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Worrying Results From Punjab: पंजाब से चिन्ताजनक परिणाम

02:29 AM Jun 13, 2024 IST | Shivam Kumar Jha
worrying results from punjab  पंजाब से चिन्ताजनक परिणाम

Worrying Results From Punjab: पंजाब का लोकसभा परिणाम देश और प्रदेश दोनों को चिन्ताजनक छोड़ गया है। जहां यह संतोष की बात है पटियाला से डा. धर्मवीर गांधी और होशियारपुर से डा. राजकुमार छब्बवाल को छोड़ कर जनता ने किसी भी ‘फसली बटेर’ को दाना नहीं डाला,पर दो चुनाव क्षेत्रों का परिणाम जहां लोगों ने अच्छे बहुमत से रेडिकल पृष्ठभूमि के दो आज़ाद उम्मीदवारों को विजयी बना दिया, से एक वर्ग की दिशा को लेकर चिन्ता पैदा हो रही है। अमृतपाल सिंह जो राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत डिब्रूगढ़ जेल में बंद है खडूर साहिब से लगभग दो लाख वोट से विजयी हुआ है। दूसरा कट्टरपंथी उम्मीदवार जो विजयी हुआ है वह इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह का पुत्र सरबजीत सिंह खालसा है जो फरीदकोट से 70 हज़ार वोट से जीता है। अमृतपाल सिंह को भारी 4 लाख वोट मिले और सरबजीत सिंह को 3 लाख। इन दोनों को मिले भारी समर्थन से यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या पंजाब दोबारा उग्रवाद की तरफ़ बढ़ रहा है?

सरबजीत सिंह पहले भी तीन बार चुनाव लड़ चुका है पर असफल रहा था। अब समर्थन क्यों मिला है? माहौल क्यों बदला है? इसी के साथ अगर यह देखा जाए कि अकाली दल का लगातार पतन जारी है और वह मुश्किल से बठिंडा की सीट जीत सके हैं, तो लगता है कि एक उग्र पंथक लहर का यहां फिर आग़ाज़ हो रहा है। क्या इसका कारण है कि अकाली दल के पतन से सिख राजनीति में जो शून्य पैदा हुआ है उसे उग्रवादी भर रहे हैं? पर यह बात भी आंशिक तौर पर सही लगती है क्योंकि यहां राजनीतिक शून्य नहीं है जो विधानसभा चुनाव में आप की जीत और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले भारी समर्थन से पता चलता है। यह भी दिलचस्प है कि जिस कांग्रेस को ब्लू स्टार के लिए ज़िम्मेवार ठहराया गया उसी को पंजाब की जनता ने सबसे अधिक, सात सीटें, देकर समर्थन दिया है। कांग्रेस को मिले समर्थन से तो प्रतीत होता है कि पंजाब के लोग उस त्रासदी से उभर चुके हैं पर अमृतपाल और सरबजीत को मिला समर्थन तो विपरीत दिशा बताता है। पंजाब दो विपरीत दिशाओं में क्यों चल रहा है?

पहली बात तो यह है कि यहां खालिस्तान का समर्थन नहीं है। यह लहर विदेशी एजेंसियां क़ायम रखे हुए हैं। न ही यहां आतकंवाद ही है जैसे नई सांसद कंगना रनोत ने आरोप लगाया है। उनके साथ चंडीगढ़ एयरपोर्ट में जो हुआ वह अत्यंत निन्दनीय है। उत्तेजना कुछ भी हो सुरक्षा कर्मी का काम सुरक्षा देना है हमला करना नहीं पर कंगना का यह कहना कि “पंजाब में आतंकवाद और हिंसा बहुत बढ़ रहें हैं”, भी अनुचित है। एक सांसद को ज़िम्मेवारी दिखानी चाहिए और संवेदनशील मामलों पर लापरवाह बयान नहीं देने चाहिए। पंजाब में न हिंसा बढ़ी है और न ही आतंकवाद का मसला है। पर हां,यहां उग्रवाद रहता है। सिख उग्रवाद यहां बार-बार उभरता है और बार बार ठंडा पड़ जाता है। सरदार प्रकाश सिंह बादल को बहुत श्रेय जाता है कि उन्होंने पंजाब को सही रास्ते पर रखा था। अगर वह परिवारवाद को इतना बढ़ावा न देते और भ्रष्टाचार के इतने आरोप न लगते तो अकाली दल अभी भी महत्वपूर्ण खिलाड़ी होता। इस बार अकाली दल के 10 उम्मीदवार अपनी ज़मानत नहीं बचा सके। लम्बे चले किसान आन्दोलन जिस दौरान 700 के क़रीब किसान मारे गए, ने भी उग्रवाद के लिए उपजाऊ मैदान तैयार कर दिया है। पंजाब और पंजाबियों से निपटने के लिए जो संवेदनशीलता चाहिए वह नज़र नहीं आ रही।

