दम तोड़ जाएगी सरायकी भाषा ?
बलूचिस्तान में बगावत की खबरों के बीच ही उधर सरायकिस्तान और सरायकी बोली…
बलूचिस्तान में बगावत की खबरों के बीच ही उधर सरायकिस्तान और सरायकी बोली या मुल्तानी-भाषा की चर्चा भी एक बार फिर सुर्खियों में है। यूएनओ के भाषाविद चेतावनी दे रहे हैं कि आगामी 50-60 वर्षों में पंजाबी सरायकी व बलूची, पश्तो आदि भाषाओं पर भी संकट पैदा होने लगेगा। पंजाबी भाषा में इस चेतावनी के बाद पिछले लगभग 15 वर्ष में भाषा को टैक्नोलॉजी से जोड़ने के अनेक नए प्रयास किए हैं मगर बलूची, पश्तो और सरायकी पर खतरा अभी भी कायम है।
भाषाएं व बोलियां कैसे दम तोड़ने लगती हैं और कैसे जि़ंदा रहती हैं, इस बात का सही-सही अनुमान लगाना हो तो सरायकी भाषा पर नज़र डाल लें। नई दिल्ली में मंडी हाऊस के सामने सिकंदरा रोड से निकलते ही भगवान दास रोड पर स्थित है एक इमारत ‘बहावलपुर हाऊस’। यह इमारत भारत-पाक विभाजन से पूर्व बहावलपुर स्टेट के नवाब का पूर्व आवास था। नवाब जब कभी वायसराय से मिलने आते इसी आवास में ठहरते। नवाब का स्टाफ व स्वयं नवाब न तो उर्दू में बात करते थे, न अंग्रेजी में। सिर्फ सरायकी में ही आदेश दिए जाते थे और सरायकी में ही अमल होता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नवाब का निजी स्टाफ भी यहां से चला गया। अस्थायी रूप से वर्ष 1969 से फरवरी 1974 तक इसकी देखरेख का कार्य अमेरिकन लायब्रेरी को दे दिया गया था। बाद में ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’ ने इसे अपना मुख्यालय बना लिया। इसी के एक भाग में ‘नेशनल इंस्टीच्यूट आफ कत्थक डांस’ स्थापित है।
वर्ष 2011 में ‘दिल्ली मैट्रो’ के निर्माण के समय इस भवन को ढहाने का प्रस्ताव भी आया लेकिन अनेक संस्थानों के विरोध के बाद ‘मैट्रो’ का मार्ग थोड़ा बदल दिया गया ताकि इस ऐतिहासिक इमारत को क्षति न पहुंचे। बहावलपुर के नाम से जुड़ी यह एकमात्र इमारत नहीं है। ‘बहावलपुर भवन’ दिल्ली के अलावा भी अन्यत्र नगरों में बने हुए हैं लेकिन ये भवन न तो किसी नवाब ने बनवाए, न ही इनमें सरकारी अनुदान लिया गया। हरिद्वार, राजपुरा, पटियाला, सोनीपत व अन्य अनेक नगरों में ऐसे बहावलपुर भवन हैं जो बहावलपुरी बिरादरी व वहां की संस्कृति से जुड़े लोगों ने बनवाए हैं। ये लोग भारत-पाक विभाजन के मध्य जब इधर आए तो अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने मूल स्थान के लिए उन्होंने अपने मूल स्थान ‘बहावलपुर’ और मुल्तान के नाम पर अपने चंदों से भवन बनवाए।
बहावलपुर की चर्चा क्यों? यह पाकिस्तानी क्षेत्र है। इसकी भौगोलिक निरंतरता भी भारत की सीमा से जुड़ी हुई नहीं है लेकिन भारतीय प्रसंग में यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी भी उत्तर भारत, जिसमें पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान व मुम्बई के कुछ क्षेत्रों में बहावलपुर की सरायकी भाषा व संस्कृति से जुड़ाव बना हुआ है। लगभग एक करोड़ लोग अपने घरों में सरायकी बोली बोलते हैं। इस बोली बनाम भाषा का अपना शब्द कोष है जो भारत में तैयार किया गया है। दिल्ली में ही बसे उर्दू शायर डॉ. राणा गन्नौरी ने इसे तैयार किया था। इस बोली बनाम भाषा में कविताएं, गज़लें व गद्य लेखन की परंपरा स्वातंत्र्योत्तर भारत में बराबर बनी हुई है। बहावलपुर का जि़क्र सिर्फ इतिहास के पन्नों तक सीमित नहीं है। अब भी कोशिशें होती हैं कि परिवारों में हर्षोल्लास के माहौल में बहावलपुरी लोकगीत गाए जाएं, वैसे खेल भी खेले जाएं जो अतीत में मुल्तान, बहावलपुर, अहमदपुर डेरा गाज़ी खान में खेले जाते थे। भूगोल से कटे लेकिन संस्कृति की खुशबू से नहीं कट पाए। कहीं-कहीं, पंजाबी, चोलिस्तान व बहावलपुर का मिश्रित स्वरूप भी रचा बसा हुआ है।
