मतदान केन्द्रों की वीडियोग्राफी
स्वतन्त्र भारत की चुनाव प्रणाली ऐसा तन्त्र है जो पूरी तरह पारदर्शी होता है…
स्वतन्त्र भारत की चुनाव प्रणाली ऐसा तन्त्र है जो पूरी तरह पारदर्शी होता है और मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार माना जाता है। इसकी यह पारदर्शिता और जवाबदेही सरकार के प्रति न होकर नागरिकों के प्रति है। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह व्यवस्था बहुत गंभीर चर्चा करने के बाद की थी और चुनाव आयोग को सरकार का अंग नहीं बनाया था बल्कि इसे संविधान से शक्ति लेकर स्वायत्त सत्ता प्रदान की थी। इसकी मूल वजह यह थी कि लोकतन्त्र में मतदाता स्वयंभू इस प्रकार होता है कि उसके एक वोट से ही सरकारें बनती-बिगड़ती हैं। सरकार बनाने और बिगाड़ने का अधिकार मतदाता को ही होता है। प्रत्यक्ष रूप से एक वोट का अधिकार ही भारतीय लोकतन्त्र में सरकार बनाता है और अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से परोक्ष तरीके से यह सरकार बिगाड़ता भी है। यह कार्य वह संसद या विधानसभाओं में काबिज सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाकर करता है। अतः बहुत स्पष्ट है कि सम्पूर्ण चुनाव प्रणाली की जांच करने का मतदाताओं को अधिकार होता है। उनके इस अधिकार को संरक्षित रखने का भार प्रजातन्त्र में काबिज सरकार पर भी होता है क्योंकि उसी के वोट से सरकार बनती है।
अतः इसी नजरिये से 1951 में चुनाव कराने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून बना और 1961 में ‘चुनाव आचरण नियमावली’ अस्तित्व में आई जिसके तहत सभी चुनावी कागजातों के देखने या जांच करने का अधिकार मतदाताओं को दिया गया। मगर चुनाव में ईवीएम (इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) का प्रवेश होने के बाद चुनावी परिस्थितियों में बुनियादी फर्क पड़ा। चुनाव में नई इलैक्ट्रोनिक पद्धति के पदार्पण के बाद मतदान केन्द्रों की सीसीटीवी फुटेज होने लगी जिससे प्रत्येक मतदाता की सन्तुष्टि हो सके परन्तु सरकार ने चुनाव आचरण नियमावली में यह संशोधन किया है कि मतदान केन्द्रों के भीतर की सीसीटीवी फुटेज अर्थात वीडियोग्राफी देखने का मतदाताओं को अधिकार नहीं है क्योंकि चुनाव आचरण या समायोजन नियमावली के तहत केवल चुनाव सम्बन्धी कागजात दिखाने का जिक्र है। सरकार इस नियम में यह संशोधन कर रही है कि इसके दायरे में वीडियोग्राफी न आये और इसके अलावा शेष सभी चुनाव सम्बन्धी कागजात देखने का अधिकार नागरिकों को हो। दरअसल जब 1961 में चुनाव आचरण नियमावली बनी थी तो न तो ईवीएम का ख्याल कल्पना में था और न ही मतदान केन्द्रों की चुनाव वाले दिन कैमरे में पूरी घटनाओं की फिल्म बनाने का कोई विचार था। अतः 1961 में बनी इस नियमावली में केवल चुनावी कागजातों का ही जिक्र था जिनकी जांच- पड़ताल कोई भी मतदाता कर सकता था। सरकार का कहना है कि मतदान केन्द्रों की टीवी फुटेज इन कागजातों के दायरे में नहीं आती है। सरकार यह संशोधन पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के उस फैसले के बाद ला रही है जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयोग को हरियाणा में हुए चुनावों के सभी प्रकार के दस्तावेज उसके यहां अपील करने वाले वकील महमूद प्राचा को दिखाने चाहिए। इनमें मतदान केन्द्रों के भीतर की वीडियो फिल्म भी शामिल है।
यह फैसला कुछ दिनों पहले ही आया है। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि मतदान समायोजन में सरकार कहीं नहीं आती है। यह जिम्मेदारी पूरी तरह चुनाव आयोग की होती है। सुनने में आ रहा है कि चुनाव आचरण नियमावली में संशोधन सरकार ने चुनाव आयोग से सलाह-मशविरा करके ही किया है। इस संशोधन से सबसे ज्यादा चुनाव आयोग ही प्रभावित होगा। चुनाव आयोग का हर काम पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए क्योंकि चुनाव के समय आयोग के पास आंशिक रूप से सरकार के प्रशासकीय अधिकार भी आ जाते हैं। हम जानते हैं कि चुनाव आयोजन को लेकर चुनाव आयोग की भूमिका पर भारत के विपक्षी दल तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं। चुनाव आचरण में पहले यह व्यवस्था थी कि चुनाव सम्बन्धी सभी प्रकार के कागजातों को देखने का मतदाताओं को अधिकार होगा मगर इस चुनावी आचरण या प्रबन्धन नियमावली में संशोधन करके अब कहा गया है कि उन सभी कागजात को देखने का मतदाताओं को अधिकार होगा जो कि इस नियम के तहत दिये गये हैं। सवाल यह है कि आज के इलैक्ट्रानिक दौर में मतदान केन्द्र के भीतर की घटनाएं कैमरे में कैद कर फिल्म बनाने की व्यवस्था स्वयं चुनाव आयोग ने ही की है।
अतः इस घेरे में मतदान केन्द्रों की टीवी फुटेज भी आनी चाहिए। जाहिर है कि इसके बारे में 1961 में नहीं सोचा जा सकता था। मतदान केन्द्र के भीतर क्या घटा अथवा घट रहा है, इसका अधिकार मतदाताओं को क्यों नहीं मिलना चाहिए। इसके विरोध में तर्क दिया जा सकता है कि जब शेष सभी कागजात मतदाताओं को देखने का अधिकार है तो वीडियो फिल्म के सार्वजिनक प्रदर्शन से क्या फर्क पड़ेगा? मतदान केन्द्र के भीतर की वीडियो फुटेज देने की मांग के बीसियों पत्र चुनाव आयोग के कार्यालय मेें पड़े हुए हैं। जिसे देखते हुए चुनाव आयोग का कर्त्तव्य बनता था कि वह इन्हें प्रार्थियों को उपलब्ध कराये परन्तु कानूनी नियमावली में संशोधन हो जाने के बाद अब चुनाव आयोग को ये वीडियो फिल्में नहीं देनी पड़ेंगी। पारदर्शी चुनाव प्रणाली की अनिवार्यता को देखते हुए चुनाव आयोग को इससे घबराना नहीं चाहिए क्योंकि उसकी पहली जिम्मेदारी मतदाताओं के प्रति ही है। यह सर्वविदित है कि चुनाव आयोग मतदाताओं के एक वोट का सबसे बड़ा अलम्बरदार होता है। उसे ही यह सुनिश्चित करना है कि देश-प्रदेश में जो भी चुनाव होते हैं वे सभी पूरी तरह पाक- साफ होते हैं।