यूपी में केएल शर्मा पर दांव लगाएगी कांग्रेस?
कांग्रेस नेतृत्व ने यूपी को लेकर एक बड़ा फैसला लिया है जिसमें यूपी कांग्रेस की सारी..
‘खामोशियों की बस इतनी सी इल्तिज़ा थी, तुम कुछ कहते तो लफ्ज़ खुशबुओं सा बिखर जाते।
इस गली जो तुम आते तो लफ्ज़ कुछ तेरे पैरों से लिपट जाते, कुछ तेरे आगोश में सिमट जाते’।।
कांग्रेस नेतृत्व ने यूपी को लेकर एक बड़ा फैसला लिया है, जिसमें यूपी कांग्रेस की सारी कमेटियों को भंग कर दिया गया है, यह कहते हुए कि 2027 के यूपी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र यहां नई कमेटियों का गठन होगा। पर इस फैसले में यूपी के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को अभयदान दिया गया है, पर बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी, सो कहा जा रहा है कि आने वाले कुछ दिनों में अजय राय के विकल्प पर भी फैसला ले लिया जाएगा। कांग्रेस शीर्ष से जुड़े सूत्र खुलासा करते हैं कि गांधी परिवार के बेहद भरोसेमंद और अमेठी के सांसद केएल शर्मा को यूपी कांग्रेस का नया मुखिया बनाया जा सकता है। किशोरी लाल शर्मा 1984-85 से ही गांधी परिवार के लिए अमेठी का काम देख रहे हैं, इस नाते भी उन्हें यूपी कांग्रेस की जमीनी स्तर पर थाह है। इसके अलावा उन्होंने नई दिल्ली के महादेव रोड पर अपना एक दफ्तर बना रखा है जहां थोक भाव में यूपी कांग्रेस के फरियादी आते हैं, शर्मा उनकी बातों को सोनिया-राहुल व प्रियंका तक पहुंचाने का काम करते हैं। वैसे भी कांग्रेस यूपी में लगभग 35 सालों से सत्ता से बेदखल है, इस नाते भी जमीनी स्तर पर राज्य में उसका संगठन बेहद कमजोर हो गया है। यूपी को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष के ताजा फैसले से राज्य मंडल, जिला, शहर, ब्लाॅक और इससे संबंधित 46 विभागों के लगभग 15 हजार पदाधिकारी पैदल हो गए हैं। सूत्रों की मानें तो अध्यक्ष के इस ताजा फैसले के पीछे राहुल गांधी की ‘संभल चलो’ यात्रा थी, जिसमें यूपी के तमाम पदाधिकारियों से गाजीपुर बाॅर्डर पर जुटने के लिए कहा गया था, लेकिन जब राहुल व प्रियंका वहां पहुंचे तो काफी कम संख्या में कांग्रेस पदाधिकारियों की उपस्थिति देखी गई। इसका ठीकरा भी अजय राय के मत्थे ही फोड़ा गया, कहा गया कि वे बनारस और पूर्वांचल से बाहर निकलते ही नहीं हैं तो राज्य के पार्टी कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार कैसे हो?
नोएडा के किसानों की मांग अलग क्यों है?
किसानों का आंदोलन एक बार फिर से केंद्र सरकार के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है। पर नोएडा-ग्रेटर नोएडा के किसानों की मांगें हरियाणा-पंजाब के किसानों की मांगों से किंचित अलग है। यहां के किसानों का दर्द है कि वे एमएसपी की मांग करें भी तो कैसे करें जब उनके पास खेती के लायक जमीनें ही नहीं बची हैं। दरअसल, नोएडा प्राधिकरण, ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण व यमुना विकास प्राधिकरण के खिलाफ दस किसान संगठनों ने मोर्चा खोल रखा है। इनकी बस यही मांग है कि पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के तहत प्रभावित किसानों को 10 फीसदी प्लाॅट और 64.7 फीसदी बढ़ा हुआ मुआवजा दिया जाए तथा 1 जनवरी 2014 के बाद सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि पर बाजार दर से चार गुना मुआवजा और 20 फीसदी प्लाॅट मिले। इसके अलावा सभी भूमिधर और भूमिहीन किसानों के बच्चों को रोजगार और पुनर्वास का लाभ मिले। इन किसानों की शिकायत मुख्यमंत्री योगी से कहीं ज्यादा उनके अधिकारियों से है जो सीएम को सही जानकारी देने की जगह उन पर लाठी चलवा रहे हैं, उन्हें गिरफ्तार कर रहे हैं।
आगे क्या करेंगे शिंदे?
