए भी नियम बनाया था कि इसकी कार्यवाही में किसी भी विषय पर अन्तिम फैसला करते हुए मतदान नहीं कराया जायेगा बल्कि हर विषयानुच्छेद आम सहमति से ही पारित होगा। अतः जब संविधान पर गांवों में चर्चा होती है तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यह उक्ति याद आना स्वाभाविक है कि ‘भारत के लोग अनपढ़ व गरीब हो सकते हैं मगर वे मूर्ख नहीं हैं’। हम एक दिन बाद 26 जनवरी को इसी संविधान के लागू होने की 76वीं वर्ष गांठ पूरे तर्जो-ओ-ताब से मनाएंगे अतः भारत के हर नागरिक को गर्व से संविधान को देखना चाहिए और पूरे जोश के साथ अपने मतदाता होने पर फख्र करना चाहिए।

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