पंजाब का संकट बहुआयामी है। कृषि के संकट का कोई समाधान नज़र नहीं आता। केन्द्र सरकार और किसान संगठनों के बीच संवाद बिल्कुल टूट चुका है। दोनों तरफ़ ज़िद्द है। इस गतिरोध को ख़त्म करने कि लिए नए मंत्री शिवराज सिंह चौहान को पहल करनी चाहिए और किसान संगठनों को भी समझना चाहिए कि केन्द्र सरकार की भी मजबूरियां हैं। बार बार धरने लगा कर और यातायात रोक कर वह पंजाब का अहित कर रहे हैं। उद्योग के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं रहा जिस कारण बेरोज़गारी बढ़ रही है और पंजाबी युवक बाहर भाग रहें हैं। पर्यावरण बिगड़ रहा है और पानी का स्तर भयावह तरीक़े से नीचे गिर रहा है। 2015 में हुई बरगाड़ी बेअदबी और बहिबल कलां गोली कांड के मामले अभी तक लोगों को उत्तेजित कर रहे हैं। बंदी सिखों की रिहाई भी बड़ा मसला बन चुका है जिससे उग्रवादी तत्वों को कहने का मौक़ा मिल जाता है कि पंजाब और विशेष तौर पर सिखों से ‘धक्का’ हो रहा है। यह भावना अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह जैसे नेता पैदा करती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिख समुदाय को साथ जोड़ने का बहुत प्रयास किया है पर सफलता नहीं मिली। एक कारण है कि जिन नेताओं को कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से इम्पोर्ट किया गया वह सब चले हुए कारतूस निकले। किसान आन्दोलन के कारण भाजपा के उम्मीदवारों को गांवों में घुसने नहीं दिया गया। लेकिन असली कारण है कि माईनारिटी अर्थात अल्पसंख्यक भाजपा की नीतियों से घबराते हैं क्योंकि समझा जाता है कि वह बहुसंख्यक शासन क़ायम करना चाहते हैं। यहां भाजपा का वोट विधानसभा चुनाव के 6 प्रतिशत बढ़ कर 18 प्रतिशत हो गया है पर ग्रामीण क्षेत्रों में वॉशआउट ने काम तमाम कर दिया। भाजपा को 23 विधानसभा क्षेत्रों में 8 बढ़त मिली है जबकि कांग्रेस को 37 और आप को 33 पर। अकाली दल को दयनीय 9 पर। अकाली दल अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। वह भाजपा से भी नीचे आ गए हैं।

आप सरकार ने निराश किया और इस परिणाम को वेक अप कॉल ही समझना चाहिए। लोग ज़मीन पर जो बदलाव चाहते थे वह उन्हें नहीं मिल रहा। जिसे गवर्नन्स अर्थात् शासन कहा जाता है, में कोई परिवर्तन नहीं आया। सरकार ने 300 यूनिट बिजली मुफ्त कर दी, मुफ्त आम आदमी मुहल्ला क्लीनिक शुरू कर दिए, 43000 सरकारी नौकरियां देने का दावा किया है पर लोग संतुष्ट नहीं। लम्बे किसान आन्दोलन का भी कुछ असर पड़ा है। महिलाओं को 1000 रुपए महीना देने का वायदा भी पूरा नहीं हुआ। न ही ड्रग्स के मामले में कुछ ठोस ही किया गया। आप के पंजाब यूनिट का यह दुर्भाग्य है कि उन्हें अब दिल्ली का बोझ भी उठाना पड़ रहा है। पार्टी से भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दा छिन गया है। आप के प्रति लोगों के असंतोष का कांग्रेस फ़ायदा उठा गई है। कांग्रेस का प्रदर्शन उस वक्त अच्छा रहा जब कई बड़े नेता दलबदल कर गए हैं। परनीत कौर को पटियाला में तीसरे नम्बर पर रख कर लोगों ने बता दिया कि दलबदलुओं की कैसी इज्जत है। कांग्रेस के प्रादेशिक नेताओं ने आप से दूरी बनाकर खुद को शासन विरोधी भावना से बचा लिया। अकाली दल के पतन के बाद कांग्रेस प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई है। इसका फ़ायदा होगा।