महाराष्ट्र में ढोल-बाजे की थाप पर महायुति की नई सरकार का गठन हो चुका है, देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही एक बदले अवतार में नजर आ रहे हैं, उन्होंने उद्धव ठाकरे गुट व शरद पवार गुट के पुराने नेताओं को फोन कर कहा है कि ‘हमारी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं अलग-अलग हो सकती हैं पर हमारा साथ पुराना है, सो अगर आपका कोई भी काम हो निःसंकोच सीधे मुझे फोन करिएगा।’ यानी नेताओं के आने-जाने की संभावनाओं को फडणवीस खुला रखना चाहते हैं।
वहीं दूसरी ओर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री व मौजूदा उप मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे हैं जो अब भी छटपटा रहे हैं, बेबस महसूस कर रहे हैं। दिल्ली में अमित शाह से मिलकर उन्होंने खूब चिरौरी की थी कि ‘छह महीनों के लिए ही सही एक बार उन्हें फिर से सीएम पद की शपथ दिला दी जाए’ पर बात पर तामील नहीं हुई। फिर वह गृह मंत्रालय मिलने की आस में डिप्टी सीएम बनने को भी राजी हो गए, पर फडणवीस ने यह कहते हुए उनकी मंशाओं पर पानी फेर दिया कि राज्य के गृह मंत्री को अपना समन्वय केंद्रीय गृह मंत्री से हर पल बिठा कर रखना पड़ता है और उनका यानी फडणवीस कारिश्ता अमित शाह से कहीं ज्यादा अच्छा है जबकि सच तो यह है कि फडणवीस की तुलना में शाह के रिश्ते एकनाथ िशंदे और अजित पवार से कहीं ज्यादा बेहतर हैं। अब शिंदे के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने विधायकों को जोड़कर रखने की है, क्योंकि भाजपा अपने बलबूते ही बहुमत से मात्र 8 अंक पीछे है और यह कमी अजित पवार ही आसानी से पूरी कर दे रहे हैं। इससे पहले जब महायुति सरकार में राज्य की कमान शिंदे के हाथों में थी तो उन्होंने फंड आबंटित करने में भाजपा विधायकों की जगह अपने विधायकों को ज्यादा तरजीह दी थी, शायद अब भाजपा भी इसी राह पर चलने का इरादा रखती हो। शिंदे के विधायक भी उनके साथ तब तक एकजुट रहेंगे जब तक कि उन्हें सत्ता की मलाई काटने को मिले वरना वे अपने पुराने घर लौटने की भी सोच सकते हैं, वैसे भी भाजपा इस खेल में सबसे ज्यादा माहिर है, शिंदे इस सच्चाई से भी मुंह नहीं छुपा सकते। शपथ ग्रहण समारोह के दौरान भी शिंदे की कुर्सी देवेंद्र फडणवीस की कुर्सी के साथ लगाई गई थी, पर वे वहां नहीं बैठकर दूर जाकर बैठे, उन्होंने पहले ही फडणवीस को अपने इरादों की भनक दिखा दी है।
…और अंत में
सपा और कांग्रेस की ताजा-ताजा दोस्ती में गिले-शिकवों की गांठें पड़ रही हैं, अभी हालिया चुनाव में सपा-कांग्रेस ने अपनी परचमी दोस्ती का ऐलान किया था- ‘यूपी को यह साथ पसंद है।’ पर संसद में दोनों दलों की प्राथमिकताएं अलग-अलग दिख रहीं थीं, राहुल अडाणी मुद्दे को प्रमुखता से सदन में उठाना चाहते थे, सूत्रों की मानें तो अखिलेश अडाणी से किनारा करना चाहते थे क्योंकि एक महिला पत्रकार के सौजन्य से अडाणी व अखिलेश की बात बन गई है। राहुल सीधे संभल जाने की जिद पर अड़े थे, उन्हें प्रियंका के साथ भले ही गाजीपुर बाॅर्डर पर रोक लिया गया हो पर वे मुसलमानों को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि कांग्रेस मुसलमानों की सबसे बड़ी हितैषी है, यही बात अखिलेश को नागवार गुजर रही है।