यह भी कोई उम्र थी जाने की पापा...
हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी कुछ क्षण जरूर आते हैं जब वह समय के द्वारा किए गये फैसले के सामने स्वयं को असहाय पाता है और वक्त के सामने सिर झुका देता है।
04:43 AM Jan 21, 2020 IST | Aditya Chopra
Advertisement
‘‘इक था बचपन
Advertisement
इक था बचपन
Advertisement
बचपन के एक बाबू जी थे
Advertisement
अच्छे सच्चे बाबू जी थे
दाेनों का सुन्दर था बंधन।’’
हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी कुछ क्षण जरूर आते हैं जब वह समय के द्वारा किए गये फैसले के सामने स्वयं को असहाय पाता है और वक्त के सामने सिर झुका देता है। कल जब जीवन के अंतिम स्थल निगम बोध घाट पर मुझे अपने पिता और पंजाब केसरी दिल्ली के मुख्य सम्पादक पूजनीय श्री अश्विनी कुमार के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने के लिए कहा गया तो मुझे लगा कि नियति ने हमारे साथ बहुत अन्याय किया। आज तक पिता जी ने मुझे किसी चीज की कमी नहीं आने दी। जिस पिता की अंगुली पकड़ कर मैं घूमता था, जिस पिता की शिक्षाओं का मैं अनुसरण करता था, वह हमारे बीच नहीं थे।
जब मैंने मुखाग्नि दी तो हृदय भीतर से चीख-चीख कर कह रहा था- ‘‘यह भी कोई उम्र थी जाने की पापा, यह भी कोई समय था हमें छोड़ कर जाने का पापा। कभी मैं अपनी मां की आंखों के अश्रु देखता तो कभी छोटे भाइयों आकाश और अर्जुन को देखता। पापा आप कहा क़रते थे कि जीवन में पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता। आपने तो परम पूज्य पितामह लाला जगत नारायण जी और अपने पिता रमेश चन्द्र जी की शहादत के बाद जिस तरह से परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाया, जिन भावनाओं के साथ आपने हमारा पालन-पोषण किया, जिस निर्भीकता के साथ आपने पत्रकारिता की, आतंकवाद के खिलाफ आपने बेखौफ होकर कलम चलाई, जिस तरह तर्कपूर्ण ढंग से सत्ता की निरंकुशता का मुकाबला किया, जिस तरह से समाज के हर वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, वह हमेशा हमें प्रेरणा देता रहेगा।’’
आपका अंश होने के चलते ही मेरी समाज में पहचान बनी, मुझे अश्विनी जी का बेटा होने का गर्व है। आपके समाज, देश और पेशे के प्रति जीवन के अंतिम क्षणों तक पूरी क्षमता के साथ संघर्ष हमें जीवन भर प्रेरणा देता रहेगा। पिता जी अक्सर कहा करते थे कि मैं ही जानता हूं पिता के जाने का दुःख क्या होता है क्योंकि उन्होंने छोटी उम्र में पिता को खोया था। कभी-कभी वह मुझे डांट भी देते थे तो मैं उनके गुस्से को समझ कर कुछ क्षण के लिए अपने कमरे में चला जाता था, जब वह मेरे दोनों बच्चों को दुलारते तो क्षण भर में उनका गुस्सा दूर हो जाता था। इसे देखकर यह कहावत चरितार्थ हो जाती थी कि दादा के लिए पोतों से प्यार यानी मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है। मैं इस बात का साक्षी रहा हूं कि पिता जी ने मेरे दादा रमेश चन्द्र जी की तरह अपने शरीर के साथ सामान्य व्यवहार किया।
उनकी नजर में यह शरीर तो आत्मा का वस्त्र ही था। अगर वह भौतिक आकर्षण में बंधे होते तो उनकी प्रवृत्ति समझौतावादी होती लेकिन न तो उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता किया और न ही वह राष्ट्रविरोधी ताकतों के आगे झुके। जो संस्कार अपने दादा और पिता से पाये उन्हीं को जीवन भर निभाया। पिताजी की कलम न बिकी, न झुकी। तूफानों में भी चट्टान की तरह अडिग रहना मैंने पिताजी से ही सीखा है। उनके अंतिम दर्शन के लिए आये हजारों लोगों में जिसने भी बात की उन्होंने पिता जी से करीबी संबंधों का जिक्र किया।
हजारों लाेगों से इतनी आत्मीयता बनाना आसान नहीं हाेता। आज के समय में इतने रिश्ते निभाना कोई सहज और सरल नहीं होता। किस-किस क्षेत्र की बात करुं -क्रिकेट जगत, पत्रकारिता या राजनीितज्ञाें, समाज सेवकों और संंतों का सम्मान। हर क्षेत्र में हर व्यक्ति से उनका लगाव और रिश्ते मुझे अहसास करा देते थे कि पिताजी जन्म से ही सूझबूझ वाले व्यक्ति थे। उन्हें वेदों, धर्म, राजनीति, इतिहास का ज्ञान था। कभी-कभी उनकी ज्ञान की बातें मेरे सर के ऊपर से निकल जाती थीं। फिर वह मुझे आराम से समझाते थे।
उन्होंने करनाल संसदीय सीट से भारी जीत हासिल की और संसद पहुंचे। उन्होंने जितना संभव हुआ अपने क्षेत्र के लोगों से जुड़ने की कोशिश की। मेरी मां हमेशा उनके साथ रहीं। सांसद बनकर भी उनका कलम से रिश्ता नहीं छूटा। बतौर सम्पादक वह अपने जीवन से संतुष्ट थे। कलम का मोह उन्हें विशुद्ध राजनीतिज्ञ बनने में बाधक रहा। जीवन के अंतिम दिनों में रिश्तों की परख हो चुकी थी। आज मुझे अपने कंधों पर बहुत भार महसूस हो रहा है।
लिखता तो मैं पहले भी था लेकिन पिता जी की अनुपस्थिति में पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ उसकी भरपाई मैं कैसे करूंगा यह मेरे लिये दायित्व भी है और चुनौती भी है। मेरे दोनों भाई आकाश और अर्जुन अभी छोटे हैं। दायित्व बहुत बड़ा है, मेरी हर संभव कोशिश होगी कि मैं पिताश्री की तरह निर्भीक और सच लिखूं। नम आंखों से मैं उनकी कलम का दायित्व संभाल रहा हूं। पिताश्री के आशीर्वाद से मुझे ताकत मिलती रहेगी। उनका जीवन तो बस इस तरह का थाः
जिये जब तक लिखे खबरनामे
चल दिए हाथ में कलम थामे।
-आदित्य नारायण चोपड़ा

Join Channel