अकाली दल की दुर्गत का नुक़सान हो रहा है क्योंकि उनकी जगह जिन्हें गर्म ख्याली कहा जाता है, ले रहे हैं। खडूर साहिब और फ़रीदकोट दोनों अकाली गढ़ रहे हैं। इससे क्या नतीजा निकाला जाए? कई लोग हैं जो कह रहे हैं कि इसे ख़तरे की घंटी नहीं समझना चाहिए। प्रमुख अर्थशास्त्री डा. लखविनदर सिंह का कहना है कि अमृतपाल और सरबजीत सिंह की जीत को “विकास से सम्बन्धित मसला समझना चाहिए न कि अलगाववादी समस्या”। उनका कहना है कि पंजाब में अर्थिक संकट है। तीन दशक पहले हरित क्रान्ति का प्रभाव ख़त्म हो गया था और तब से पंजाब का लगातार पतन हो रहा है। उनका कहना है कि “लोग बदलाव के लिए बेताब हैं। इसलिए उन्होंने नए परीक्षण के लिए वोट दिया है”। यह भी कहा जा रहा है कि पंजाबी भावना में बह जाते हैं इसलिए इसे किसी विचारधारा की जीत नहीं समझना चाहिए। 1989 के लोकसभा चुनाव में भी नौ कट्टरपंथी चुनाव जीते थे जिनमें सरबजीत सिंह की माता बिमल कौर भी शामिल थी, फिर सब कुछ सामान्य हो गया था। इसलिए कहा जा रहा है कि इन दोनों की जीत से उत्तेजित होने की ज़रूरत नहीं। इन दोनों ने बैलेट बाक्स का सहारा लिया है और सदस्य बनते वक्त संविधान की शपथ लेंगे। और इस बार सिमरनजीत सिंह मान हार गए हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि इन दो की जीत और कुछ नहीं पंजाब की हालत के प्रति असंतोष की अभिव्यक्ति है।

मैं इतना आशावान नहीं हूं। पंजाब में हालात बहुत जल्द उल्टा करवट ले लेते हैं। यह दोनों नए सांसद समय-समय पर खालिस्तान का समर्थन करते रहे हैं। आर्थिक परेशानी, बेरोज़गारी, खेती का संकट कहां नहीं है? बिहार, उड़ीसा, यूपी, मध्यप्रदेश जैसे प्रदेश जो पंजाब से बहुत पिछड़े हैं वहां विरोध की ऐसी उग्रवादी आवाज़ें क्यों नहीं उठती? इन दोनों की जीत से पंजाब से बाहर बहुत ग़लत संदेश गया है। निवेश पर प्रभाव पड़ेगा। इस बहाव को रोकने के लिए प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार दोनों को मिल कर कदम उठाने चाहिए। प्रदेश सरकार को अपना शासन सही करना चाहिए। ड्रग्स के मामले पर और सख्त कदम उठाने चाहिए। युवाओं में जो बेचैनी और असंतोष है उसको कम करने की बहुत ज़रूरत है। और, जैसे मैं दो सप्ताह पहले लिख कर हटा हूं, केन्द्र सरकार को पंजाब की सुध लेनी चाहिए। केन्द्र सरकार मस्त नहीं बैठ सकती। पंजाब के प्रति बेरुख़ी की नीति त्यागनी होगी नहीं तो आगे चल कर बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। दो उग्रवादियों, जो खालिस्तान का समर्थन कर चुके हैं, को विजयी बना कर चेतावनी भेज दी गई है। पंजाब से बात करने का समय अब है।

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Shivam Kumar Jha

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