सरायकी बोली के भी अपने-अपने रंग हैं। इनमें मुल्तानी एवं केंद्रीय सरायकी का प्रयोग जि़ला डेरा गाज़ी खान, मुज्ज़फरगढ़, लैय्या, मुल्तान व बहावलपुर में खूब होता है। लैय्या में ही जन्मे हैं उर्दू शायर महेंद्र प्रताप ‘चांद’। दक्षिणी सरायकी अपने क्षेत्र, जि़ला रहीमयार खान और जि़ला राजानपुर में ज़्यादा प्रचलित है। सिंधी सरायकी पूरे सिंध प्रांत में चलती है। उत्तरी सरायकी, जिसे ‘थाली’ भी कहा जाता है, जि़ला डेरा इस्मायल खान और थाल के क्षेत्र में और जि़ला मियांवाली में बोली जाती है। पूर्वी सरायकी में झांगी और शाहपुरी का पुट ज़्यादा है। इसमें पूर्वी माझी उच्चारण भी शामिल है।
एक भारतीय शोधार्थी अंजली गेरा का एक शोधपरक लेख वर्ष 2011 में छपा था, लेख में उसने इस बात पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है, ‘मैं जो भाषा बोलती हूं, वह मेरी नहीं है और मैं वह भाषा बोलती नहीं, जो मेरी है।’ अंजली का संकेत ‘सरायकी’ भाषा के ‘डेरावाली’ स्वरूप की ओर था।
पाकिस्तान में इस समय लगभग दो करोड़ लोग इस सरायकी भाषा का प्रयोग करते हैं। भारत में केवल 70 हज़ार के लगभग लोगों ने ही जनगणना में सरायकी को अपनी भाषा बताया है। मगर प्रख्यात भाषाविद डॉ. राणा गन्नौरी का कहना है कि सही आंकड़ा एक करोड़ के लगभग है। सरायकी को अपने घरों में बोलने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश, विशेष रूप से गाजि़याबाद, साहिबाबाद, दिल्ली, हरियाणा के रोहतक, सोनीपत जि़ले, जि़ला हिसार के कुछ कस्बे, जि़ला सिरसा और कैथल के कुछ कस्बे, अबोहर, फाजिल्का क्षेत्र के अनेक परिवार, पंजाब में राजपुरा, पटियाला, संगरूर व बठिंडा में फैला है सरायकी भाषा-भाषियों का परिवार। मगर अपनी मां बोली को बचाने की तड़प धीरे-धीरे कम होती जा रही है। भारत-पाक से आए इन परिवारों के लोग अब जनगणना के समय भी अपनी मां बोली का जि़क्र करने में संकोची हो जाते हैं।
बहावलपुर की यात्रा पर गए एक लाहौरी पत्रकार हारुन अशरफ ने ‘बहावलपुर-डायरी’ के नाम से एक लेख माला लिखी, जिसमें उसने इसे एक जादुई शहर बताया था। अशरफ के अनुसार यहां का नवाब सादिक दरअसल में शाहजहां की मानिंद भव्य निर्माणों का शौकीन था। यहां का सादिकगढ़ पैलेस, नूर महल, दरबार महल, गुलज़ार महल, बहावलपुर म्यूजियम, जामिया मस्जिद, चिडि़याघर आदि गवाह हैं कि नवाब सादिक ने दुनिया की हर खूबसूरत व नायाब कलाकृति को यहां लाने का प्रयास किया था।
थोड़ा जि़क्र विभाजन के समय का कर दूं। पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल जिन्ना साहब उस वक्त परेशान हो गए थे जब उन्हें बताया गया कि उनके नए बनाए देश के पास तो इतना धन भी नहीं है कि अपने फौजियों और मुलाजि़मों को एक माह का वेतन भी दिया जा सके। तब जिन्ना ने अपने दोस्त नवाब बहावलपुर से ही मदद मांगी थी। नवाब ने तत्काल 60 करोड़ की मुद्रा भेजी ताकि नया मुल्क आगे सरक सके। यहां यह जि़क्र भी मुनासिब होगा कि बहावलपुर 1955 तक स्वतंत्र स्टेट बना रहा। उस समय उसकी आबादी साढ़े 13 लाख थी और क्षेत्रफल 45911 वर्ग किलोमीटर था।